भागवत के भक्त भाग : 4





 भगवान अनंत हैं भगवान की कथा अनंत है और उनके भक्त भी  अनंत हैं. पशु-पक्षी,राक्षस  दानव  सभी भक्ति के अधिकारी रहे हैं. जटायु  गीध  थे, काग भुसुंडी जी  कौवा , हनुमान जी बंदर आदि . अब हम एक हाथी की कथा देखते हैं जिसने  भगवान को संकट में पुकारा और उसका भगवान ने संकट मोचन किया। क्षीर सागर में त्रिकूट नाम का एक सुंदर और श्रेष्ठ पर्वत था. इसकी तलहटी में  तराई में,  भगवान वरुण का एक सुंदर उद्यान था  जिसका नाम था ऋतुमान. यहीं  एक सरोवर था. वन में एक बहुत ही शक्तिशाली हाथी रहता था, वह हाथियों का सरदार था. एक दिन वह अपने झुंड के साथ सरोवर में स्नान करने और पानी पीने आया.हाथी ने जल में उथल-पुथल मचा दी जिससे जल में रहने वाले जीव इधर उधर भाग  गए बहुत परेशान हुए. वहां पर एक मगरमच्छ भी था . उसने हाथी का पैर पकड़ लिया। हाथी ने बहुत जोर लगाकर छुड़ाना चाहा परंतु पैर नहीं छूटा.फिर सारे झुण्ड  ने भी जोर लगाया , फिर भी मगरमच्छ ने हाथी का पैर नहीं छोड़ा.दोनों का युद्ध 1000 वर्षों तक चला. पानी में होने के कारण हाथियों का राजा थक गया. शरीर का बल कम होने के कारण घटने के कारण उत्साह भी जाता रहा और मानसिक रुप से  से हाथी असहाय हो गया. सब ओर से अपने आप को असहाय देखकर, हाथी ने भगवान को पुकारा. यह इसके पिछले जन्मों के अच्छे संस्कारों का फल था.पूर्व जन्म की भक्ति से याद थी मंत्र भी याद थे. स्तुति की: “मैं उन भगवान को प्रणाम करता हूं जो संसार के  एकमात्र स्वामी है और जिनसे इस संसार में चेतना का विस्तार होता है  यह सारा संसार उन्हीं में स्थित है उन्हीं की सत्ता से प्रतीत होता है, वही इस में व्याप्त है. स्वयं भी इस के रूप में प्रकट हो रहे हैं. ऐसा सब कुछ होते हुए भी वह प्रकृति से पर संसार के कारण है. और भगवान सब कारणों के भी कारण हैं और भगवान का कोई कारण नहीं है.’’ गजराज ने जब दूर से  भगवान को अपनी ओर आते हुए देखा अब उसने अपनी सूँड  में एक पुष्प लेकर उन्हें नमस्कार किया. भगवान आए,भक्तों को छुड़ाने की इतनी जल्दी में थे कि गरुड़ को भी छोड़कर कूद पड़े पानी मे. हाथी और मगरमच्छ दोनों को ही  खींच कर बाहर निकाल दिया.चक्र से मगरमच्छ जो ,पूर्व जन्म में गंधर्व लोक में  हूहू नामक राजा था और ऋषि देवल के शाप से इस गति को प्राप्त हुआ था ,को मार डाला.मगरमच्छ एक श्रेष्ठ  गंधर्व बन गया और अपने लोक  को चला गया और हाथी भगवान का पार्षद बन गया.  पूर्व जन्म में हाथी द्रविड़  देश का पांडव वंशी राजा था उसका नाम  था इंद्रदयुम्न  और वह अगस्त्य के शॉप  से हाथी  बन गया था. उनकी  सोच थी कि वह राजा है और उसे राज धर्म अपनाना चाहिए वन में तपस्वियोंकी  तरह एकांत में नहीं रहना चाहिए.और यह राजा राजकाज सब त्याग करके वन में गुफाओं में कंदराओं में में अकेला तपस्वियों की तरह रहता था .
