lok-parlok : ab sada yahan
raho
कोई मर गया, मरने पर क्या? शरीर
तो यही है। कोई हलचल नहीं है। यह सोच आई कि शरीर में से कुछ निकल गया, इसलिए
मृत्यु हुई। यह जो निकला उसे बुद्धि और इंद्रियों से जाना नहीं जा सकता था फिर भगवान
का शब्द आया, वेद, बाइबिल, गीता, कुरान आदि के रूप में। इन्होने यह समझाया कि वह
निकलने वाली चीज नित्य है। यमराज नचिकेता को समझाते हुए बताते हैं कि आत्मा ना
जन्मती है ना ही मरती है-...... शरीर के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती है--- कठ उपनिषद्१/२/
१८। नित्य है तो कहीं रहती भी होगी, शरीर को त्यागने के पश्चात। वह रहने की जगह
दूर किसी स्थान पर है, तब तो यह चीज कहीं पर जाती भी होगी। अगर कहीं जाती होगी तो कहीं
से आती भी होगी। बस इसी से पुनर्जन्म और परलोक का सिद्धांत पैदा हुआ। श्रीकृष्ण ने
आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने को पुराने कपड़े त्यागकर नए कपड़े पहनना
बताया ---श्रीमद्भागवत गीता२/२२। हमारा यह शरीर, क्षेत्रज्ञ का छोटा-सा हिस्सा
है, जो 24 तत्वों से बना हुआ है। पाँच महाभूत: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, पाँच
ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच इंद्रियों के विषय और प्रकृति, मन, बुद्धि
व अहंकार--श्रीमद् भगवतगीता१३/५ । मृत्यु के समय स्थूल शरीर यहाँ रह जाता
है। बाकी सब मन बुद्धि इंद्रियाँ आदि इसमें से निकल जाते हैं। विवेक चूड़ामणि 98 के
अनुसार यह स्थूल शरीर चमड़े माँस, रक्त, नसें, चर्बी, मज्जा और हड्डियों का समूह है,
इसमें मल-मूत्र भी भरा हुआ रहता है। यह शरीर भोगायतन है, भोग का घर है।
इसकी अवस्था को जागृत अवस्था कहा गया है। अभिमानी जीव को विश्वपुरुष कहा गया है और
सूक्ष्म शरीर पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच प्राण, मन, बुद्धि, चित्त,
अहंकार, अविद्या, काम और कर्म का बना हुआ होता है। इसे लिंग शरीर भी कहते हैं। यह वासना
से युक्त होने के कारण कर्म फलों का अनुभव कराने वाला है। इसकी अवस्था स्वप्न
अवस्था होती है। इसके अभिमानी जीव को तेजस पुरुष कहते हैं। वेदांती स्थूल शरीर
को अन्नमय कोष कहते हैं, सूक्ष्म शरीर को प्राणमय और एक तीसरा शरीर बताते
हैं जिसके कारण शरीर और आनंदमय कोष कहते हैं । सूक्ष्म शरीर का स्थूल शरीर से बाहर
निकल जाना मृत्यु कहलाती है और स्थूल शरीर से युक्त हो जाना जन्म कहलाता है।
जीव को एक स्थान से दूसरे स्थान पर अर्थात अन्य लोकों में जाने के लिए अतिवाहिक
शरीर दिया जाता है । यह शरीर बिना पृथ्वी और जल तत्व का होता है। इसमें अग्नि वायु
और आकाश तत्व होते हैं। कोई कोई विद्वान इस शरीर को केवल आकाश तत्व से बना हुआ मानते
हैं। शरीर से बाहर निकलने वाले तत्वों के साथ ही आत्मा, जो की वास्तविक हम हैं, भी
निकलती है।देव ऋषि नारद राजा प्राचीनबर्हि को समझाते हुए बताते हैं कि त्रिगुणमय
संघात ही लिंग शरीर है। यही चेतना से युक्त होकर जीव कहा जाता है। इस लिंग
