आ रस पी:भाग 4


कुरान भी मालिक द्वारा भक्तों की परीक्षा हेतु धन ऐश्वर्य और खुशहाली छीनने की बात बताती है---2 /155 l यह धन छीनना प्रारब्धवश नहीं वरन भगवान की इच्छा से होता है, प्रभु का विशेष अनुग्रह है  l ऐसे भक्तों का वह स्वं  भरण पोषण करते हैं, योग क्षेम भी वहन करते हैं और सभी भक्तों  को, चाहें अर्थार्थी ,आर्त्त   जिज्ञासु  या ज्ञानी हो , उदार बताते हैं--- 10 /46 /4 ,गीता 9 /22 तथा 7/16,18  l सरल भाषा में कहें तो जिस वस्तु से भक्त की भक्ति  बढ़ती  है, वह वस्तु श्री कृष्ण भक्तों के पास रहने देते हैं; उस वस्तु की रक्षा भी  करते हैं;  यदि किसी वस्तु की प्राप्ति से या किसी वस्तु के भक्त के पास रहने से भक्त भगवान  से  विमुख होता है तो वह वस्तु भगवान उससे  छीन लेते हैं,और बदले में अपना सर्वस्व --अपने आप को-- दे देते हैं  l   इससे कोई यह निष्कर्ष नहीं निकाल ले  कि भगवान कृष्ण के, राम के, विष्णु के भक्त निर्धन ही होते हैं धनवान हो ही नहीं सकते  l  यदि ऐसा होता तो श्री कृष्ण अपने मित्र सुदामा, नरसी मेहता आदि  को धन आदि क्यों देते lऔर इनके लिये यह क्यो कहा जाता: “भक्त जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता ,श्री हरि उसे वही -वही पदार्थ देते हैं l ’’---4/13/34  और स्मरण रहे ध्रुव  और प्रहलाद को बहुत लंबे समय तक प्रथ्वी का राज्य दिया है,वह भी बिना मांगे ! तात्पर्य इतना ही है कि यदि धन अन्य भौतिक भोग किसी भक्त को भगवान से विमुख  कर रहे होते हैं, यदि  भक्तों का आश्रय  भगवान से हटकर धन, भौतिक सुख आदि  की ओर चला गया है तो भगवान अपना प्रेम दिखाते हुए ऐसे भक्त से ऐसा धन और भौतिक भोग-सुख आदि छीन लेते हैं, ताकि वह  भक्त भगवान के सम्मुख हो जाए और संसार से मुंह मोड़ ले और भगवान का अनन्य भक्त बन जाए l इसे भगवान की अनुकंपा ही मानना चाहिए l उससे भौतिक  सुख आदि छीन  करके उसके बदले उसे अपनी प्रेमाभक्ति देते हैं,  छोटी सी चीज़  के बदले बहुत बड़ी चीज़  l भक्ति के अलावा भक्तों को और क्या चाहिए !  यदि किसी भक्त के पास  धन,राजपाट आदि हैं और वह उनमें आसक्त नहीं है केवल भगवान से ही अनुराग रखता है तो ऐसे भक्त का धन आदि भगवान क्यों छीनगे ?राजा अमरीश राजा जनक आदि भक्त इसी कोटि में आते हैं.l फिर  भागवत के आरंभ में ही यह बात साफ कर दी गई है की भागवत में भगवान चारों पुरुषार्थों --अर्थ धर्म काम और मोक्ष --से परे भक्ति बता रहे, भागवत में भक्ति का ही विशेषतः  निरूपण है --1/1/2 l   

