भागवत : सत् संधान-2


भागवत : सत् संधान-1 से आगे 


भागवत : सत् संधान-2

तत्वों से संबंधित सांख्ययोग
सांख्ययोग तत्वो से संबंधित ज्ञान है। यह ज्ञान श्री कृष्ण उद्धव को देते हैं11वें स्कंध में और यही ज्ञान कपिल अवतार में इन्होंने देवहूति को दिया जिसका वर्णन तीसरे स्कंध में है। तत्वों की संख्या विभिन्न विद्वान भिन्न-भिन्न बताते हैं। यह संख्या 26, 25, 17, 16, 13  ऋषि मुनियो द्वारा बताई जाती है।  तत्वों की संख्या को समझाते हुए श्री कृष्ण ने उद्धवजी को बताया है कि वह सब ही ठीक है। कारण  सभी तत्व सब में अंतर भूत है।  तत्वों का एक दूसरे में अनुप्रवेश  है। जो जितने तत्व बताना चाहते हैं, वे  कार्य को  कारण में या कारण  को कार्य में मिला कर अपनी चाही संख्या को सिद्ध कर लेता है। उधारणतः सोने में ज़ेवर, जेवर मे सोना---इन्हें कोई दो कोई एक बतलाता है। श्रीकृष्ण 26 तत्व बताते हैं।   ----प्रकृति के कारण रूप 24 तत्व [प्रकृति, पाँच तन्मात्राएँ, पाँच ज्ञानेंद्रिय पाँच कर्मेंद्रियां पाँच महाभूत व मन बुद्धि और अहंकार], 25वाँ पुरुष आत्मा  और 26वाँ ईश्वर। जो 25 तत्व  मानते हैं उनका कहना है जीव और ईश्वर में भेद नहीं है,  भेद  करना अज्ञान है। यदि तीनों गुणों को  प्रकृति से भिन्न  माने तो 28 तत्व हो जाते हैं। सृष्टि  कैसे होती है? यह कृष्ण बताते हैं कि वे अहंकार से इंद्रियाँ व इन्द्रियों के अधिष्ठाता 11 देवता प्रकट होते हैं।  भगवत प्रेरणा से यह आपस में मिल जाते है तब ब्रह्मांड रूपी अंड उत्पन्न होता है। अण्ड को भगवान अपना उत्तम निवास स्थान बताते हैं। अंडा  जब जल में स्थित होता है तब भगवान नारायण रूप से इसमें रहते हैं। नाभि से ब्रह्मा जी को उत्पन्न करते हैं और इसके पश्चात ब्रह्माजी सारी सृष्टि करते हैं। भगवान की प्रेरणा से ही भूलोक मानव के लिए, देवलोक देवताओं के लिए, भूत-प्रेत आदि  के लिए अंतरिक्ष और इन लोकों के ऊपर महर लोक,  तपलोक आदि सिद्धों के लिए बनाए जाते हैं। पाताल आदि लोक  भी बनाए जाते हैं।  जितने भी पदार्थ बनते हैं सब प्रकृति और पुरुष के संयोग से ही मूर्त रुप ग्रहण करते हैं। संसार के समस्त पदार्थ और समस्त शरीर अनित्य हैं और हर क्षण परिवर्तनशील है। भगवान जब प्रलय का संकल्प करते हैं तब विनाश होता है। प्राणियों के शरीर अन्न में लीन हो जाते हैं, अन्न बीज में बीज भूमि में और भूमि गंध में लीन हो जाती है। गंध जल में, जल अपने गुण रस में, रस तेज में और तेज रूप में लीन हो जाता है। रूप वायु में, वायु स्पर्श में, स्पर्श आकाश में, आकाश शब्द तन मात्रा में लीन हो जाता है। इंद्रियाँ उनके कारण देवताओं में और उसके पश्चात् राजस अहंकार में समा जाती हैं राजस अहंकार मन में और त्रिविध अहंकार महतत्व में लीन हो जाते हैं। महतत्व जोकि क्रियाशक्ति संयुक्त रहता है गुणों में लीन हो जाता है। गुण प्रकृति में, प्रकृति अविनाशी काल में, काल जीव में और जीव अजन्मा भगवान में समा जाता है। आत्मा के लिए बताया गया है कि इसका किसी में भी लय नहीं होता, अपने स्वरुप में स्थित रहती है। इस तत्वज्ञान से भगवान कहते हैं कि सारे संदेह  मिट जाते हैं और पुरुष अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। श्री कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि योग तपस्या और संन्यास से महरलोक, जनलोक, तपलोक और सतलोक की प्राप्ति होती है और उनकी भक्ति से उनका परमधाम मिलता है जहाँ जाकर वापस नहीं आना पड़ता, बाकी के सब लोक अनित्य हैं। वास्तव में आत्मा शरीर से अलग ही है। इसलिए आत्मा का कहीं आना-जाना नहीं होता। जब आत्मा अपने को लिंग शरीर समझ बैठता है उसीमें अहंकार कर लेता है तभी आने-जाने की प्रतीति होती है। कर्म- अनुसार जो शरीर मिलता है आत्मा उसे ‘मैं’ समझ बैठता है। यही आवागमन का कारण है। गीता भी यही बात कहती है…13.21। वास्तव में जीव को भगवान ने कर्ता  बनाया ही नहीं-- गीता 5.14 ।  कर्म प्रकृति के गुण करते हैं, परंतु अपने आप को शरीर मानने के कारण जीव सोचता है कि कर्म मैं कर रहा हूँ -- 3.27,33।  जीव नित्य, चेतन, ज्ञानस्वरूप, आनन्दस्वरूप अकर्ता व कृष्ण-अंश है। शरीर व प्रकृति जड़ व परिवर्तनशील हैं। जड़-चेतन का कोई नाता नहीं पर चेतन -चेतन अर्थात जीव- भगवान का न टूटनेवाला सम्बन्ध है। जब आत्मा अपने आप को शरीर से पृथक जान जाती है और ईश्वर का अंश जान जाती है तब उसकी संसार से आसक्ति मिट जाती है और भगवान की ओर ध्यान जाता है। 'मैं' समझ जाता है कि जिस आनंद और सुख शांति की खोज में वह है वह संसार में उसे नहीं मिलेगा, एवं आनंदस्वरूप भगवान में मिलेगा। भगवान स्वयं आनंद है। भगवान  का नित्य ध्यान करने से उसे भगवत- प्राप्ति होती है और आवागमन मिट जाता है। ऐसा ही उपदेश गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भी दिया।  -- 18.65,46