शरीर में पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच प्राण और
एक मन, ऐसे 16 तत्व नारद जी ने बताए हैं- श्रीमद् भागवत४/२९/७४। कोई कोई अहंकार,
बुद्धि और चित्त को भी जोड़ते हैं। सूक्ष्म शरीर के साथ सारे कर्म और संस्कार, जो उसी
का हिस्सा हैं, भी जाते हैं। इसके द्वारा पुरुष भिन्न-भिन्न देहों को ग्रहण करता
है और त्यागता है तथा इसी से उसको हर्ष, शोक, भय, दुख और सुख आदि का अनुभव होता है।
मृत्यु के तुरंत बाद दूसरा शरीर नहीं मिलता, नया शरीर मिलने में थोड़ा समय लगता है।
इसलिए जब तक दूसरी योनि नहीं मिलती तब तक अतिवाहिक शरीर में रहता है। इसे उदाहरण से
समझें। मान लें गंगदत्त का निधन हो गया। इसका अभिप्राय है कि उसके स्थूल शरीर से लिंग
शरीर निकल गया। यह लिंग शरीर कहीं आ जा नहीं सकता। मान लो गंगदत्त को स्वर्ग मिलना
है। तो उसे अतिवाहिक शरीर मिलेगा जिससे वह स्वर्ग जाएगा। वहाँ पर उसे स्वर्ग
के भोग भोगने के लिए शरीर मिलेगा जिसमें वह, अतिवाहिक शरीर को छोड़कर, लिंग शरीर
के साथ प्रवेश करेगा और स्वर्ग के भोग भोगेगा। मान लो उसे नर्क भुगतवाना है तो
पहले वह अतिवाहिक शरीर से नर्क में जाएगा, वहाँ उसका लिंग शरीर अतिवाहिक शरीर
त्याग कर, नर्क के यातना शरीर में प्रवेश करेगा और नरक की यातना भोगेगा। यही अन्य लोकों
के लिए मानें। यह मन प्रधान लिंग शरीर ही जीव के जन्म आदि का कारण है।
![]() |
गो लोक में कृष्ण और राधा |
पापियों
की चर्चा
ऐसे लोग, कूकर, शूकर, कीट-पतंग
पेड़-लता आदि हीन योनियों में जन्म लेते हैं, बार-बार और जन्म-मरण के चक्कर में
फंसे रहते हैं या ऐसे लोग नरकों में जाते हैं। इन्हें वहाँ पर यातना शरीर दिया
जाता है, जिसमें यह बहुत लंबे काल तक यातना भोगते हैं। पाप समाप्त होने पर यह भी दोबारा
जन्म लेते हैं धरती पर। यह जीव जिस भी लोक में जाता है इसको उसी लोक के हिसाब से शरीर
दिया जाता है। जैसे स्वर्ग आदि लोकों में देवताओं का तेजोमय शरीर,
भगवत धाम गोलोक वैकुंठ आदि में दिव्य शरीर।
जो
सकाम कर्म करने वाले पितृयान से जाते हैं उनका क्या होता है ? यह धूम अभिमानी देवता को प्राप्त
होते हैं, उनसे रात्रि देवता को प्राप्त होते हैं, इससे कृष्ण-पक्ष अभिमानी देवता
को प्राप्त होते हैं, फिर दक्षिणयन के छह महीनों से पितृलोक पहुँचते हैं
, वहाँ से आकाश को और फिर चंद्रमा को प्राप्त हो जाते हैं। यह चंद्रमा राजा सोम
है, देवताओं का अन्न है। वहाँ पर यह लोग रहते हैं, दिव्य भोग भोगते हैं
और कर्म क्षीण होने पर वैसे ही लौटते हैं जैसे गए थे। यह आकाश को प्राप्त होते हैं।
फिर वायु को। वायु होकर धूम बनते हैं, धूम होकर अभ्र। अभ्र होकर
मेघ। मेघ जब बरसता है तब यह लोग इस लोक में धान, जौ, औषधि, वनस्पति, तिल,
उड़द आदि होकर उत्पन्न होते हैं। उनको अन्य प्राणी भक्षण करते हैं। इससे वीर्य
बनता है। वीर्य सींचन से गर्भ में जाते हैं और जन्म लेते हैं, उस योनि में जिसके नर
ने मादा में वीर्य का सींचन किया है। यह निष्क्रमण अत्यंत कठिन है-- छांदोग्य उपनिषद५/१०/३-