अवतार काल में भगवान साधारण मनुष्य  जैसे  ही दीखते  हैं; परंतु कुछ गिने-चुने  अधिकारीगण  को अपनी भगवत्ता भी दिखा देते हैं l भगवान एक ही समय में अनेकानेक स्थानों में एक ही अथवा अनेकानेक रूपों में रह सकते हैं।   तीव्रगामी रथ पर बैठकर बलराम और श्री कृष्ण अक्रूर जी के साथ मथुरा जा रहे थे l रथ को रोक कर संध्या के समय यमुना जी में स्नान करने के लिए  अक्रूर जी ने  डुबकी लगाई।  उन्होंने दोनों भाइयों को  जमुना जल के अंदर देखा। फिर बाहर निकल कर देखा तो दोनों भाई रथ पर सवार थे l एक बार फिर यमुना जी के अंदर डुबकी लगाई, देखा कि हज़ार फन वाले  अनंत जी की गोद में भगवान शयन कर रहे हैं l शेष  जी के हजार फण है और हर फण  पर मुकुट हैl भगवान के चार भुजाएं हैं और रंग सांवला है l पार्षदगण, शक्तियां, सनकादिक,  शिव जी, ब्रह्मा जी, प्रमुख देवतागण, चारण आदि भगवान की स्तुति कर रहे हैं l यह देखकर अक्रूर जी को भक्ति प्राप्त हो गई l  उन्होंने भगवान कृष्ण की स्तुति की भगवान को सभी कारणों का कारण बताया और अविनाशी कहा l यह भी बताया कि  भगवान ने  इस समय वासुदेव,संकर्षण, प्रद्युमन और अनिरुद्ध के रुप में अवतार लिया है l
इसी प्रकार भगवान जनकपुरी के राजा बहुलाश्व  ब्राहमण श्रुतदेव के घर पर भी एक ही समय में उपस्थित हुए हैं। राजा यह समझ रहे थे कि भगवान मेरे पास ही हैं l और उसी समय ब्राह्मण भी यह समझ रहा था कि भगवान उसी के साथ हैं --10/86/26 l
.एक बार नारद जी ने द्वारिका में जाकर भगवान को देखा तो भगवान एक ही समय में पृथक-पृथक स्थानों पर अलग-अलग लीलाएं कर रहे थे। सबसे पहले रुकमणी के महल में गए तो नारद जी ने देखा कि भगवान रुकमणी जी के महल में रुकमणी जी के पलंग पर बैठे हैं और रुकमणी जी उन्हें सोने की डंडी वाले  चँवर  से हवा कर रही हैं l  नारद जी को देखकर भगवान सहसा उठ खड़े हुए और नारद जी का स्वागत किया।यहां से नारद जी दूसरी पत्नी के महल में गए  श्री कृष्ण का रहस्य जानने के लिए. वहां भगवान चौसर खेल रहे थेl नारदजी अगली पत्नी के महल में गए, वहां नारद जी ने देखा कि भगवान बच्चे को दुलार रहे हैं. नारदजी अलग-अलग महलों में गए, कहीं भगवान संध्या करते हुए पाए गए ,कहीं गायत्री का जप कर रहे थे, कहीं-कहीं हाथों में ढाल तलवार लेकर पैंतरेबाजी कर रहे थे ,किसी महल में मंत्रियों के साथ विचार विमर्श कर रहे थे, किसी जगह भगवान ध्यान में मगन थे, कहीं पर नारद जी ने देखा भगवान किसी के साथ युद्ध की बात कर रहे हैं तो कहीं पर संधि की बातें हो रही है.भगवान का ऐश्वर्या और वैभव देखकर नारद जी ने कहा कि भगवान की माया को कोई नहीं समझ सकता।  नारद जी ने भगवान को सब का आराध्य देव  बताया और नारद जी वहां से चले गए. भगवान ने उन्हें समझाया कि नारद जी को उनकी योगमाया देखकर मोहित नहीं होना चाहिए। भागवत में शुकदेवजी राजा परीक्षित को समझाते हैं कि यद्यपि भगवान एक ही हैं फिर भी नारद जी ने उनको प्रत्येक पत्नी के महल में अलग अलग देखा। भगवान की शक्ति अनंत हैlस्वयं भगवान ने ही उद्धव को भागवत में अर्जुन को गीता में  समझाया है कि वह स्वयं भी अपनी विभूतियों की गणना नहीं कर सकते।जब अनंत का कोई अंत ही नहीं होता तो गणना  कैसी?