तत्व के संबंध में चर्चा आगे भी की जाएगी, हमारी साइट का नाम है primelements.com, अस्तु ब्रह्म जीव माया पर चर्चा होती ही रहेगी। यही मूल तत्व है। इनके अलावा और कोई मुख्य तत्व ज्यादातर विद्वान नहीं मानते।
  
वर्णाश्रम धर्म  स्कंद  7अध्याय 11 , स्कंध 11 अध्याय 17 और 18   

वर्णाश्रम के अनुसार धर्म पृथक-पृथक है। इसके पालन से कृष्ण ने अपना मत अभिव्यक्त किया है कि मोक्ष की प्राप्ति होती है। वर्ण चार हैं। ब्राह्मण विराट पुरुष के मुख से, क्षत्रिय भुजा से, वैश्य जंघा से और शूद्र चरणों से उत्पन्न हुए हैं। यह स्वभाव से हैं, जन्म से नहीं। ब्राह्मण में स्वाभाविक रूप से शम, दम, तपस्या, पवित्रता, संतोष, क्षमाशीलता, सीधापन, भगवान की भक्ति, दया और सत्य जैसे गुण होते हैं। क्षत्रिय के स्वभाव में तेज, बल, धैर्य, वीरता, सहनशीलता, उदारता, उद्योगशीलता, स्थिरता, ब्राह्मणों की भक्ति और ऐश्वर्य होते हैं। धन संचय से संतुष्ट ना होना, आस्तिकता, दानशीलता, दंभहीनता, ब्राह्मणों की सेवा- यह वैश्य के गुण हैं। देवता व ब्राह्मणों की निष्कपट भाव से सेवा करना और जो कुछ मिल जाए उस में संतुष्ट रहना यह शुद्र वर्ण के स्वभाव में है। अपने-अपने स्वभाव के अनुरूप ही प्रत्येक वर्ण के व्यक्ति कर्म करते हैं। ब्राह्मण के कर्म हैं पढ़ना-पढ़ाना, दान लेना देना [ दान लेने का अधिकार सिर्फ ब्राह्मण को है और देने का समस्त वर्णोंको ], मन का निग्रह, इंद्रियों को वश में रखना, धर्म की पालना कष्ट सहकर भी करना, बाहर और भीतर से शुद्ध रहना, क्षमाशीलता, वेद शास्त्र आदि का ज्ञान, यज्ञ विधि को अनुभव में लाना व परमात्मा, वेद आदि में विश्वास रखना। क्षत्रिय के कर्म हैं प्रजापालन, बाकी वर्णों  की रक्षा करना, शौर्य तेज और धीरता। वैश्यों के लिए कर्म है व्यापार करना, पशुपालन, विशेषकर गौ-पालन। शूद्रों के लिए कर्म है बाकी के वर्णों की सेवा करना।

