भागवत : सत् संधान- 4

Bhagwat Sat Sandhan-4


बहुत से आचार्यों का मत है की भक्ति में गुरु की विशेष आवश्यकता नहीं है। श्रीकृष्ण ने ज्ञान के लिए और प्राणायाम के लिए क्रमशः गीता और भागवत में गुरु की परम आवश्यकता बताई है। भक्ति के संदर्भ में ऐसा नहीं कहा है परंतु जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज का मत है कि गुरु की आवश्यकता है भक्ति में भी उनका विचार है कि जैसे किसी भौतिक विद्या के लिए गुरु की आवश्यकता है ऐसे ही भक्ति में भी है। गुरु जिस कक्षा का होता है शिष्य  भी वहाँ तक ही पहुँच सकता है। दास्य भाव का गुरू इसी भाव  की शिक्षा दे सकता है। माधुर्य भाव का गुरु माधुर्य भाव की शिक्षा दे सकता है। भक्ति में गुरु मार्गदर्शक का काम करता है। वह इस पथ पर चला हुआ है तो हमें भी मार्गदर्शन दे सकता है, चलने में सुगमता रहती है। प्रगति तीव्र गति से होती है। गुरु अंतःकरण की सफाई करता है। इसलिए उसे भगवान से भी ज्यादा महत्वपूर्ण बताया गया है। भागवत में चौथे योगेश्वर प्रबुद्ध जी [भगवान ऋषभदेव के सौ पुत्रों में से नौ पुत्र योगेश्वर बने थे] राजा निमि को बताते हैं कि भक्ति के लिए गुरु की शरण आवश्यक है। गुरु ऐसा होना चाहिए जो वेदों का ज्ञान भी रखता है और जिसने भगवान का अनुभव भी किया हो अर्थात भगवान से जुड़ा हुआ हो और संसार के प्रपंचों से दूर हो, शांत हो। शिष्य गुरु को अपना इष्ट देव और आत्मा समझे यानी भगवान के बराबर गुरु को माने—11.3.17-22। यही बात बहुत से उपनिषदों में भी मिलती है---श्वेताश्वतर उप-6.23। अस्तु गुरु की आवश्यकता है, भक्ति में  भी।    
भागवत में भक्ति को सुंदर नवयुवती बताया गया है, ज्ञान और वैराग्य इसके पुत्र हैं तथा मुक्ति दासी है। सत्य, त्रेता और द्वापर युगों में ज्ञान और वैराग्य मुक्ति के साधन थे; कलयुग में केवल भक्ति ही है। प्रभु प्राप्ति के लिए एक मात्र साधन भक्ति में अनुराग हजारों जन्मों के पुण्य से होता है और भगवान भक्ति से ही वश में होते हैं। सनकादिक कुमारो ने भक्ति को, उसके [भक्ति] द्वारा पूछने पर, विष्णु भक्तों के हृदय में रहने के आदेश दिए। जहाँ भक्ति रहती है भगवान भी रहते हैं क्योंकि भगवान भक्ति की डोरी से बँधे हुए हैं। कपिल भगवान ने अपनी माँ देवहूती को भक्ति के बारे में बताया कि यह हरि प्राप्ति का मंगलमय मार्ग है। संसार की आसक्ति से बंधन, संतो के प्रति आसक्ति मोक्ष का खुला द्वार है। भक्ति से, जिसमें संसार के प्रति वैराग्य हो, मनुष्य अंतर्यामी भगवान को इस जन्म में ही प्राप्त कर लेता है। भक्त सत्य आदि लोकों के भोग, अणिमा आदि सिद्धियां, मोक्ष और वैकुंठ का ऐश्वर्य भी नहीं चाहता। भक्ति, कपिल भगवान अपनी माता को बतलाते हैं, कर्म -संस्कारों को ऐसे भस्म कर देती है जैसे जठराग्नि भोजन को पचाती है। भक्त मोक्ष तक को ठुकरा देता है। कल्याण प्राप्ति इसमें है कि मनुष्य भक्तियोग के द्वारा