 महारास करते समय तो भगवान ने करोड़ों-करोड़ों रूप बनाए हैं. “समस्त योगों के स्वामी  श्री कृष्ण दो -दो  गोपियों के बीच में प्रकट हो गए और अपना हाथ उनके गले में डाल दिया। क्रम ऐसे था एक गोपी एक कृष्ण, एक गोपी एक  कृष्ण---  करोड़ों गोपियों के यूथ थे.और करोड़ों ही श्री कृष्ण  के रूप।’’

भागवत महापुराण में इस बात का वर्णन हुआ है कि कृष्ण ने मरे हुओं को जीवित किया हैl बाइबिल में भी ऐसा देखने को मिलता है कि एलिज़ा और जीज़स(Eliza and Jesus) ने  मृतकों को जीवनदान दिया है, पुनः जीवित किया है.बलराम और कृष्ण की गुरुकुल में  शिक्षा पूर्ण होने पर  उनके गुरु सांदीपनि  ने अपनी पत्नी से विचार विमर्श कर के दक्षिणा  के रूप में पुत्र को वापस लाने की मांग जो कि प्रभास क्षेत्र में  समुद्र में डूब गया थाl ऐसा प्रतीत होता है कि गुरु को इन दोनों की प्रभुता के संबंध में जानकारी थी  जबकि पूर्व प्रसंग में हमने देखा कि अक्रूर जी को उनकी भगवत्ता का  तब मालूम पड़ा जब भगवान ने अपने आपको उनके सामने चतुर्भुज रुप में शेष रूप में प्रकट कियाlगुरु पुत्र की खोज में दोनों समुद्र के पास गए तो समुद्र ने उनकी स्तुति की और बताया कि अवश्य ही  पञ्चजन नाम  के शंखासुर  ने  गुरु पुत्र का अपहरण किया है जो समुद्र में ही रहता है l राक्षस को मारकर  पञ्चजन्य  शंख प्राप्त किया, परंतु राक्षस के पेट में गुरु पुत्र नहीं मिलने से श्री कृष्ण यमलोक पहुंच गए’l वहां उन्होंने अपना पञ्च जन्य शंख बजाया जिससे कि वहां नरकों में भारी हलचल हो गईl और नर्क के सारे जीवो को मुक्ति मिल गई, ऐसा वर्णन स्कंद पुराण में आता  है. इस प्रकार की मुक्ति को अपवाद ही समझा जाए क्योंकि कर्मों के फल को तो भोगना ही पड़ता है-- श्रीमद्भगवद्गीता 18 /12 l और मुक्ति अर्थात आवागमन से अवकाश तो ज्ञान योग. कर्मयोग या भक्ति योग से ही प्राप्त होता है lशंख की ध्वनि सुनकर द्वार पर आए और यमराज ने भगवान का स्वागत किया। भगवान ने उन्हें आज्ञा दी कि उनके गुरु पुत्र को यमराज लौटा दें। यमराज ने कहा,’’ जो आज्ञा,’’ और गुरु पुत्र को लौटा दिया जिसे भगवान ने गुरु को सौंप दिया।
इसी प्रकार भगवान देवकी के कंस द्वारा मारे गए छः पुत्र भी वापस लाएं हैं l  देवकी मां ने कहा, कृष्ण बलराम से,  ‘’मैं चाहती हूं कि तुम दोनों मेरे उन पुत्रों  को वापस ले आओ जिन्हें कंस ने मार दिया था ताकि मैं  उन्हें जी भर कर देख सकूं।’’  यह : बालक   स्वयंभू  मन्वंतर में पजापति ऋषि की पत्नी ऊर्णा के गर्भ से पैदा हुए थे l यह देवता थे l  ब्रह्मा जी ने असुर योनि में जाने का शाप दे दिया था क्योंकि यह ब्रह्माजी पर हंसे थे जब ब्रह्मा जी अपनी पुत्री से समागम करने के लिए उद्धत हुए थे l  यह लोग हिरण्यकश्यपु के  यहां पुत्र रूप में पैदा हुए l  वहां से लाकर योग माया ने इंहें देवकी के गर्भ में डाल दिया था l  इन्हें उत्पन्न होते ही एक एक करके कंस ने मार डाला था  और बलराम और कृष्ण  सुतल लोक में गए और वहां के राजा बलि से  इन्हें लेकर गए l  देवकी ने बालकों को स्तनपान कराया।यह दूध श्री कृष्ण पी  चुके थे।  जन्म के तुरंत बाद गोकुल में जाने से पूर्व देवकी ने एक बार कृष्ण को अपना दूध पिलाया था,यह  श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती का मत है l इस से तथा श्री कृष्ण के स्पर्श से इन्हें आत्मज्ञान हो गया और यह माता देवकी ,बलराम और श्रीकृष्ण को नमस्कार करके देव  लोक को चले गए l देवकी को आश्चर्य हुआ कि बालक भी गए और चले भी गए l उन्होंने इसे कृष्ण की लीला ही माना---10 /85 /55 -58  l
