भागवत : सत् संधान-1

भागवत सनातन धर्म के 18 महा पुराणों में से एक है। वैष्णवों को यह विशेष प्रिय  है। कृष्ण-भक्तों के लिए अमृत समान है। इसमें 12 स्कंध 335 अध्याय और 18,000 श्लोक हैं। भक्तों पर कृपा करके श्री कृष्ण अंतर्ध्यान होकर भागवत में प्रवेश कर गए हैं; इसके सेवन, श्रवण और  दर्शन मात्र से ही मनुष्य के पाप नष्ट होते हैं। कलयुग का यही प्रधान धर्म बताया गया है। सबसे पहले  ब्रह्म कल्प में स्वयं भगवान ने इसका ज्ञान ब्रह्मा जी को दियाभागवत2.8.28   ब्रह्मा जी ने फिर नारद जी को इसका उपदेश दिया और आज्ञा दी कि वे इसका विस्तार करें--- 2.7.50,51 नारद जी से यह व्यास जी के पास गया और उनसे उनके पुत्र शुकदेवजी को  मिला ---2.9.44 श्री कृष्ण के लीला समेटने के पश्चात् करीब 30 वर्ष का समय गुजरने पर परमहंस शुकदेव  जी ने इसे राजा परीक्षित को सुनाया और कलियुग के 200 वर्ष  बीत जाने पर  गोकर्ण जी ने यह कथा धुंधकारी को सुनाई जिससे उसका प्रेतयोनि से छुटकारा ही नहीं हुआ बल्कि वैकुंठ प्राप्ति भी हुई ---- भागवत माहात्म्य 6.94 ,95  इसमें भागवत धर्म का निरूपण है। भागवत का ज्ञान श्रीकृष्ण ने लीला समेटने से पूर्व उद्धवजी को भी दिया था---3.4.13  उद्धवजी ने मैत्रेयजी को सुनाया था। इस ग्रंथ में भगवान के जन्मरहस्य को समझाया गया है कि सर्वशक्तिमान माँ के पेट से बालक की तरह जन्म नहीं लेते अपितु उनका जन्म दिव्य होता है--- 10.3.8,9 और लीला पश्चात् धरती पर शरीर नहीं छोड़ कर, सशरीर, अपने धाम जाते  हैं----11.31.6 चरित्र-रहस्य में दिखाया गया है कि भगवान ने गोपियों के साथ इस प्रकार विहार किया जैसे कि एक छोटा शिशु अपनी परछाई से खेलें---10.33.17 भगवान बछड़े बन गए, बहुत सारे बछड़ों के रूप में, और किसी को, यहाँ तक कि बलरामजी को पता नहीं चला। कंस के अखाड़े में गए तो भिन्न-भिन्न लोगों को उनकी अपनी-अपनी भावनाओं के अनुसार भिन्न-भिन्न रूप नजर आए। किसी को बालक, किसी को प्रियतम, किसी को भगवान, किसी को सखा और कंस जैसों को साक्षात मौत अर्थात् काल  के रूप में दिखे। इसमें भगवान के प्रभाव का रहस्य भी बताया गया है --दिव्य, चिन्मय, अप्राकृत, साक्षी, सबके अंतःकरण में रहनेवाले, अनंत आदि। प्रभु के वचन रहस्यों को भी खोल कर रख दिया गया है। यह कि सब कुछ छोड़ कर भगवान की शरण ग्रहण की जाए जिससे  सदा  के लिए  जीव निर्भय हो जाए। श्रीमद्भागवत (देवी भागवत से पृथक बताने के लिए श्रीमद लिखा जाता है) में श्रीकृष्ण ने उद्धव को कुछ वही बातें बताई हैं जो अर्जुन को गीता में, विशेषकर सब धर्मों को छोड़कर भगवान की शरण ग्रहण करने के संबंध में-- 11.12.14,15 अन्य पुराणों की भाँति  इसमें भी सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मनु-चरित, अवतार, निरोध, भक्ति और शरणागति की चर्चा है। कलयुग में बहुत से अवगुण होने के साथ साथ उसके गुण बताए गए हैं कि कलयुग में केवल संकीर्तन से ही मुक्ति हो जाती है ---भागवत माहात्म्य 1.6 कलयुग में पाप कर्म करने पर ही पाप माना जाता है संकल्प से नहीं और अच्छा कर्म संकल्प मात्र से ही मान लिया जाता है ---1.18.7 तथापापी भी अगर भक्ति करे तो कृष्ण-धाम की प्राप्ति हो जाती है’’ यह नारद जी भागवत के माहात्म्य में बता रहे हैं2.15   भागवत महापुराण को पद्मपुराण में ब्रह्मसूत्र का भाष्य बताया गया है और गरुड़ पुराण इसे वेदांत का सार कहता है।
   