सब अपने-अपने वर्णो के हिसाब से कर्म करते हैं तो समाज की व्यवस्था सुचारु रुप से चलती है परंतु भगवान ने छूट दी है कि यदि ब्राह्मण अपना स्वभाविक कर्म अध्यापन आदि से अपने पेट नहीं पाल सके तो वह वैश्यवृत्ति और क्षत्रियवृत्ति को भी अपना सकता है। परंतु, यह सब आपत्ति काल में। इस प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अन्य वर्णो के कर्म कर सकते हैं। नारद जी ने यहाँ तक कहा है कि अगर एक वर्ण [ ब्राह्मण] के लक्षण दूसरे वर्ण वाले में अर्थात क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र में मिले तो उन्हें भी उसी वर्ण का यानि ब्राह्मण समझना चाहिए।  यही बात अन्य वर्णों पर लागू होती है। यदि क्षत्रिय में ब्रह्म तेज है, वेद आदि पढ़ने में रुचि है, पढ़ता है और है पढ़ाता है  तो उसे भी ब्राह्मण वर्ण का समझना चाहिए।
   
आश्रम भी विराट पुरुष से ही उत्पन्न हुए हैं। उरु स्थल से गृहस्थ आश्रम, हृदय से ब्रहमचर्य आश्रम, वक्ष स्थल से वानप्रस्थ आश्रम और मस्तक से सन्यास आश्रम उत्पन्न हुए हैं।  ब्रह्मचारी यज्ञोपवित संस्कार से द्वितीय जन्म प्राप्त करके गुरु के सानिध्य में आश्रम में रहे पढ़ाई करें। स्त्रीसंग से दूर रहे, यदि ब्रह्मचारी का विचार है कि वह ब्रह्मलोक में जाए तो वह आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत निभाए। वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम में भी स्त्रियों से दूर रहना ही धर्म है।  तीनों ही आश्रम वाले जप करें; समस्त प्राणियों में भगवान को देखें; मन, वाणी और शरीर का संयम रखें और शौच रखें।  हर प्रकार के भोगों से तीनों आश्रम वाले दूर रहें।  सभी वर्ण और आश्रम वाले काम, क्रोध, लोभ से बचें, चोरी ना करें, सत्य पर चलते रहे; मन, वाणी और शरीर से किसी की हिंसा ना करें और समस्त प्राणियों के भले की चाहत रखें।  सबके हृदय में भगवान विराजते हैं ऐसा मानकर सबसे प्रेमभाव रखें, सभी वर्ण और आश्रमों के लिए है। यदि ब्रहमचारी को गृहस्थ आश्रम स्वीकार करना हो तो वह अपने ही वर्ण की आयु में अपने आप से कुछ छोटी कुलीन कन्या से विवाह करे।  एक से ज्यादा विवाह करने हो तो अपने से नीचे वर्ण वाली कन्या से विवाह कर ले। सबसे उचित तो यही है कि स्त्री-गमन केवल संतान उत्पत्ति के लिए ही करे।  गृहस्थ व्यक्तियों के लिए नारदजी ने समझाया है कि बुद्धिमान पुरुष आवश्यकता के अनुसार ही घर और शरीर की सेवा करें, अधिक नहीं।  भीतर से आसक्तिरहित और बाहर से रागी के समान लोगों से साधारण मनुष्य जैसा ही व्यवहार करें। माता-पिता, भाई-बंधु, पुत्र-मित्र, जातिवाले व दूसरे व्यक्ति जो कुछ कहें अथवा जो कुछ चाहे अन्दर से आसक्ति नहीं रखें पर उनका अनुमोदन कर दें। प्रारब्ध के अनुसार जो मिल जाए उस में खुश रहे। धन संचय से  बचे। पञ्च यज्ञ से बचे हुए अन्न से ही अपना जीवन निर्वाह करे।  अधिकार केवल इतने पर है जिससे कि भूख मिट जाए अधिक संपत्ति का संचय करने वाला चोर है--- 7.14. 5,14। शुक्राचार्य ने राजा बलि से कहा कि गृहस्थ आश्रम में रहने वालों के लिए धर्म वह है जिससे अर्थ काम यश और आजीविका में कभी किसी प्रकार की बाधा नहीं आए। ----8. 20. 2 ।