भगवान में चित्त लगाकर भगवान में स्थिर हो जाए। स्वभाव और गुणों के भेद के कारण भक्तों के भाव में भिन्नता होती है। हृदय में हिंसा और दम्भ रखने वाले भक्त, तामस भक्त हैं; विषय, यश और ऐश्वर्य की कामना रखने वाला राजस भक्त है; पूजा को अपना कर्त्तव्य समझनेवाला और परमात्मा को अर्पण करने के लिए पूजा करने वाला सात्विक भक्त है; निष्काम और अनन्य भाव से भक्ति करने वाला भगवान कपिल की दृष्टि में निर्गुण भक्त है। निर्गुण भक्त पाँचों प्रकार की मुक्तियों को भक्ति के आगे कुछ नहीं समझता। भक्त भक्तियोग से तीनों गुणों को लाँघकर भगवान के भाव को प्राप्त हो जाता है ---3.29.7-14। कपिल भगवान ने केवल प्रतिमा में ही भगवान की पूजा करने वाले के पूजन को स्वांग मात्र बताया है। भगवान सब प्राणियों में है इसलिए जो सब भूत स्थित परमात्मा का अनादर करते हैं केवल मूर्ति में  भगवान को मानकर और पूजा करके, वह केवल स्वाँग रचते हैं। दूसरे जीवों का निरादर करने वाले से भी भगवान खुश नहीं होते। भगवान कपिल का कहना है कि जो लोग अपने संपूर्ण कर्म उनके फल तथा अपने शरीर को भी भगवान को अर्पण करके भेदभाव रहित होकर भगवान की उपासना करते हैं वे श्रेष्ठ हैं। अकर्ता और समदर्शी से बढ़कर भगवान कपिल अन्य किसी को नहीं मानते। कपिल भगवान और कृष्ण भगवान दोनों ही ने समता का बड़ा महत्व बताया है। कपिल भगवान सभी जीवों से प्रेम का पाठ अपनी माता को पढ़ाते हैं। अन्य जीवों से बैर रखने वाला वास्तव में उनके शरीर में रहने वाले भगवान से ही बैर रखता है। आत्मा और परमात्मा में भेद रखने वाला आवागमन से नहीं छूटता। हर प्राणी में भगवान को मानकर पूजन करना चाहिए जब तक हर प्राणी में परमात्मा का भाव नहीं आ जाए तब तक मूर्ति पूजन किया जा सकता है--3.29.21- 27 । अंत में भगवान ने अपनी माँ को स्पष्ट बताया कि निर्गुण ब्रह्म विषयक ज्ञानयोग और स्वयं उनके [कपिल भगवान] प्रति किया हुआ भक्तियोग का फल एक ही होता है और शास्त्र के विभिन्न मार्गों द्वारा एक ही परमात्मा की अलग-अलग तरह से अनुभूति होती है। इस प्रकार भक्ति निराकार निर्गुण ब्रह्म की व सगुण साकार ब्रह्म की, दोनों की होती है। पहले बताया जा चुका है कि श्री कृष्ण के अनुसार शरीरधारियों के लिए सगुण ब्रह्म की  भक्ति करना सरल है।
राजा पृथु को सनंत कुमारजी ने भक्ति के संबंध में कहा कि भक्ति से संसार से वैराग्य हो जाता है और आत्म- स्वरूप निर्गुण परब्रह्म से मनुष्य की प्रीति हो जाती है फिर वह गुरु की शरण लेकर गुरु द्वारा बताए गए मार्ग से साधना करता है और लिंग शरीर को इस तरह जला देता है जैसे कि आग लकड़ी को इस प्रकार मनुष्य सब गुणों से मुक्त हो जाता है। यह सनकादिक कुमारगण राजा पृथु को भगवान वासुदेव की भक्ति का उपदेश देते हैं और भगवान के चरणों को नौका बनाकर भवसागर पार करने की सलाह देते हैं---- चौथा स्कंध 22 वां अध्याय।    
