ब्रह्माजी : भाग 1



   यह सृष्टि कर्ता हैं . यह नारायण के नाभि-कमल से प्रकट होते हैं ,जब वे एक हज़ार चतुर्युगों पश्चात जागते हैं ---1/3/2.  समस्त स्थावर और जंगम सृष्टि इन द्वारा ही की जाती है.लोकों  में सबसे पहले यह  अपना लोक --सत्य लोक  बनाते हैं. तत्पश्चात तप,जन् और मह लोक  बनाते हैं. उसके बाद  स्वः ,भुवःऔर  भू लोक का निर्माण करते हैं.असुरों के लोक अतल ,वितल , सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल  का निर्माण भी ब्रह्माजी द्वारा किया जाता है. सब मायिक लोक  इन्हीं द्वारा बनाए जाते हैं.हमारे ही ब्रह्मांड में भगवान विष्णु का लोक, क्षीरसागर, शिव का लोक, कैलाश और दुर्गा मां का लोक  मणिद्वीप भी है. यह तीनों लोक नित्य  हैं और प्रलय के समय समाप्त नहीं होते . यह सर्वव्यापी हैं .यह ब्रह्माजी ने नहीं बनाए.
ब्रह्मा जी का कार्य आरंभ होने से पूर्व भगवान पहले ही सृष्टि का कार्य आरंभ कर चुके होते हैं. सबसे पहले भगवान ने  संकल्प किया कि मैं एक से अनेक हो जाऊं. इससे जो प्रलय  कालीन स्थिरता थी वह भंग हो गई.यह भगवान के विश्राम का त्याग है और प्रथम कर्म कहलाता है. प्रकृति में क्षोभ  हुआ, इससे महतत्व या महान उत्पन्न हुआ. इसे परमात्मा द्वारा प्रकृति के गर्भ में बीज स्थापित करना भी कहते हैं. परंतु यह संभोग जैसा नहीं है.इसका अर्थ है जीवो को, जो अभी तक भगवान के अंदर लीन थे,  उनके कर्मों के अनुसार शरीर दिलाने का कर्म करना. भगवान की यही कृपा सृष्टि की रचना का कारण है. भगवान चाहते हैं कि सभी जीव आवागमन से छूट जाए और भगवान के धाम में हमेशा के लिए जाए.सृष्टि काल में  इसी वजह से समस्त जीवों  को शरीर मिलते हैं. और जब तक सृष्टि रहती है तब तक भगवान सभी जीवो को मनुष्य शरीर प्रदान करते हैं अनेकों बार, क्योंकि केवल मनुष्य शरीर से ही मुक्ति मिल सकती है. महान से अहंकार पैदा हुआ जिससे पंच तन्मात्रा अस्तित्व में आईं , फिर पांच महाभूत आए.इन पांचों का पंजीकरण हुआ. इसके पश्चात आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी आए, स्थूल रूप में.अब तक तो यह सूक्ष्म रूप में ही थे. इसके पश्चात भी ब्रह्मा जी सृष्टि करने में सक्षम नहीं थे. उन्होंने तपस्या की   और तपस्या करने के बाद ही वे सृष्टि करने लायक बने.
ब्रह्माजी ने  सर्वप्रथम पांच प्रकार की अविद्या उत्पन्न की, अपनी छाया से उत्पन्न की-- तामिस्त्र ,अंधतामिस्त्र तम, मोह और महामोह. इससे यक्ष और राक्षस हुए. फिर अपनी सात्विक प्रभा से ब्रह्मा जी ने देवताओं की रचना की. अपनी जांघ  से असुरों को उत्पन्न किया, जो इन्हें खाने को आतुर हो गए. भगवान के कहने पर इन्होंने अपने कामकुलषित  शरीर को त्याग दिया और उससे संध्या पैदा हुई. ब्रह्माजी ने  अपनी कांतिमय मूर्ति से गंधर्व और अप्सराओं को जन्म दिया. तंद्रा से भूत पिशाच बनाएं, तेज से साध्य गण और पितर   बनाएं, तिरोधान शक्ति से विद्याधर और सिद्धो  की सृष्टि की, अपने प्रतिबिंब से, जो ब्रह्मा जी को सुंदर लगा, किंपुरुष और किन्नरों को रचा. जब ब्रह्मा जी अपने को कृतकृत्य समझने लगे तब इन्होंने मन से मनुष्य की सृष्टी करी. इस पर देवता प्रसन्न हुए और कहने लगे कि  उन्हें भी अंन  ग्रहण का अवसर मिल जाएगा क्योंकि मनुष्य यज्ञ करेंगे. पश्चात ,तप  योग, विद्या और समाधि से संपन्न होकर ऋषि गणों की रचना की.