वानप्रस्थ आश्रम वाले वनों में रहे। गर्मी में आग तपे, बरसात में बारिश में भीगे, सर्दी में गले तक जल में डूबे रहे और इस प्रकार तपस्वी का जीवन व्यतीत करे। इनके लिए भी अग्निहोत्र का वही विधान है जो गृहस्थों के लिए है। इस प्रकार तपस्या करने वाला वानप्रस्थ आश्रम में रहने वाला ऋषिओं के उच्च लोक में जाता है।

संन्यासी के लिए भगवान ने धर्म बताया है कि वह केवल एक लंगोटी लगा कर रहे या ज्यादा से ज्यादा एक कपड़े का टुकड़ा लपेट ले जिससे लंगोटी ढक जाए। भिक्षा से जीवन यापन करें। प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति में भी सम रहे और सब जगह परमात्मा का अनुभव करता रहे। अपने को भगवान से अभिन्न मान  कर चिंतन करें, अखंड रूप से। संन्यासी दृश्य जगत को सत्य वस्तु कभी न समझे। इस लोक और दूसरे लोको के भोग से विरक्त रहे।

संन्यासी का प्रधान धर्म है अहिंसा और शांति; वानप्रस्थ का तपस्या और भगवान का चिंतन; गृहस्थ का विशेष धर्म है प्राणियों की रक्षा, यज्ञयाग  करना; ब्रहमचारी का धर्म है आचार्य की सेवा। इस प्रकार अपने-अपने वर्णाश्रम के अनुसार धर्म का आचरण करने से भगवान कहते हैं कि उनकी अविचल भक्ति प्राप्त हो जाती है। और, नारद जी के अनुसार जो स्वाभाविक वृत्ति का आश्रय लेकर अपने स्वधर्म का पालन करता है वह धीरे-धीरे उन स्वभाविक वृत्तियों से भी ऊपर उठ जाता है और गुणातीत हो जाता है।   

यूँ तो सभी मनुष्यों में पंचभूत समान है। वृत्तियाँ सभी मनुष्यों की अलग-अलग है। इन्हीं वृत्तियों को देखते हुए वेदों में वर्णाश्रम धर्म प्रतिपादित किया है भगवान ने ताकि हर प्रकार के मनुष्य अपनी वृत्तियों पर नियंत्रण करके धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थ सिद्ध कर सके------11.21.6   

मुख्य विषय परमात्मा प्राप्ति का है। इस हेतु 3 मार्ग बताए गए हैं- ज्ञान, कर्म और भक्ति। कृष्ण अनुसार ज्ञानयोग के वे अधिकारी है जो कर्मों और कर्मों के फलों को त्याग चुके हैं, निष्काम व्यक्ति जिनका कर्मों से और कर्मों के फलों से वैराग नहीं हुआ है ऐसे व्यक्ति कर्मयोग के अधिकारी हैं, जो ना ज्यादा विरक्त है ना ज्यादा आसक्त हैं और जो पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार भगवान की लीला कथा आदि में प्रेम रखते हैं उनके लिए भगवान ने भक्ति मार्ग बताया है।

ज्ञानी केवल एक ही तत्व ब्रह्म को मानता है, स्वयं में और ब्रहम में कोई भेद नहीं मानता, जगत को मिथ्या मानता है माया को अनिर्वचनीय। कर्मयोगी संसार को मानता है, परंतु अनित्य मानता है, एक परम सत्ता ईश्वर को मानता है। निष्काम भाव से कर्म करता है कर्म में  आसक्ति, ना कर्म के फल में आसक्ति और ना ही किसी प्रकार की स्पृहा रखता है। भक्त भी तीन तत्व मानता है स्वयं यानि कि आत्मा, माया, संसार –जो कि माया से बना है और अनित्य है- और भगवान।  


क्रमशः 3    

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