बालक ध्रुव को नारद जी ने मानस पूजा की शिक्षा दी- “ध्यान प्रभु का किया जाए। ऐसी भावना की जाए कि वह अनुराग भरी दृष्टि से मुझे निहार रहे हैं और मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं।’’ शिलादि मूर्ति में, पृथ्वी में, जला आदि में भी भगवान की पूजा का रहस्य नारदजी द्वारा बताया गया। जब अपने हृदय में रहने वाले भगवान का मन वाणी और शरीर से भक्तिपूर्वक भक्त द्वारा पूजन किया जाता है तब भगवान अपने भक्तों के भाव को बढ़ा देते हैं और भक्त की इच्छा के अनुसार धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्ष रूप कल्याण देते हैं। मानस पूजा करने वालों के अंतःकरण में भगवान विराजते हैं। क्रिया योगपर चर्चा करते समय श्रीकृष्ण ने   उद्धवजी को बताया अपनी भावना से भगवान की पूजा करनी चाहिए अपने हृदय में...11.27.15। और नारद जी ने द्वादश अक्षर मंत्र से भी भगवान की पूजा समझाई। नारद जी ने अधिक जोर भगवान के ध्यान को दिया। साकार के ध्यान में मन डूबकर तल्लीन हो जाता है। इससे भगवत प्राप्ति शीघ्र होती है। नारद जी के निर्देशानुसार ध्रुव ने साधना की। ध्रुव ने अनन्य बुद्धि से हरी का ध्यान किया जिससे ध्रुव की समष्टि प्राण से अभिन्नता हो गई। ध्रुव के प्राण रोकने के कारण सभी जीवो का साँस का आना-जाना रुक गया। घबराकर देवता श्री भगवान के पास गए। उन्होंने समझाया कि ध्रुव ने अपने चित्त को मुझ में, जो कि विश्व की आत्मा है, में लीन कर दिया है, उसमें और मेरे में अभिन्नता हो गई है जिससे तुम सब का प्राण भी रुक गया है -----4..8.76-82। इस प्रकार भक्ति से अभिन्नता आती है, भक्त और भगवान एक हो जाते हैं।  
भगवान ऋषभदेव का उपदेश: “मेरे प्रति भक्ति भाव से, मेरे परायण होने से, मेरे लिए कर्म करने से, मेरी कथाओं का नित्य-प्रति श्रवण करने से मेरे भक्तों के संग करने से, मेरे गुणों का कीर्तन करने से----- अहंकार रूप लिंग शरीर को लीन कर दो’’-----5. 5.10-13। उन्होंने यह भी बताया है कि सब में भगवान समझ कर सब की सेवा करें, वही भगवान की पूजा [भक्ति] है -----5.5.26। भगवतप्राप्ति के संबंध में जड़ भरत जी ने राजा रहूगण को जतलाया: “पूर्व जन्म में मैं भरत नाम का राजा था….. मृग में आसक्ति हो जाने के कारण अगले जन्म में मृग बनना पड़ा…’’ उन्होंने बताया है कि आसक्ति को छोड़ा जाए और मोह के बंधनों को काट दिया जाए फिर श्री हरि की लीलाओं के कथन और श्रवण से भगवत स्मृति बनी रहने के कारण जीव आसानी से भवसागर को पार करके भगवान को प्राप्त कर सकता है------5.12 .14-16।  
