भाग्य बड़ा या कर्म ? आप इन दोनों को कैसे देखते हैं ?
जो भी क्रिया हम आसक्ति पूर्वक करते हैं वह फल जनित करती है और कर्म कहलाती है। यह फल, जो अच्छा बुरा या मिश्रित होता है,भाग्य है। कर्म से भाग्य बनता है। अस्तु कर्म भाग्य का जनक होने से बड़ा है।
जो भी क्रिया हम आसक्ति पूर्वक करते हैं वह फल जनित करती है और कर्म कहलाती है। यह फल, जो अच्छा बुरा या मिश्रित होता है,भाग्य है। कर्म से भाग्य बनता है। अस्तु कर्म भाग्य का जनक होने से बड़ा है।
राम ने रमा के चांटा मारा, रमा ने पलट कर राम को डण्डे से मारा। राम के कर्म का फल डण्डे से पिटाई। चांटा न मारता तो डण्डा न पड़ता।
राय ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया, फलस्वरूप राय के पुत्र हुआ। मान लो इस जन्म में पुत्र न हुआ तो अगले में होगा। (गीता १८/१२)। यज्ञ से प्रारब्ध बना पुत्र प्राप्त करने का। सो पुत्र प्राप्ति फल है यज्ञ रूपी कर्म का जिसे भाग्य कह सकते हैं। बड़ा कौन? उत्तर आप के पास है!
गीता सिखाती है कि कर्म कैसे करें कि फल न बने।
कर्म बिना फलेच्छा, आसक्ति ममता स्पृहा के करें, दूसरों के हितार्थ करें,
या सब कर्म भगवान को अर्पण करें,
या यह ज्ञान रखें कि मैं कर्ता नहीं प्रकृति के गुण ही सब कर रहे हैं।
और कुछ न हो सके तो कृष्ण की शरण में चले जाओ।
क्या अजीब बात है हम आत्मा शरीरी, देही को कुछ करने के काबिल भगवान ने बनाया ही नहीं (५/१४) और हम अपने को भोक्ता समझ बंधन में डाल रहे हैं(१३/२२) और बिना मतलब चौरासी मे घूम रहे हैं।
हरे कृष्ण।
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