 मैथुनी   सृष्टि के लिए ब्रह्मा जी ने अपने शरीर के दो भागों से मनु और शतरूपा को रचा (.इससे पहले बनाए गए मरीची आदि ऋषि सनकादिक कुमार निवृत्ति मार्ग पर चलने वाले थे और उन्होंने सृष्टि को आगे बढ़ाने से इनकार कर दिया था जिससे ब्रह्माजी दुखी थे.) इनसे ही मानव जाति आगे बढ़ती है.इसी प्रकार समस्त प्राणियों के नर-मादा का प्रथम जोड़ा ब्रह्माजी रचते हैं, और आगे मैथुन से वृद्धि होती है.(एवोलूशन evolutionका वर्णन भागवत में नहीं ) ब्रह्मा जी का दूसरा नाम हिरण गर्भ  है .

नारद जी ने ऐसा सोचा कि जिस प्रकार मकड़ी स्वयम से ही जाले को उत्पन्न करती है, बिना किसी बाहरी पदार्थ की सहायता से, इसी प्रकार ब्रह्माजी भी बिना किसी अन्य शक्ति की सहायता के सृष्टि  करते हैं. ब्रह्माजी ने उन्हें समझाया कि  भगवान द्वारा की गई सृष्टि के बाद ब्रह्मा जी उसी प्रकार सृष्टि करते हैं जैसे की सूर्य द्वारा अग्नि  प्रकट होने के बाद चंद्रमा, आकाश, प्रभावशाली ग्रह तथा तारे भी अपनी चमक प्रकट करते हैं.ब्रह्मा जी को सृष्टि करने की शक्ति भगवान से मिली, तप  करने के बाद. प्रलय के समय कुछ नहीं होता है. बिल्कुल निष्क्रियता होती है. भगवान कृष्ण संकल्प करते हैं कि  मैं एक से अनेक हो जाऊं ;’’
इससे  प्रकृति में हलचल होती है . तीनों गुणों में क्षोभ  होता है. इससे महतत्व की उत्पत्ति होती है. इस समय कारण सागर में महाविष्णु सो रहे होते हैं . इनसे गर्भोदकशायी    विष्णु की उत्पत्ति होती है जिनके  नाभि कमल से ब्रह्मा जी उत्पन्न होते हैं.