भक्तिसंबंधी भक्त प्रहलाद के उद्गार हैं कि मनुष्य शरीर में भगवत प्राप्ति संभव है।भगवान को प्रसन्न करने में ज्यादा श्रम नहीं लगता। मोक्ष को भगवान नाम कीर्तन से भक्तों ने तुच्छ माना है। कर्मकांड, तर्कशास्त्र, दंडनीति आदि सभी कोई अर्थ नहीं रखते यदि भगवान की ओर नहीं ले जा सकते। जिस उपाय से भगवान में स्वभाविक निष्काम प्रेम हो जाए वहीं साधन सर्वश्रेष्ठ है। भगवान की भावना करने से भक्त भी भगवानमय हो जाता है। भगवान निष्काम प्रेमाभक्ति से ही खुश होते हैं। भगवान की अनन्य भक्ति प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का एक मात्र परमार्थ है। यदि कोई ब्राह्मण बारह गुणों से संपन्न है परंतु भक्तिविहीन है तो उससे वह चाण्डाल उत्तम है जो मन, कर्म, वचन, धन और प्राण से भगवान के चरणों की भक्ति करता है। भक्त जो जो सम्मान भगवान को देता है वह उसे स्वयं को ही प्राप्त होता है, जैसे सुंदर मुख शीशे में दिखने वाले प्रतिबिम्ब को भी सुंदर बना देता है.. . 7.9.11। वरदान माँगना प्रेमभक्ति का अपमान है, विघ्न है। प्रह्लाद जी ने भक्ति के सात अंग बताए हैं--- नमस्कार, स्तुति, समस्त कर्मों का भगवान को समर्पण, सेवा पूजा, चरण कमलों का चिंतन और लीला का श्रवण।
 
गजेंद्र ने भगवान की शरणागति के संबंध में कहा है: “जो भयभीत होकर भगवान की शरण में जाते हैं उसे भगवान अवश्य बचाते हैं, अर्थात भक्त की पुकार सुनते हैं” [गजेंद्र में निर्विशेष रूप से भगवान की स्तुति की थी, मगर द्वारा पकडे जाने पर। इसलिए, भिन्न-भिन्न नाम और रूप को अपना स्वरूप मानने वाले ब्रह्मादि देवता उसकी रक्षा के लिए नहीं आए। स्वयं भगवान को सर्वात्मा होने के कारण आना पड़ा, प्रकट होना पड़ा] ।

भक्तों की रक्षा भगवान करते हैं यह अमरीश चरित्र से साबित होती। राजा अमरीश ने एक बार द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत किया। घड़ी समाप्त हो रही थी परायण की। इसलिए दुर्वासा ऋषि, जो अभी तक लौट कर नहीं आए थे और  जिन्हें पहले भोजन कराने का राजा का संकल्प था, के आए बिना आचार्यों की राय पर राजा ने पानी ग्रहण कर लिया जिससे व्रत की मर्यादा भी रह जाए और  ऋषि दुर्वासा को खिलाए बिना भोजन ना करने की प्रतिज्ञा भी बनी रहे। जब दुर्वासा आए और उन्हें इस बात का पता चला तो वह क्रोधित हो गए और राजा अमरीश को समाप्त करने के लिए कृतिका का आह्वान किया। सुदर्शन चक्र ने, जो हरि के आदेश से राजा की रक्षा के लिए नियुक्त था, कृतिका को मार डाला और दुर्वासा के पीछे पड़ गया। दुर्वासा जान बचाकर त्रिलोकी में भागते फिरे, परंतु रक्षा देने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ। अंत में भगवान द्वारा कहने पर दुर्वासा भक्त अमरीश की शरण में जाना पड़ा तब वह बच पाए। इस प्रसंग से पता चलता है कि जो भक्त भगवान की शरण में होते हैं उनका ब्रह्मशाप तक कुछ नहीं बिगाड़ सकता। अपने भक्त की भगवान हरदम रक्षा करते हैं। भगवान ने कहा है कि वह भक्त के अधीन है बिल्कुल भी स्वतंत्र नहीं है। जो भक्त संसार और संसार के सारे नातों को छोड़कर अनन्य रूप से उन की शरण में आते है उन्हें भगवान त्याग नहीं सकते और भगवान भक्त के प्रति किया गया अपराध क्षमा भी नहीं कर सकते।भक्त से ही माफी माँगनी पड़ती है। यह है भक्ति का महत्व!  