६ । बहुत से योगी कहते हैं कि जीव शरीर में ब्रह्मन्ध्रा से प्रवेश करता
है, वीर्य द्वारा नहीं। अपने समर्थन में ऐतरेय उपनिषद का हवाला देते हैं--१/३/१२।
यह मानने योग्य नहीं क्योंकि, इस सूत्र में जीव की प्रविष्टि नहीं वरन परमात्मा की
प्रविष्टि दर्शाई गई है और भागवत में कपिल भगवान ने भी पुरुष के वीर्य से जीव का माता
के गर्भ में प्रवेश करना बताया है ----३ /३१/१। इसलिए सकाम कर्मों को निंदनीय
बताया है, तथा स्वर्ग की कामना को मूर्खता।
मनुष्य को भगवान ने कर्त्ता नहीं
बनाया है। सारे कर्म सभी प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं। प्रकृति
के गुणों से संबंध जोड़कर मनुष्य अपने आप को कर्त्ता मान बैठता है। यही जीव के बंधन
का कारण है---श्रीमद्भगवद्गीता३ /२७ ,श्रीमद्भागवत३/२७/१ -४। यह कर्म बंधन ही
आवागमन का व एक लोक से दूसरे लोक में जाने का कारण है।
ऊपर जो हमने चर्चा की है, उसके
अनुसार इस धरती के अलावा भी बहुत से लोक हैं। श्री मद्भागवत के अनुसार
अतल-लोक में मय दानव का पुत्र बल रहता है। वहाँ तरह-तरह की माया है। वहाँ
पर स्वैरिणी(अपने वर्ण के पुरुष के साथ रमण करने वाली), कामिनी और पुंशचली नाम
की तीन प्रकार की स्त्रियाँ होती हैं जो हाटक नाम का एक पेय पिलाकर पुरुषों को
संभोग करने में समर्थ बना लेती हैं। वह अपने आप को हज़ार हाथियों के समान बलवान समझ
बैठता है और “मैं ईश्वर हूँ, मैं सिद्ध हूँ” इस प्रकार बातें करने लगता है। इसके नीचे
वितल लोक है। महादेवजी अपने पार्षदगणों के साथ रहते हैं। वितल लोक के नीचे सुतल
लोक है जहाँ पर विरोचन पुत्र बली रहते हैं। यहाँ बहुत वैभव व ऐश्वर्य है। स्वयं भगवान
कहते हैं “वहाँ रहने वाले लोग मेरी कृपा दृष्टि का अनुभव करते हैं, इसलिए उन्हें शारीरिक
व मानसिक रोग, थकावट, बाहरी और भीतरी शत्रुओं से डर और किसी प्रकार के विघ्नों का सामना
नहीं करना पड़ता।’’ तलातल लोक इसके नीचे हैं। इस लोक में मय दानव रहता है और वह शंकरजी
द्वारा सुरक्षित है। इसलिए उसे सुदर्शन चक्र से भी कोई भय नहीं है। महातल उसके नीचे
है जहाँ पर तक्षक , कालिया आदि सर्प रहते हैं। पणि नाम के दैत्य और दानव
रसातल में रहते हैं जो बहुत साहसी और बलवान हैं, परंतु इंद्र से भय
खाते हैं। उसके नीचे पाताल है जहाँ वासुकि आदि बड़े-बड़े नाग रहते हैं।
किसी के दस सिर हैं, किसी के सौ और किसी के सहस्त्र, उनके सिरों पर मणियाँ होती हैं
जो अंधकार को दूर करती हैं। पाताल के भी नीचे 30 हजार योजन की दूरी पर भगवान की तामसी
नि त्य कला है जिसे अनंत कहते हैं। यह दृश्य और दृष्टा को खींचकर एक कर देती
है, इसलिए नाम संकर्षण है। इन भगवान के हज़ार मस्तक हैं। श्रीमद्भागवत में इनका वर्णन
किया गया है-- स्कन्द पाँचवें अध्याय २३ से २६ ।
धरती के ऊपर भुवरलोक, स्वर् लोक,
महर लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोक होते हैं। वरुण और कुबेर के भी अलग-अलग स्वतंत्र
लोक/सभा हैं। यह सब धरती से ऊँचे लोक हैं। सदाशिवसंहिता के अनुसार महरलोक एक करोड़