ब्रह्माजी इस प्रकार भगवान की नाभि से उत्पन्न होते हैं ना कि  किसी भौतिक स्त्रोत से. उत्पन्न होने के बाद इन्हें  कुछ भी दिखाई नहीं दिया तो यह चारों और गर्दन घुमा कर देखने लगे. इससे इनके चार मुंह हो गए. ब्रह्मा जी अपने बारे में और कमल के बारे में कुछ भी रहस्य नहीं जान पाए. और अपने बारे में सोचने लगे कि मैं कौन हूं ,कहां से आया हूं? अपना आधार खोजने की कोशिश की, परंतु नहीं पा सके. अंधकार ही अंधकार था. बहुत काल बीत गया परंतु कुछ जान नहीं सके ब्रह्मा जी. सौ  दिव्य  वर्षों तक उन्होंने योग अभ्यास किया तब जाकर उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ. उन्होंने देखा कि भगवान पुरुषोत्तम अकेले लेटे हुए हैं.ब्रह्मा जी केवल कमल, जल, आकाश, वायु और अपना शरीर ही देख पाए और इसके अलावा उन्हें कुछ दिखाई नहीं दिया . रजो गुण से संपन्न ब्रह्मा जी सृष्टि करना चाहते थे; परंतु करने में असमर्थ थे . इसलिए उन्होंने भगवान की स्तुति की. और भगवान की स्तुति करने के बाद भगवान ने जब उन्हें शक्ति दी तभी वह सृष्टि करने में सक्षम हुए.भगवान ने ब्रह्मा जी को आदेश दिया ‘’हे ब्रह्मा तुम अपने को तपस्या में स्थित करो और मेरी  कृपा पाने के लिए ज्ञान के सिद्धांतों का पालन करो. इन कार्यों से तुम अपने हृदय के भीतर से हर बात को समझ सकोगे--- जब तुम अपने सृजनात्मक कार्य कलाप के दौरान भक्ति में निमग्न रहोगे तो तुम मुझको अपने में तथा ब्रह्मांड भर में देखोगे और तुम देखोगे कि मुझमें स्वयं तुम, ब्रह्मांड तथा सारे जीव हैं..... तुम पर मेरी कृपा रहेगी...तुम्हारा  मन सदैव मुझ में स्थित रहेगा. ” भगवान ने ब्रह्मा जी से यह भी कहा: “जो भी  ब्रह्मा की तरह प्रार्थना करता है और इस तरह जो मेरी पूजा करता है उसे शीघ्र ही यह वर मिलेगा कि उसकी सारी इच्छाएं पूरी हो क्योंकि मैं समस्त वरों  का स्वामी हूं.” भगवान से शक्ति पाकर  ब्रह्मा जी ने सृष्टि का कार्य आरंभ किया.
 इस प्रकार ब्रह्मा जी ने स्पष्ट किया कि सृष्टि निर्माण में वे परम सत्ता नहीं है; परंतु भगवान कृष्ण ही  परम सत्ता  है.ब्रह्मा जी आगे नारदजी को बताते हैं कि  वह भगवान नारायण द्वारा सर्वव्यापी परमात्मा के रूप में उनकी ही दृष्टि के सामने पहले जो  रचित किया जा चुका है, उसी की पुनः  खोज करते हैं. और केवल उन्ही(भगवान) के द्वारा सब कुछ सृजित है. इस प्रकार ब्रह्माजी भगवान श्री कृष्ण की प्रेरणा  से संसार  की रचना करते हैं हर कल्प में, उसी प्रकार जैसे कि यह पूर्व कल्प में थी. ब्रह्मा जी हर ब्रह्मांड में एक  होते हैं जो कि सृष्टि कर्ता  है. ऐसे ही हर ब्रह्मांड में एक  पालनकर्ता विष्णु,क्षीरोदकशायी , और एक संहारकर्ता शिव होते हैं. ब्रह्मांड  असंख्य हैं. इस प्रकार ब्रह्मा- विष्णु- महेश भी अनंत हैं, असंख्य हैं.