भगवान की भक्ति का ऐसा प्रताप है कि यह कभी नष्ट नहीं होती.भगवान ने गीता में बताया है कि उनके भक्त का कभी नाश  नहीं होता. वह या तो सीधा ही जीवन मुक्तों के घर में जन्म लेता है, या पहले ऊंचे ऊंचे लोकों  में बहुत लंबे समय तक दिव्य लोकों  का भोग करता है और उसके पश्चात श्रीमानों  के घर में जन्म लेता है. पूर्व अभ्यास के अनुसार  भगवत भक्ति में लग जाता है….6.41-44. हाथी की योनि में भी राजा को भगवान की भक्ति याद रही, जिस वजह से ही वह भगवान को पुकार सका. इसी प्रकार जड़ भरत जी ने भी मृग  के रूप में जब जन्म लिया था तो उन्हें अपने पुराने जन्मों की बातें याद थी. अगले जन्म में इस जन्म के संस्कार साथ जाते हैं। … 18.12 काल .की मानसिकता बहुत ही महत्वपूर्ण होती है के अनुसार मनुष्य की अगले जंम  की गति होती है8.6. यदि अंत समय में भगवान को याद करते हुए शरीर त्याग जाता है तो भगवान की प्राप्ति होती है8.5, और इस  है हर भगवान रख श्री कृष्ण गीता में हमें समझाते हैं, और समय हम भगवान को याद भी रखें और अपना कर्तव्य करते जाएं यहां तक की युद्ध के समय भी भगवान को याद रखें...8.7.  हाथी ने  विशेष रुप से भगवान की स्तुति की, इसीलिए सर्वात्मा भगवान श्री हरि ही प्रकट हुए, क्योंकि वे जगत के एकमात्र आधार हैं और जिन्हें आर्त  होकर हाथी ने पुकारा था. पिछले जन्मों के अच्छे संस्कारों के कारण ही उसने एकमात्र भगवान को अपना सहारा माना, किसी देवी, देवता यक्षादि  को नहीं पुकारा।गजराज पूर्ण रूप से परम शक्ति के शरण में थे इसलिए उनकी अनन्यता को देखते ही श्री हरि चार भुजा वाले प्रकट हुए.
भगवान ने, उनके पार्षद बने गज को वरदान दिया कि जो कोई गजेंद्र द्वारा की गई उनकी स्तुति करेगा उसे निर्मल बुद्धि प्राप्त होगी-----..२१ 8/4/29
 गज चरित्र में कुछ विलक्षण बातें हैं . पहली ,हाथी ने विश्व की सर्वोच्च शक्ति को पुकारा,छोटे-मोटे देव आदि को नहीं  l श्री हरि ही पधारे --8/4/30 l दूसरी ,जीने की चाह नहीं थी ,वह अज्ञान से छूटना चाहता था जो भगवत-कृपा और तत्त्व -ज्ञान से ही मिटता है --8/3/25 .  लिहाजा वह आर्त होते हुए भी ज्ञानी था .तीसरा ,भक्ति  का क्षय नहीं होता ,पूर्व जन्म की भक्ति साथ आई,snktसंकट में पभु को पुकारना यद् रहा  . विशेष कृपा मिली . जो मुक्ति साधारणतः मानव शरीर में सम्भव है ,वह हाथी योनि में मिली .हरि  का स्वरूप पाया, चार भुजाधारी पार्षद  बना .  भरत को तो मृग योनि के बाद पुनः मनुष्य योनि मिली l  चौथा , शाप भी वरदान बना . 
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भगवान की भक्ति किसी भी भाव से की जाए फल अवश्य देती है.हाथियों के राजा भी उतरा और द्रौपदी की तरह आर्त  भक्त थे,  भक्त ध्रुव अर्थार्थी  थे, असुरों के राजा प्रह्लाद निष्काम भक्त थे, इन्हें और राजा अमरीष   को ज्ञानी भक्त भी कह सकते हैं.भक्त और भगवान का अजब रिश्ता है. कुछ ऐसे भी भक्त हुए हैं जो यह मानते हैं कि अजगर करे चाकरी पंछी करे काम ,कह गए दास मलूका सबके के दाता राम .ऐसी सोच रखना आसान नहीं है. इसके लिए प्रभु में पूर्ण विश्वास होना आवश्यक  है कि वह  मेरी सारी जरूरतें पूरी करेंगे. यह तो सत्य है कि  भक्त की सारी आवश्यकताएं भगवान को पूर्ण करनी पड़ती हैं, ऐसा उन्होंने स्वयं ने गीता में आश्वासन दिया है ..9.22 .