योजन परिमाण का है, जनलोक दो करोड़ योजन, तपोलोक चार करोड़ योजना और जनलोक आठ करोड़
योजन। यहाँ धरतीलोक से बहुत ज्यादा भोग और ऐश्वर्य है; परंतु यह सब भी अनित्य
है। इन लोकों में पुण्य कर्म करने वाले जाते हैं। पातंजलयोग प्रदीप
के व्यास भाष्य के अनुसार सबसे निम्न स्वर्ग लोक को माहेंद्र लोक कहते
हैं। इस लोक में त्रिदश, अग्निश्वात्त, याम्य, तुषित, अपारिनिर्मित-वशवर्ती, परिनिर्मित-
वशवर्ती नाम की छह विशेष देव योनियाँ है। यह बिना माता-पिता के शरीर वाले हैं,
शरीर दिव्य है। यह सब देवता संकल्प सिद्ध है, अणिमा, गरिमा आदि सिद्धियाँ से संपन्न
है। इनकी आयु एक कल्प, 4अरब 32 करोड़ मनुष्य लोक के वर्ष है। इसके ऊपर
महान नामक विशेष स्वर्ग लोक है। इसे महालोक या प्रजापति का लोक भी कहते हैं।
यहाँ की पाँच विशेष देव योनियाँ है कुमुद, ऋभु, प्रतर्दन, अञ्जनाभव व प्रचिताभ।
इनकी इच्छा मात्र से ही महाभूत कार्य रूप में परिणत होते हैं। यह बिना खाए और पिए तृप्त
और पुष्ट होने वाले हैं। इनकी आयु 100 कल्प है। इसके आगे जनलोक है, इसे प्रथम
ब्रह्मलोक भी कहते हैं। इसमें चार प्रकार की देव योनियाँ है-- ब्रहम पुरोहित, ब्रह्म
कायिक, ब्रह्म महाकायिक और अमर। इन की आयु 200 कल्प है। इसके आगे तपोलोक
है जिसे द्वितीय ब्रह्मलोक भी कहते हैं जहाँ पर अभास्वर, महाभास्वर और सत्य महाभास्वर
रहते हैं जिन की आयु 400 कल्प की है। देवगण महाभूत इंद्रीय, अंतःकरण--- इन तीनों को
स्वाधीनकरणशील है। इनका कभी वीर्यपात नहीं होता। कुछ खाने पीने की आवश्यकता नहीं। यह
लोग ध्यानाहार हैं। इसके ऊपर तीसरा ब्रह्मलोक, जिसे सत्यलोक भी कहते हैं, स्थित है।
यह मुख्य ब्रह्मलोक है। इसमें चार प्रकार के देवता रहते हैं--- अच्युत, शुद्ध
निवास, सत्याभ और संज्ञासंज्ञी। अपने शरीर रूपी ग्रह में ही स्थित रह सकते हैं यदि
किसी ग्रह का अभाव हो। इसलिए इन्हें अकृत-भवननिवास कहा जाता है। इनकी आयु
ब्रह्माजी की आयु के बराबर है। यह केवल ध्यान मात्र से ही चाहें जो सुख भोग सकते हैं।
इनमें से कोई भी ब्रह्मलोक का वासी अभी मुक्त नहीं है। यह लोग महाप्रलय के समय ब्रह्माजी
के साथ ही परमब्रह्म में समा जाते हैं। इन सबके अलावा विदेह और प्रकृति लय योगी मोक्ष
पद के तुल्य स्थिति में रहते हैं। इसलिए किसी लोक में रहने वाले लोगों से इनकी
तुलना नहीं की जा सकती---१७ व १९ समाधिपाद ।
इसके अलावा नीच लोक भी
हैं जहाँ पर पाप कर्म करने वाले जाते हैं। इन्हें नर्क कहते हैं। यहाँ पापियों को तरह
तरह की यातनाएँ दी जाती हैं। ऐसे नरकों का वर्णन भागवत में व अन्य पुराणों
में भी है। भागवत के अनुसार नर्क पाताल के नीचे दक्षिण में गर्बोधक सागर के पहले
हैं । जीव पहले यमलोक में ले जाया जाता है जहाँ उसका फैसला किया जाता है। यम
मृत्यु के देवता हैं, यह सूर्य के पुत्र हैं। पदम पुराण के उत्तरखंड के अनुसार
यम का लोक मनुष्य लोक से 86 हजार योजन दूर है। वराह पुराण के अनुसार यम का नगर
4000 योजन लंबा और 2000 योजन चौड़ा है, विशाल राजमार्ग है और सुंदर अट्टालिकाएँ हैं।दक्षिण