इस पुराण को लिखने का कारण बताया जाता है कि व्यासजी को समस्त  पुराणों को लिखने के पश्चात  वेदों का विभाजन करने पर भी संतोष नहीं मिला।  नारदजी ने इसका कारण बताया कि उन्होंने भगवत-लीला के संबंध में प्राय: कम ही लिखा है।  नारद जी ने अपनी राय बताई कि उनकी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होते है वह शास्त्रीय ज्ञान अधूरा है, जिस वाणी से प्रभु का यशगान नहीं किया जाए  वह अपवित्र है। भगवान की लीलाओं का गान करने के लिए तथा स्त्री, शूद्र, पतित द्विज जाति - जिन्हें पूर्व में वेद पढ़ने का अधिकार था --[यजुर्वेद—26. 2]कालांतर में यह छीन लिया गया था- [भागवत  1.4.25]को वेदों का ज्ञान देने के लिए भागवत की रचना की गई, व्यास जी द्वारा। इसमें पाद्मकल्प की घटनाओं का वर्णन है--- 2.10.47। विद्वान  जैसेकि स्वामी श्रीधर, श्रीजीव गोस्वामी तथा श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती के मतानुसार वराहकल्प और पाद्मकल्प में कोई विरोधाभास नहीं है, दोनों एक ही कल्प के दो नाम हैं। 

जिस प्रकार भारत के संविधान की प्रस्तावना/ प्रि-एम्बल[preamble] में पूरे संविधान का प्रयोजन  बताया गया है और मूलभूत ढाँचा समझाया गया है, इसी प्रकार भागवत के मंगलाचरण में यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि भागवत में  चारों  कैतव --अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष -- के अलावा धर्म का निरूपण किया गया है अर्थात विशुद्ध भक्ति, जिसमें मोक्ष पर्यंत तक की कामना ना हो। भागवत के भगवान सर्वशक्तिमान हैं, स्वयं प्रकाश हैं, माया और माया के कार्य से मुक्त हैं तीनों तापों - दैहिक, दैविक भौतिक का नाश करने वाले हैं, चेतन हैं और भागवत सुनने वालों के हृदय में आकर बैठ जाते हैं। विशेष महत्व भक्ति को दिया गया है। परंतु ज्ञान, कर्म योग, ध्यान योग, क्रियायोग, अष्टांगयोग का भी वर्णन मिलता है। वर्णाश्रमधर्म, स्त्रीधर्म, संन्यासधर्म और मानवधर्म को भी स्थान दिया गया है। भगवान के विभिन्न अवतारों की भी चर्चा है।