कोई पुरुषार्थ नहीं करना और अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए  भगवान पर ही पूरी तरह निर्भर रहना अजगर प्रवृत्ति भी कहलाता है. दत्तात्रेय महाराज भी इसी प्रकार रहते थे, ऋषभदेव जी भी ऐसे ही भक्त/ अवतार थे. ईसाइयों के मसीहा ईसा  ने  अपने अनुयायियों को  उपदेश दिया है कि जीवन की आवश्यकता भगवान  अपने भक्तों की पूरी करते हैं,भक्तों को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए और प्रभु की भक्ति में मगन रहना चाहिए... मथयू 6.25-32. संकृति के पुत्र रंतिदेव भी ऐसे ही राजा है. यह उस भरत से संबंध रखते हैं जोकि दुष्यंत और शकुंतला का पुत्र था. इन भरत ने  बहुत से यज्ञ किए थे , और एक यज्ञ  के मष्णार में 1400000 हाथी दान किए थे. इसलिए इनके संबंध में कहा जाता है कि भरत ने जो महान कर्म किया वह तो पहले कोई राजा कर सका था और ना तो आगे ही कोई कर सकेगा। राजा रंतिदेव आकाश के समान थे, बिना परिश्रम रें जो कोई वस्तु प्राप्त हो जाती उसका उपयोग कर लेते थे. इस तरह धीरे-धीरे उनकी पूंजी घटती जाती थी. ऐसा करने से उन्हें कई कई दिन तक प्यासा और भूखा रहना पड़ता था, अपने परिवार के साथ ही. एक बार ऐसा हुआ कि 48 दिन बीत गए और पानी तक पीने को नहीं मिला. 49 वें  दिन उन्हें कुछ खीर, घी , हलवा और जल मिला. रंतिदेव और उनका परिवार भूखा था. यह लोग भोजन करना चाहते थे कि  इतने में ही एक ब्र्हामण  गया. खुद भोजन ना करके परीवार को कुछ ना देकर ,इन्होंने ब्राह्मण को भोजन कराया. बचे कुचे शेष भोजन को यह  लोग खाने वाले  ही थे कि एक शूद्र गया. रंतिदेव ने इंहें भी भोजन कराया. फिर कुत्तों को  लिए एक अतिथि आया, उसे भी इन्होंने भोजन करा दिया. अब राजा रंतिदेव के पास केवल जल ही बचा था. वह भी केवल एक मनुष्य के लायक ही. एक चाण्डाल आया और  उसने जल मांगा. राजा ने इसे अपना सौभाग्य माना. यह सब प्राणियों में भगवान का ही दर्शन करते थे.ऐसे भक्त बहुत कम होते हैं दुर्लभ होते हैं. यह कृष्ण स्वयं ने गीता में कहा है..7.19. यदपि जल के बिना राजा और उनका परिवार मर रहा था, परंतु इन्होंने यह बच्चा हुआ जल् इस चाण्डाल  को दे दिया. वास्तव में यह भगवान की माया थी. भगवान स्वयं ही विभिन्न रूपों में आए थे. ब्रह्मा विष्णु और महेश तीनों ही राजा के समक्ष प्रकट हो गए. राजा ने उनसे कुछ भी नहीं मांगा.राजा की आसक्ति और स्पृहा  पूर्ण रूप से अब मिट चुकी थी. उन्होंने अपने आप को अपने मन को पूर्णरूपेण  भगवान वासुदेव में तन्मय  कर लिया, कुछ नहीं मांगा। इन्हें  भगवान के अलावा किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं थी. मन भगवान में लगने से माया नष्ट हो गई जैसे कि जागने पर स्वप्न के दृश्य नष्ट हो जाते हैं.माया को पार करना बड़ा मुश्किल है. भगवान की शरण में जाने से ही इसे  पार किया जा सकता है क्योंकि यह माया उनकी है और इसमें भगवान जितनी ही शक्ति है . राजा की राह का जो लोग अनुसरण करते थे वह भी राजा की भक्ति के प्रभाव से योगी हो गए और सब के साथ भगवान के परम आश्रित भक्त बन गए… 9.21.2-18.राजा की तरह ही राजा के भक्त ,जोकि राजा के परिवार के सदस्य राजकर्मचारी, और प्रजाजन थे,भी अपना मानना भगवान में ही रखते थे वह सर्वत्र भगवान को देखते थे, इसलिए उन्हें भी भगवान की प्राप्ति हुई राजा की तरह ही…. गीता18.65. ऐसे तो भक्त  प्रहलाद ने  भी भगवान से कुछ नहीं मांगा था. परंतु फिर भी भगवान के बहुत आग्रह करने पर अपने पिता के पाप माफ करने को कहा था.  रंतिदेव  ने तो कुछ भी नहीं मांगा.लिहाजा निष्कामता में रंतिदेव प्रहलाद से भी आगे प्रतीत होते हैं .
नारदजी ने भक्ति सूत्र में बताया है: “ नास्ति तेषु जाति, विद्या,रूप ,कुल,धन,क्रियादि भेदाःl ’’ भगवान भक्त की भावना देखते हैं ,जाति रूप,कुलादि नहीं l   
भगवान के भक्त अनेक हैं. सबकी चर्चा करना संभव नहीं है. भगवान के अन्य मुख्य भक्त हुए हैं कुंती, जिसने कहा कि भगवान हमें दुख दीजिए ताकि हम आपको हरदम याद रखें;उत्तरा, जिसके गर्भ में राजा परीक्षित की रक्षा की और राजा परीक्षित स्वयं, जिन्हें पूर्णतः  मालूम था कि तक्षक के डसने  से 7 दिन में उनकी मृत्यु हो जाएगी ,परंतु मृत्यु से बचने का उपाय नहीं कर के भक्ति का उपाय अपनाया.  इस प्रकार  हमें भी परीक्षित की तरह भागवत सुनने को मिल गई.

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