दरवाजे से पापी लोगों को ले जाया जाता है और बाकी दरवाजों से पुण्यात्मा।
इसाई धर्म में भी नरकों का वर्णन है ---मार्क 9.45,’रवलेशन’ revelation 14।10,11; मैथ्यू,25.41-46। यहाँ पर पापियों को जलाया जाता है। शुरू
में यह जगह सेटन (satan) और बाकी के गिरे हुए फरिश्तों (fallen angels)
के लिए बनाई गई थी, अब यहाँ पापियों को भी भेजा जाता है। इसाई धर्म में एक बात
और है कि आत्मा को भी भगवान समाप्त कर सकते हैं। क्यों नहीं, जो चीज एक दिन बनाई गई
है वह मिटाई भी जा सकती है-- जेनेसिस (genesis)1.26,27। इसाई धर्म के अनुसार आत्मा
(soul) को भगवान ने बनाया है, इसलिए इसे समाप्त भी कर सकते हैं। हिंदू
धर्म की आत्मा की तरह नहीं, जो कि नित्य है, समाप्त नहीं की जा सकती---श्रीमद्
भगवतगीता 2.24। इसाई धर्म के अनुसार पापी लोग अनंतकाल के लिए नर्क में रहते हैं, छुटकारा
नहीं—मैथ्यू 25.46। इस्लाम (islam) में भी नरकों का जिक्र है--Quraan
22.19,20, 38.55-58, 74.30, 4.56, और अल बुखारी 87-155। मालिक और उसके साथी, जो कि
19 है, नरकों के पहरेदार है। इस धर्म के अनुसार भी पापियों को यातनाएँ दी जाती
है।
ऊपर बताए गए सारे लोक प्राकृत
हैं। प्रलय काल में नष्ट हो जाते हैं। यह सभी लोक बनते हैं और बिगड़ते
हैं। एक निश्चित अवधि के बाद समाप्त हो जाते हैं, उदाहरण के तौर पर स्वर्ग लोक
में इंद्र व अन्य देवता एक मन्वंतर तक ही रहते हैं, बाद में बदल जाते हैं;
कार्यकाल या स्वर्ग में रहने की अवधि समाप्त होने पर( स्वर्गलोक की आयु केवल
एक कल्प ही है जो ब्रह्मा जी का एक दिवस है। एक कल्प में 14 मन्वंतर व 14इंद्र
ही होते हैं। एक इंद्र का समय एक मन्वंतर है) स्वर्ग से गिरा दिए जाते
हैं। नए देवता नए मन्वंतर में आते हैं। इनके अलावा नित्य लोक भी हैं। यह वैकुंठ
लोक कहलाते हैं। यह सप्तर्षियों के बहुत ऊपर शिशुमार चक्र के परे हैं। यहाँ पर
सूरज ,चाँद और अग्नि का प्रकाश नहीं होता। यह लोक अपने ही प्रकाश से प्रकाशित
हैं। यहाँ जाकर जीव वापस नहीं लौटता। वह आवागमन से छूट जाता है। फिर जन्म नहीं
लेना पड़ता। श्रीमद् गीता में वर्णन मिलता है---१५/६ । परमधाम भी कहते
हैं इनको। गर्ग संहिता में कहा गया है कि जहाँ से संसार का सबसे बड़ा सुख समाप्त
होता है वहाँ से परमधाम के सबसे बड़े दु:ख की सीमा आरंभ होती है।(समझाने के लिए कि
“दु:ख’’ शब्द का प्रयोग किया गया है वरना वहाँ पर दु:ख नाम की कोई चीज नहीं है) इससे
ही अंदाजा लगाया जा सकता है कितना बड़ा सुख परमधाम में है। तैतेरीय उपनिषद में ब्रह्मानंदवल्ली
के अष्टम अनुवाक में आनंद का वर्णन किया गया है। “सबसे सुखी मनुष्य वह है मनुष्य
लोक में, जिसकी युवावस्था है, कोई रोग नहीं है, शिक्षित है, सदाचारी है, हर प्रकार
के बल से संपन्न है। मानों ऐसा सुख 1 नंबर लेता है, इस सुख से 100 गुणा बड़ा सुख मनुष्य
गंधर्व का है, उस से 100 गुणा बड़ा सुख देव गंधर्व का है, इससे सौ गुणा सुख पितृलोक
के पितरों का है, उससे सौ गुणा आजानज देवों का, उससे सौ गुणा कर्म देवों