 श्री कृष्ण ब्राह्मण बालकों  को भी नारायण के  लोक से लेकर आए थे l द्वारका में एक ब्राह्मण रहता था l  उसके पुत्र पैदा  होते ही ,धरती का स्पर्श करते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे l  इसके लिए वह ब्राह्मण द्वारिका के शासकों को दोषी मानता था l  इस तरह उसके आठ  पुत्र समाप्त हो गए l नौवें पुत्र की रक्षा का भार अर्जुन ने अपने ऊपर लिया l परंतु उसे बचा नहीं पाए l वे उसे अन्य मरे हुए ब्राह्मण पुत्रों को ढूंढने यमराज की संयमनीपुरी  गए l वहां  उन्हें मरे हुए ब्राह्मण बालक नहीं मिले।  अन्य बहुत से लोकों (देखें लोक परलोक पर लेख) में भी अर्जुन गए, परंतु बच्चे नहीं मिले।  क्योंकि अर्जुन ब्राह्मण के  पुत्र को बचाने में असफल रहे और ना ही उसे वापस ला सके, इसलिए  अपने शरीर को अग्नि में प्रवेश करने के लिए उद्धत हुए l कृष्ण ने उन्हें रोका, दिव्य रथ में बैठकर अर्जुन के साथ श्री कृष्ण ने लोकालोक पर्वत को लांघकर घोर अंधकार में प्रवेश किया। घोड़े रास्ता भूल गएl सुदर्शन चक्र ने रोशनी कीlबहुत समय चलने के पश्चात, एक लोक में इन दोनों ने प्रवेश किया।अर्जुन ने इस लोक में  सहस्त्र सिर वाले  शेषजी की शैया पर पुरुषोत्तम भगवान को विराजमान देखा। उनकी आठ भुजाएं थी lभगवान  कृष्णाने अपने ही अंश को नमस्कार किया। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार महाविष्णु भी श्री कृष्ण से ही प्रकट हुए हैं और उनके स्व अंश हैं l वहां पर विराजमान सभी लोकपालों के स्वामी भूमा पुरुष ने कहा , ‘’तुम लोगों को देखने के लिए ही मैंने   ब्राह्मण बालकों  को अपने पास बुला लिया था.’’  अर्जुन और कृष्ण को नर और नारायण बताया। और कहा कि लीला समाप्त करके वापस यह लोग नारायण के पास जाएं। अर्जुन ने  ऐसा अनुभव किया कि जीवो में जो कुछ बल पौरुष है वह कृष्ण की कृपा से  ही है.--- 10 /89 /57 -63  l श्रीमद् भगवत गीता में  भी भगवान ने लगभग यही अर्जुन से कहा है---10 /41  l अर्जुन और कृष्ण ब्राह्मण बालकों  को लेकर  द्वारिका गए, जिस प्रकार गए थे उसी प्रकार वापस लौटे।
 इन कथाओं से स्पष्ट है कि भगवान जिसे वापस लाते हैं वह भी कई बार पुनः  चला जाता है l हमने देखा है कि देवकी के छः  पुत्र वापस चले गए l ऐसा ही राजा चित्रकेतु के साथ भी हुआ था l  उनके पुत्र के जीव को नारद जी ने  बुलाया था; परंतु वह  रुका  नहीं ,राज सिंहासन को ठुकरा दिया और उपदेश देकर चला गया l    जीव ने कहा,  यह [ राजा चित्रकेतु और उनकी पत्नी] लोग मेरे माता पिता कैसे हुए, मैं तो पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य आदि योनियों में जाने कितने जन्मों से भटक रहा हूं.....  