ध्यान, अष्टांगयोग और ध्यान विधि

इनका वर्णन दूसरे स्कंध के पहले अध्याय, तीसरे स्कंध के 28 वें अध्याय और 11वें   स्कंध के 14वें अध्याय में है। ध्यान साकार, निराकार और विराट रूप का बताया गया है। वास्तव में ध्यान भगवत प्राप्ति का एक साधन है। चित को भगवान में लगाने की प्रधानता दी गई है। इस ध्यान से मनुष्य भगवान को प्राप्त करता है। जिस विधि द्वारा मनुष्य भगवान को प्राप्त करता है उस आध्यात्मिक विधि का भी जगह जगह खोलकर वर्णन किया गया है। मनुष्य द्वारा जिस किसी व्यक्ति या पदार्थ में मन लगाया जाता है, वह उसके ही रूप का (तद्रूप) हो जाता है, यह अवधूत ने 11वें स्कंध के नवम अध्याय के 22 वे श्लोक में और नारद जी ने सातवें स्कंध के पहले अध्याय के 27,28वें श्लोक में खोलकर भृंगी और कीड़े का दृष्टांत देते हुए बताया है। भृंगी कीड़े को अपने मिट्टी के घरोंदे में बंद कर देता है। कीड़ा लगातार भय और उद्वेग से  भृंगी का चिंतन करता हैभृंगी आया मुझे खाने’’ जिस कारण कीड़ा कालांतर में भृंगी जैसा ही हो जाता है। यह बताये जाने के पीछे आध्यात्मिक-नियम [law] यह है कि किसी भी प्रकार से श्रीकृष्ण का चिंतन किया जाए--- प्रेम से, भक्ति से, भय से, बंधुत्व सेद्वेष से, कामना से या और किसी भी भाव से--- प्राप्ति श्रीकृष्ण की ही होती है। ध्यान किस प्रकार किया जाए यह श्रीकृष्ण और कपिल -जो भगवान के अवतार हैं- ने विस्तार से समझाया है। आसन ऐसा हो जो ना अधिक ऊँचा ना अधिक नीचा हो शरीर को सीधा रखकर आराम से बैठे और हाथ गोद में हो दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर हो। प्रणायाम द्वारा नाड़ियों का शोधन किया जाए, प्राणायाम पूरक- कुंभक- रेचक तथा रेचक- कुंभक- पूरक विधि से किया जाए। धीरे-धीरे प्राणायाम का अभ्यास बढ़ाया जाए। प्रणायाम से चित स्थिर और निश्चल होता है। फिर, ध्यान  श्रीभगवान के किसी एक अंग पर किया जाए, जब वह अच्छी तरह केंद्रित हो जाए तब दूसरे अंग पर किया जाए, बाद में भगवान के मुखारविंद का ध्यान किया जाए। पश्चात यह भी छोड़ दिया जाए और ध्यान आकाश में लगाया जाए। उसके बाद श्रीकृष्ण उद्धव को समझाते हैं, “आकाश का चिंतन त्याग कर मेरे स्वरूप में आरूढ़ हो जाए और मेरे सिवाय किसी भी वस्तु का चिंतन ना करे अपने को मुझमें और मुझ सर्वात्मा को अपने में अनुभव करें।’’ ऐसा करने से साधक को तत्व ज्ञान हो जाता है, अनेकता का भ्रम मिट जाता है, संसार से आसक्ति जाती रहती है और साधक सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति की कामना छोड़ देता है। इस प्रकार ध्यान से दुर्गुण, जो कि भगवत प्राप्ति में बाधा है, दूर होते हैं। ध्यान में जब योगी अपने परमाश्रय भगवान को देखता है तब उसे तुरंत ही भक्तियोग की प्राप्ति हो जाती है-----भागवत 2.1.21 ध्यान उसी का सधता  है जो युक्तियुक्त आहार-विहार करता है ना कि ज्यादा खाने वाले का, ना कम खाने वाले का, ना ज्यादा सोने वाले का, ना कम सोने वाले का। भगवान आगे बताते हैं कि योगी को व्रत भी नहीं करना चाहिए, उपवास की भी आवश्यकता नहीं है। योगी ऐसे तो कोई पाप करता नहीं है। यदि कोई पाप हो जाए तो उसे व्रत-उपवास का सहारा ना लेकर केवल योगाग्नि से जलाए ---11.20.25

ध्यान यूँ तो साकार और निराकार दोनों का ही बताया गया है परंतु ध्यान पहले साकार स्थूलरूप का करना चाहिए, जब परिपक्व हो जाए तब निराकार का करना चाहिए—2.2.13,14 यह इसलिए कि शरीरधारियों के लिए साकार का ध्यान आसान होता है निराकार का थोड़ा कठिन-- गीता12.2,5  श्रीकृष्ण ने भी उद्धव को ऐसा ही ध्यान समझाया है11.14.32-46

ऐसा ध्यान करने से, भगवान उद्धव को बताते हैं, सिद्धियाँ -अणिमा, गरिमा आदि- प्राप्त होती हैं। परंतु यह सिद्धियां वास्तव में विघ्न ही हैं, इनसे समय व्यर्थ होता है।  भगवान का कहना है कि योग से वह सब कुछ मिल जाता है जो जन्म, औषधि, तपस्या और मंत्रों से मिलता है। भगवान स्वयं को समस्त सिद्धियों का हेतु बताते हैं।  योग का अंतिम लक्ष्य है भगवान का रूप लोक, सामीप्य अथवा सायुज्य प्राप्त करना कि सिद्धियाँ। इस प्रकार भागवत में ध्यानयोग और अष्टांगयोग वास्तव में भक्ति योग ही कहलाने लायक हैं। गुरु के सानिध्य में ही योग करना चाहिए। प्रणायाम की शिक्षा किसी  सद्गुरु से ही प्राप्त की जानी चाहिए। बिना गुरु से सीखे गलत ढँग  से किए जाने पर हानि भी हो सकती है।  योगसाधना का सार श्रीकृष्ण ने उद्धव को बताया है कि मन को वश में करके कृष्ण में ही नित्ययुक्त होकर स्थित होना।

                                                                                                                                   क्रमशः ….........

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