का, उससे सौ गुणा इंद्र का सुख, उससे सौ गुणा बृहस्पति पति का सुख, उससे सौ गुणा
प्रजापति का सुख, उस से सौ गुणा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का आनंद।’’ परंतु इनमें से कोई
भी आनंद ना तो नित्य और ना अनंत है। कुछ दिनों में, चाहे अरबों-खरबों वर्ष ही
क्यों ना हो, समाप्त हो जाता है। फिर यह भौतिक सुख है और अनंत मात्रा का नहीं है, जबकि
भगवान के धाम का सुख अनंत मात्रा का है, अनंत काल के लिए है और प्रतिक्षण वर्धमान
है। भगवत धाम के सुख से यदि बराबरी करें तो किसी भी लोक का सुख ना के बराबर ही है।
अनंत के सामने कोई भी संख्या हो, “कुछ नहीं” के बराबर होती है।
वैकुंठ में चार भुजाधारी विष्णु
भगवान विराजमान हैं। सुनंद, नंद आदि पार्षद उनकी सेवा में लगे रहते हैं। यह भगवान
समस्त धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्य से संपन्न है। इनके चारों ओर 25
शक्तियाँ-- पुरुष, प्रकृति, महत्व, अहंकार, मन, दस इंद्रियाँ, शब्द आदि पाँच तन्मात्राएँ
और पंचभूत चारों ओर खड़े रहते हैं---भागवत द्वितीय स्कंध का नौवां अध्याय। आध्यात्मिक
और भौतिक जगत के बीच में भगवान के पसीने से बनी हुई विजरा नदी है। एक चौथाई
भाग भौतिक जगत का है, तीन चौथाई आध्यात्मिक जगत का। वैकुंठ में रहने वाले सब परिकर
चार भुजाधारी हैं, श्याम वर्ण हैं और विष्णु जैसे ही सुंदर और तेजस्वी है। भगवान के
इस धाम में भौतिक परिवर्तन नहीं पाए जाते-- जन्म, बढ़ना, रूपांतर, अस्तित्व घटना
और समाप्त हो जाना। कोई बीमारी और दु:ख जब स्वर्ग आदि लोकों में ही नहीं
है तो भगवान के नित्य धाम में कैसे होगा? इसी प्रकार दो भुजाधारी कृष्ण जिस स्थान में
रहते हैं उस परमधाम को गोलोक, नित्य वृंदावन, श्वेत द्वीप आदि नामों से जाना जाता है;
श्रीराम का लोक नित्य अयोध्या आदि नामों से जाना जाता है; शिवजी का कैलाश; देविका मणिद्वीप
और इसी प्रकार भगवान के जो-जो रूप हैं उन सबके ही अलग-अलग धाम है। भगवान के रूप अनंत
हैं तो उनके धाम भी अनंत हैं।
साकेत धाम के संबंध में हमें
जानकारी वशिष्ठ संहिता२६/१ साकेत सुषमा से मिलती है: “अयोध्या के प्रथम घेरे में
ब्रह्म ज्योति है जिसमें कैवल्य मोक्ष पाने वाले प्रवेश करते हैं।”
इसके दूसरे द्वार पर सरयू नदी क्रीड़ा करती है। तीसरे द्वार पर महाशिव, महाब्रह्मा,
सिद्ध, चारण गंधर्व आदि रहते हैं। चौथे में वेद, उपवेद, पुराण ,नाटक, ज्ञान, कर्म,
योग वैराग आदि निवास करते हैं । साकेत नगरी के पाँचवें आवरण में मानसिक ध्यान करने
वाले योगी और ज्ञानीजन निवास करते हैं, और विद्वान लोग भी। इसी धाम में कौशलपुरी, अयोध्या,
श्री कृष्ण का वृंदावन, मिथिलापुरी आदि भी हैं और महाविष्णु का वैकुंठ भी यहीं
है। पद्मपुराण उत्तराखंड २२८ में और वर्णन मिलता है कि अयोध्या
नगरी के मध्य में बहुत ऊँचा और व्यस्त दिव्य मंडप है जहाँ राजा का सिंहासन है। वेद
सिंहासन के चारों ओर खड़े रहते हैं। सिंहासन के बीचो-बीच आठ पंखुड़ियों का एक
कमल है, जो उदय काल के सूर्य के रंग का है। इस कमल के बीचोंबीच श्रीराम विराजते हैं