ब्रह्मा जी का पृथक लोक होता है. यह मायिक  जगत का सबसे उत्कृष्ट लोक होता है. परंतु होता है यह भी अन्य लोकों  की तरह अनित्य--गीता 8 .16  ब्रह्मा जी का लोक ब्रह्मा जी के  मान से  सौ  वर्ष का होता है. उसके पश्चात यह भी ब्रह्मा जी के साथ ही समाप्त हो जाता है. हमारी गणना के अनुसार ब्रह्मा जी का एक दिन जो कि एक कल्प होता है 4 अरब 32 करोड़ वर्ष का होता है. इनके दिन के समय सृष्टि रहती है. दिन के अंत में ब्रह्माजी शयन करते हैं जो इनकी रात्रि कहलाती है. वह भी इनके दिन के बराबर ही होती है.यह प्रलय हैं. रात्रि समाप्त होने के बाद पुनः  ब्रह्मा जी का दिन होता है अर्थात सृष्टि होती है. इस प्रकार 4 अरब 32 करोङ x 2 x 360 x  100 वर्ष के बराबर ब्रह्मा जी की आयु होती है.ब्रह्माजी का महीना 30 दिन का होता है और वर्ष  360 दिन का अर्थात 12 महीने।(श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के  अनुसार ब्रह्मा जी की जन्म तिथि ज्योतिष के अनुसार मार्च मास में पड़ती) इस अवधि की समाप्ति के बाद ब्रह्मा जी अपने लोक  के साथ परम ब्रहम में लीन हो जाते हैं. जैसे  और लोकों  का अंत होता है ऐसे ही ब्रह्मा जी के लोक का भी अंत होता है.अभी वर्तमान में ब्रह्माजी के 50 वर्ष की आयु समाप्त हो चुकी है.अभी  मानवीय गणना के अनुसार ब्रह्मा जी की आयु155.52ट्रिलियन वर्ष है. यह ब्रह्मा जी का  51 वा वर्ष चल रहा है. और पहला दिन है. इस कल्प का नाम है श्वेत वाराह कल्प .सातवां मन्वंतर चल रहा है, जिसका नाम है वैवस्वत मन्वंतर. इसमें मनु है श्राद्ध देव या वैवस्वत. इंद्र का नाम है पुरंदर. सप्त ऋषि गण हैं कश्यप अत्रि  भारद्वाज आदि. इस मन्वंतर के मुख्य देवता हैं आदित्य वसु, रूद्र आदि. वामन अवतार इसी मनवंतर में होता है. 28वा  कलि  युग चल रहा है. इससे पहले द्वापर में श्री कृष्ण का अवतार हुआ है.
ब्रह्माजी के 1 दिन में 14 मन्वंतर होते हैं अर्थात 14 मनु आकर समाप्त हो जाते हैं. प्रत्येक मन्वंतर में 71 चतुर्युगी होते हैं. जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है ब्रह्माजी के 1 दिन अर्थात कल्प में 1000 चतुर्युगी होते हैं.एक चतुर्युगी में 43,20,000 वर्ष होते हैं( कलि युग 4,32,000 वर्ष का होता है, इससे दुगना द्वापर, तिगुना त्रेता और चार गुणा सत्ययुग  होता है. इन चारों युगो को जोड़ने से उपरोक्त अंक आता है)
चित्रों में और पुराणों में इन्हें 4 सिर वाला बताया जाता है. यह कमल के फूल पर बैठे रहते हैं क्योंकि कमल नाल से इनकी उत्पत्ति हुई है ,विष्णु के नाभि कमल  से . इनके हाथ में कोई हथियार नहीं बताया जाता .इनके मंदिर बहुत ही कम है. सबसे प्रसिद्ध मंदिर पुष्कर राजस्थान में है. अन्य मंदिर असोत्रा जिला बाड़मेर,बागीदोरा जिला बांसवाड़ा, कुल्लू हिमाचल प्रदेश, ओचोरा केरल, खेडब्रह्मा गुजरात. कंबोडिया, थाईलैंड ,बैंकॉक और जावा( इंडोनेशिया) में भी इनके मंदिर हैं. चीन में इन्हें 4 सिर वाला सीमीआनशौन माना जाता है. ब्रह्मा जी असुरों को अजीबो-गरीब वरदान देने के लिए प्रख्यात है. नरसिंह भगवान के अवतार के समय हम उस वरदान का जिक्र कर चुके हैं जो उन्होंने  हिरण्यकश्यपु  को दिया था; देवी भागवत में प्रसंग आता है कि इन्होंने  शुम्भ-निशुम्भ को वरदान दिया था कि वह स्त्री के अलावा किसी अन्य से नहीं मर सकेंगे.इनके वरदानों के बावजूद भी असुरों की मौत हुई, कोई ना कोई त्रुटि, कोई ना कोई कमी, वरदान में रह ही  गई थी. इनको नरसिंह भगवान ने निर्देश भी दिए थे कि आइंदा वे इस प्रकार के वरदान ना दिया करें.....(क्रमशः)

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