आत्मा शरीर आदि से परे है. … इसका ना कोई अपना है ना कोई पराया,  इसलिए यह शरीर आदि के गुण दोष और कर्मफल को ग्रहण नहीं करता, दृष्टा के रूप में रहता है-’’--- 6 /16 /6 -12. l अभिमन्यु का जीव भी शरीर के संबंधों को अनित्य बताकर वापस चला गया था और रुका नहीं था इसे अर्जुन की प्रार्थना पर श्री कृष्ण द्वारा बुलाया गया था ,महाभारत के युद्ध में अभिमन्यु के वध  के पश्चात या यूं कहिए शरीर छोड़ने के  उपरांत। ऐसा कुछ लेखक का भी अनुभव है। दिवंगत पत्नी ने बुलाए जाने पर आकर अनासक्त  व्यवहार किया, रहने से इन्कार किया और उसी विमान से वापिस चली गईं। यही कारण है कि सक्षम होते हुए भी महापुरुष, संत, योगी आदि भगवान के विधान से छेड़छाड़ नहीं करते। मरे हुए को यह लोग जीवित कर सकते हैं, परंतु ऐसा करते नहीं हैं l यदि भगवान की आज्ञा हो तभी ऐसा करते हैं l यह लोग जानते हैं कि जीव का जीव से कोई नित्य नाता नहीं। समुद्र में लहरें उठती हैं और समाप्त हो जाती हैं; इनका एक दूसरे से नाता थोड़े समय का ही है, और लहर का समुद्र से नाता नित्य हैl  इसी प्रकार जीव का दूसरे जीव से नाता अनित्य है और भगवान से नाता नित्य है l  इस नित्य संबंध को ही हमें मानना है.
यहां तक तो सच है कि भगवान अवतार काल में साधारण मनुष्य का सा बर्ताव करते हैं और अपने आप को छुपाए रखते हैं;  फिर भी कभी-कभी उनकी भगवत्ता छलक जाती है l  जैसे  पूर्णिमा का चांद काले काले बादलों से घिरा हुआ हो तो भी आभास हो जाता है कि आकाश में चंद्रमा किस स्थान पर  है l कृष्णा ने  मिट्टी खाई है यह पता चलने पर यशोदा मैया उन्हें डांट रही हैं और मारने पर उतारू है.  डर’’के मारे भगवान ने मुंह खोल दिया। मुंह में मैया को समस्त ब्रह्मांड नजर आए,और स्वयं भी भगवान के मुंह के अंदर थीं  l यशोदा तत्व से भगवान को जान गईं l  भगवान को आगे भी बाल लीलाएं  और अन्य लीलाएं करनी थी, इसलिए उन्होंने योग माया से मैया को इस घटना को भुलवा दिया। यह घटना भूल गईं, यशोदा।पूर्व जन्म में नंदबाबा  द्रोण  नाम के एक श्रेष्ठ वसु  थे और उनकी पत्नी धरा थीं यशोदा। उनके मांगने पर ब्रह्मा जी ने उन्हें वरदान दिया कि वे  जब धरती पर जन्म लेंगे तो उनकी श्री कृष्ण में भक्ति होगी---- 10 /8 /32 -52 l  यह रहस्य है भगवान का गोकुल में इन दोनों के घर पर रहने का और बाल लीला दिखाने का l लीलाओं के समय   भगवान  अपनी योगमाया का सहारा लेते हैं l भगवान का आदेश था कि ऐश्वर्य शक्ति बाल लीला के समय प्रकट ना हो; परंतु ऐश्वर्य शक्ति ने देखा कि मेरे स्वामी यशोदा से मार खाने वाले हैं मिट्टी खाने के  अपराध के लिए, तो वह बिना आज्ञा के ही अनायास  प्रकट हो गई l इस कारण से यशोदा ने  भगवान के मुंह में विचित्र दृश्य देखा। इसके विपरीत कौरव सभा में भगवान द्वारा दिखाया गया  विराट रूप,  गीता का उपदेश देते समय अर्जुन को  दिखाया गया विराट रूप और महाभारत के पश्चात उताँग को दिखाया गया विराट रूप भगवान ने अपनी इच्छा से दिखाया था l ऐसा कृष्ण भक्तों का मत है l.....(क्रमशः)


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