जो सबके स्वामी हैं।
महाभारत में नारद जी को श्वेत
द्वीप में नारायण के दर्शन हुए हैं। परंतु यह भगवान का मायिक रूप है, दिव्य चिन्मय
रूप नहीं। श्वेत द्वीप में दो भुजा वाले श्रीकृष्ण विराजते हैं। यह महावृंदावन भी कहलाता
है। महावृंदावन में सहस्त्रदल कमल के आकार की एक भूमि है जिसका नाम
गोकुल है, उसके ठीक मध्य में श्रीकृष्ण विराजते हैं। गोकुलधाम के मध्य भाग में भगवान
का महासिंहासन है जहाँ पर श्री राधा- कृष्ण युगल स्वरूप में विराजते हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण
में भी दिव्य गोलोक धाम का वर्णन आता है। जब सृष्टि नहीं थी तब करोड़ों सूर्य की प्रभा
के समान ज्योतिर्पुंज था। यह पुंज सृष्टि कर्ता के उज्ज्वल तेज तथा अनंत ब्रह्माण्डों
का हेतु है। इस गोलोक धाम के चार द्वार बताए जाते हैं। गोप लोग इन दरवाजों की रक्षा
करते हैं। श्री कृष्ण इस अप्राकृत धाम को अपनी योग शक्ति से धारण किए हुए हैं। यहाँ
पर ज़रा, मृत्यु ,शोक, रोग आदि का नामोनिशान नहीं है। प्रलय काल में श्रीकृष्ण यहाँ
रहते हैं और सृष्टि काल में यह गोप और गोपियों से भरा रहता है। गोलोक के नीचे पचास
करोड़ योजन दूर दक्षिण भाग में वैकुंठ और वाम भाग में शिवलोक हैं। इस प्रकार गोलोक में
मुख्य लोक तो गोलोक है और नगण्य रूप से बैकुंठ, शिव आदि लोक हैं।
इसी प्रकार अन्य लोकों के लिए भी जाने--- वैकुंठ में मुख्य लोक वैकुंठ है और बाकी के
लोक नगण्य रुप से विद्यमान हैं। किसी भी लोक को छोटा या बड़ा ना
समझें। भक्त की भावना के अनुसार ही भगवान रूप धरते हैं और यही बात उनके लोक
पर भी लागू होती है---श्रीमद् भागवत३/९/११। भगवान अनंत हैं उनके रूप अनंत
हैं और हर एक रूप का अलग-अलग धाम है, लिहाजा भगवत धाम भी अनंत हैं । ईसाई
धर्म के अनुसार हैवन (heaven) भगवान के धाम में जाने वाले हमेशा के लिए भगवान के धाम
में रहते हैं-- मैथ्यू 25.46 ।
इन धामों में कैसे प्रवेश किया
जाए? आइए इसपर विचार करें। सबसे पहले देखें कि इस धाम में किन को प्रवेश नहीं
मिलता। वह लोग यहाँ नहीं जा सकते जो भगवान से विमुख हैं और विषय-भोगों में लगे हुए
हैं। श्रीमद्भागवत कहती है “जो लोग पापों का नाश करने वाली भगवान
की कथाओं को छोड़कर बुद्धि को नष्ट करने वाली अर्थ-काम संबंधी कथाएँ सुनते हैं वह वैकुंठ
को नहीं जा सकते। ऐसी कथाएँ सुनने से उनके पुण्य नष्ट हो जाते हैं और उन्हें नर्क में
जाना पड़ता है।”-- ३/१५/23 । इस धाम में जाने के लिए मन हमेशा भगवान
में लगा रहे, ऐसा उपदेश श्रीमद् भगवतगीता १८.६५,८.७, श्रीमद् भागवत
३/१५/२५ में दिया गया है। ऐसे भक्तों से यमदूत डरते हैं, ऐसे भक्तगण
भगवान के नाम से रोमांचित रहते हैं और आँसू बहाते रहते हैं। नित्य धामों में
जो शरीर प्राप्त होता है वह साकार है। प्रकृति से परे, दिव्य साकार है। इसे भौतिक
नहीं समझना चाहिए। यह प्रलय के समय नष्ट नहीं होता है। ऐसा श्रीमद्भागवत से
प्रतीत होता है--- २.९.११। ऐसे भक्तों को ऋग्वेद में देवयु कहा गया है….