ऊपर हम देख चुके हैं कि भक्ति में अनन्यता, निष्कामता और निरन्तरता परम आवश्यक है।मन और बुद्धि यहाँ तक कि अपने सर्वस्व को भगवान में लगाना है। इसके लिए संसार से विरक्ति और भगवान में आसक्ति होना पहली शर्त है। इस हेतु भगवान ने सत्संग और भगवान के नाम के कीर्तन को महत्व दिया है। भगवान ने कहा है कि संत पुरुष भगवान को अपना आश्रय मानते हैं और भगवान सदा संत पुरुषों के पास रहते हैं----11.12.48 प्रभु का कहना है कि वे सत्संग से भक्त के वश में हो जाते हैं। सत्संग के प्रभाव से दैत्य, राक्षस, पशु-पक्षी, गंधर्व-अप्सरा, नाग-सिद्ध, विद्याधर, स्त्री, शूद्र आदि सबने ही भगवान को प्राप्त किया है। प्रेमपूर्ण भाव से भगवान की प्राप्ति आसानी से हो जाती है। इन सब से भी ऊपर भगवान ने शरणागति को बताया है। शरणागति के संबंध में प्रभु बताते हैं, उधव को कि सब कुछ-- श्रुति स्मृति, विधि-निषेध, प्रकृति प्रकृति---  छोड़कर केवल उनकी भावना समस्त प्राणियों में करके उनकी ही शरण समस्त रूप से ग्रहण करें, ऐसा करने से, भगवान उद्धवजी को समझाते हैं कि, वह सर्वत्र निर्भय हो जाएँगे-----11.12.14,15। शरणागति के संबंध में ऐसी ही बात अर्जुन को श्री कृष्ण ने गीता में समझाई है--18.66। शरणागति में भगवान हर हाल में मेरी रक्षा करेंगे, ऐसा विश्वास होता है; भगवान भक्त के एक मात्र आश्रय हैं, ऐसा भक्तों को मन से स्वीकार करना होता है; भगवत प्राप्ति के लिए केवल भगवत कृपा ही एकमात्र साधन है ऐसा भाव भक्त में होना आवश्यक है; अपनी रक्षा का भार भक्त भगवान के चरणों में समर्पित कर देता है; भक्त संकल्प लेता है कि वह किसी भी प्राणी के प्रतिकूल नहीं चलेगा, वह समस्त प्राणियों के अनुकूल चलने का भी संकल्प लेता है। शरणागति के उपरोक्त छह अंग स्वामी अनिरुद्ध आचार्य वेंकटाचार्य ने माने हैं जो कि ख्याति-प्राप्त तत्वचिंतक हुए हैं। उद्धव का संदेह दूर करते हुए शरणागति के संबंध में आगे भगवान बताते हैं कि जगत में जो भिन्नता दिख रही है वह माया के कारण है, वास्तव में केवल भगवान ही है। उनके सिवाय कुछ नहीं है। वे उद्धव से कहते हैं कि ऊद्धव अपना जीव-भाव काट दें और अपने स्वरुप में स्थित हो जाएँ  ---11.12.17-24 । फिर आगे भगवान समझाते हैं कि उन्हें प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन उनसे प्रेम करना और उनकी भक्ति है। योग-साधन, ज्ञान-विज्ञान, धर्म-अनुष्ठान, जप-पाठ और तप-त्याग से वह इतनी आसानी से प्राप्त नहीं होते जितने की भक्ति से। जो भगवान का स्मरण करता है भगवान उसके दिल में बैठ जाते हैं और उसका चित्त भगवान में तल्लीन हो जाता है---11.14.12 -27। सारांश है कि वर्णाश्रम धर्म, ध्यान योग, यज्ञ आदि भी भगवान को प्राप्त करने के साधन है क्योंकि भगवान द्वारा ही बताए गए हैं, परंतु भगवान की शरणागति के आगे यह सब नगण्य है। वास्तव में तो यह सब भगवत्प्राप्ति के लिए ही विभिन्न मार्ग है। जब खुद भगवान की शरण में जीव हो जाए तब इन सब साधनों की आवश्यकता नहीं। ना हीं जीव को डरने की आवश्यकता है। भगवान स्वयं उसके लिए धर्म-कर्म सब कुछ बन जाते हैं अर्थात भगवान ही उसे बताते हैं कि उसे क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए। हम देख चुके हैं कि अर्जुन को उन्होंने करण को ऐसे समय मारने की सलाह दी जबकि वह अपने रथ से नीचे उतरा हुआ था और निहत्था था। इसे साधारणतः धर्म अनुकूल नहीं कहा जा सकता। परंतु आततायी को मारने में कोई अधर्म नहीं होता। यह देखते हुए अर्जुन का निहत्थे करण को कृष्ण की राय अनुसार मारना धर्म अनुकूल था। यदि अर्जुन धर्म की शरण में रहता तो ऐसा नहीं कर सकता था। निष्कर्ष निकलता है कि कृष्ण की शरण में रहना ज्यादा उचित है ज्यादा धर्म संगत है, केवल धर्ममार्ग पर ही चलने की अपेक्षा।

क्रमशः भागवत : सत् संधान- 5

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