१.१ ५४.५ । यह नित्यधाम सर्वत्र व्याप्त है, ‘ओमनी प्रेजेंट’ (omnipresent) है।
तिनके से लेकर ब्रह्मा का अस्तित्व
अनित्य है। ब्रहमा का लोक व स्वर्ग आदि लोक अनित्य हैं। स्वर्ग की कामना करने
वालों को वेदों ने महामूर्ख ‘प्रमूढ़ः’ बताया है--मुंडक उपनिषद१/२/१०।
इनकी कामना छोड़ें और नित्य धाम में जाने की तैयारी करें। भगवान के धाम में कैसे जाया
जाए इस पर हम चर्चा ‘मुक्ति’ प्रसंग में कर चुके, उससे भी पहले भक्ति के प्रसंग में
।
पुनर्जन्म संबंधी कुछ कथाएँ
पूतना पूर्व जन्म में राजा बलि
की पुत्री रत्नमाला थी। जब भगवान वामन अवतार में बलि को ठगने उस के पास पधारे
तब रत्नमाला का प्रभु के प्रति वात्सल्य भाव उमड़ा और इच्छा हुई कि बालक
को स्तनपान कराऊँ। भगवान ने उसकी इच्छा जानकर द्वापर युग में उसकी इच्छा पूरी की---
गर्ग संहिता, गोलोक १३//३१,३३ तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण।
आनंद रामायण के अनुसार कुब्जा
पूर्व जन्म में पिंगला नाम की एक वेश्या थी।एक बार सीता जी को अनुपस्थित देखकर, वह
रामजी के पैर दबाने पहुँच गई। उन पर प्रेमासक्त हो गई। राम जी ने वरदान दिया कि कृष्ण
अवतार में वह कुब्जा बनेगी और तब उसकी इच्छा पूरी की जाएगी।
गर्ग संहिता वृंदावन खंड के अनुसार
काग भुसुंडिजी पिछले जन्म में अश्वशिला नाम के योगी थे और कालिया नाग वेदशिरा नाम के
मुनि। एक दूसरे को शाप देने से इन दोनों की ऐसी स्थिति हुई।
नारदजी और भक्त प्रहलाद के पूर्व
जन्मों की चर्चा पूर्व में भक्तों के संदर्भ में की जा चुकी है।
राजा बलि पूर्व जन्म में महापापी
थे। इनकी प्रार्थना पर धर्मराज/ यमराज ने इन्हें नर्क भेजने से पहले, तीन घड़ी के लिए
इनके पुण्यों के बदले, स्वर्ग का राज दे दिया। इन्होंने बहुत दान किया, अमरावती का
सारा ऐश्वर्य ही लुटा दिया। अगले जन्म में वह विरोचन पुत्र राजा बलि बने और फिर भी
खूब दान दिया--- स्कंद पुराण माहेश्वरखंड केदारखंड, अध्याय १८ ।(साधारणतः तो
देव शरीर भोग योनि है, इस शरीर से नए कर्म करने का अधिकार नहीं। फिर भी कुछ अपवाद हैं,
जैसे इंद्र द्वारा विश्वरूप का वध करने पर उसे ब्रह्महत्या लग जाना व वृत्रासुर के
वध से पाप लगना--- श्रीमद् भागवत ६ /१३ /५-२१। सब जानते हैं कि इन्द्र द्वारा
अहिल्या को दूषित करने हेतु इंद्र धरा पर आया, वह भी स्थूल शरीर में। ऐसे ही राजा बली
धरती पर स्वर्ग प्राप्ति हेतु यज्ञ करने के लिए नर्मदा के तट पर आए। स्वर्ग में व सूक्ष्म
शरीर से नवीन कर्म नहीं होते, साधारणतः) ।
नल- दमयंती पूर्व जन्म में भील-
भीलनी थे, नाम थे आहुक- आहुआ। एक यति को रात्रि के समय इन्होंने आश्रय दिया। यति और
स्त्री घर के अंदर रहे। भील घर के बाहर रहा। उसे जानवर मार गए। भीलनी ने इसका जरा भी
दुख नहीं माना और पति के साथ सती हो गई। शिवजी के वरदान से, जो यति के रूप में इनकी
परीक्षा लेने आए थे, अगले जन्म में भील राजा वीरसेन का पुत्र नल हुआ और भीलनी विदर्भ
के राजा भीमसेन की पुत्री दमयंती हुई--शिवपुराण शतरुद्र संहिता२८वांअध्याय ।
No comments:
Post a Comment