अवतार :भाग 2

वराह अवतार..  स्कंध 3 अध्याय 13 से 19
ब्रह्माजी सोच  रहे थे कि  अथाह जल में डूबी हुई पृथ्वी को निकालने में सर्वशक्तिमान मेरी सहायता करेंगे तब ही उनकी नासिका से एक छोटा सा वरहा बच्चा निकला जो देखते ही देखते हाथी के बराबर हो गया, फिर चट्टान स्वरूप हो गया और बाद में पर्वताकार बन  गया. इसने भयंकर गर्जना की. ध्वनि जन लोक, तपलोक और सतलोक के वासियों ने सुनी.अधिकारी होने से ही वे गर्जना सुन पाए. कृष्ण अवतार में    बंसी की ध्वनि शिव जी ने कैलाश पर्वत पर सुन ली, लक्ष्मी ने वैकुंठ में , गोपियों ने भी  सुनी; परंतु जो अधिकारी नहीं थे वे  बंसी की आवाज नहीं सुन पाए. बहुत सी गोपियों के पति, सास- ससुर ,बच्चे अन्य घरवाले नींद में सोते ही रहे गोपियों की बगल में, उन्हें कुछ सुनाई नहीं दिया. जब भगवान अवतार लेते हैं तब उनके रूप और ध्वनि  से भगवान को जानने वाले, समझने वाले, महापुरुष विचलित नहीं होते वरन   आनंदित  होते हैं. इसके विपरीत असुर लोग भयभीत हो जाते है.अवतार  शरीर दिव्य होता है. यह लोगों को उनकी भावनाओं के अनुसार विभिन्न रुपों का प्रतीत होता है,जैसे रुस्सी साँप ,माला ,धारा आदि रूप की दिखती है परंतु जानकार को रस्सी ही --6.9.37.   धनुष यज्ञ के समय कंस के अखाड़े में श्रीकृष्ण अलग अलग लोगों को अलग-अलग रुपों में नजर आए. स्त्रियों को कामदेव,पहलवानों को वज्र  कठोर, वात्सल्य भाव वालों को छोटे बच्चे ,अपने मामा कंस को साक्षात्  कॉल रूप दिखे.
 तीनों लोकों  के वासियों ने तीनों वेदों से, ऋग्वेद अथर्ववेद और सामवेद से भगवान वराह  की स्तुति की. यह जान गए थे कि पृथ्वी के उद्धार हेतु अवतार हुआ है. अवतार के समय भगवान को बहुत कम लोग  ही समझ पाते हैं. जो उन्हें साधारण पशु या मनुष्य समझता है उसके आगे प्रभु योग माया का पर्दा डाल देते हैं और अपना असली स्वरूप छुपा लेते हैं.अपने भक्तों को वह जाहिर कर देते हैं कि वह भगवान है, बाकी के अविश्वासी लोग भगवान को सही तरह नहीं जान पाते. इस अवतार की गर्जना इतनी तेज थी ,इतनी भयंकर थी कि  उपरोक्त तीनो लोकों  तक गई. स्तुति में शूकर भगवान के शरीर का वर्णन यज्ञ  रूप में किया गया है. रोमकूप को संपूर्ण  यज्ञ बताया, त्वचा को सारे छंद गायत्री आदि, रोमवली को कुश  कहा गया, आंखों को घी  बताया गया है, चार चरणों को चारों ऋत्विक अर्थात ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु उद्गाता, पेट को यज्ञ का  अक्षय पात्र बताया गया है इत्यादि. भगवान के गर्दन हिलाने से पानी तीनों लोकों में गिरा और उपरोक्त जनलोक , तप लोक और सतलोक के वासियों को पवित्र कर  दिया,जैसे गंगाजल अशुद्ध को शुद्ध करता है, क्योंकि वह भगवान के  चरणों से निकलता है.यह जल शरीर से निकला था, शरीर को झाड़ने से.

श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती जैसे विद्वानों का मत है कि धरती को  गर्भोदक  सागर से निकालकर भगवान लाए थे, जहां सारे लोक ब्रह्मा के  दिन की समाप्ति पर ,प्रलय के समय, रहते हैं.उनके अनुसार धरती रसातल से 7 गुना श्रेष्ठ है. श्री जीव गोस्वामी का कथन है कि वराह अवतार कथा स्वायंभुव मन्वंतर और चाक्षुष   मन्वंतरदोनों की प्रलय के समय की हैस्वयंभुव मन्वंतर  में  भगवान का रंग श्वेत था और चाक्षुष   मन्वंतर  में यह रंग लाल थाअसुर से युद्ध चाक्षष प्रलय  में  ही हुआ था.मैत्रेयजी ने यह कथा विदुर जी को दोनों  की एक साथ सुनाई  हैहिरण्याक्ष वास्तव में हरि का पार्षद था. जय और विजय दोनों भगवान के पार्षद थे, वैकुंठ के छह द्वारों में से एक पर तैनात थे. और सनक,सनातन  सनंदन  सनंत कुमार के लक्ष्मी  के  शॉप वश  असुर बनना पड़ा .इन  बेचारों का अपराध था कि  इन्होंने एक बार लक्ष्मी जी को एक अन्य समय   सनकादिक कुमारों को द्वार पर रोक लिया और हरि से मिलने  नहीं दिया.

आगे कथा है कि  एक बार संध्या के समय दक्ष की बेटी दिति   ने कामातुर  होने से अपने पति, मरीचि पुत्र कश्यप, से पुत्र प्राप्ति की अभिलाषा की, क्योंकि उसके कोई पुत्र नहीं था जबकि उसकी  सौतनो  के  , जो उसकी बहने हीं थी, सब के पुत्र थे. समय घोर था. पहले कश्यप जी ने मना  किया,समझाया ; परंतु दिति  के बहुत जोर देने पर समागम किया. यह समय राक्षस आदि घोर जीवो का था. इसलिए उसने दो असुरों को जन्म दिया---जो गर्भ  में पहले स्थापित हुआ वह हिरण्यकशिपु हुआ, गर्भ से पहले निकलने वाला हिरण्याक्ष हुआइस हिरण्याक्ष ने वराह भगवान से युद्ध किया . युद्ध बहुत रोचक था.दोनों टक्कर के थे. असुर इतना बड़ा था कि उसका मुकुट स्वर्ग को छूता था. प्रभु का शरीर भी इतना विशाल था कि जल में छलांग लगाने पर ऐसा प्रतीत होता था कि समुद्र दो भागों में विभाजित हो  गया है और वरहा के खुर  सागर के तल  तक पहुंच जाते थे. बल  इतना था कि शूकर अवतारी प्रभु पूरी धरती को अपनी दाढ़ [tusks ] पर उठाकर लाए थे. युद्ध भी बहुत देर तक चला. हिरण्याक्ष ने माया का भी प्रयोग किया.परंतु असुर होने पर भी युद्ध के धर्मों का पालन किया. एक बार भगवान की गदा गिर गई. तब निहत्थे पर असुर ने वार नहीं कियाभगवान का पराक्रम इतना था की उसकी एक चली. बहुत समय तक असुर के साथक्रीड़ा’’ करने के पश्चात, वराह भगवान ने देवताओं के आग्रह करने पर चक्र से असुर का वध कर दिया. भागवत में वर्णन है कि असुर का अंत समय ध्यान भगवान में था, भगवान के दर्शन करते हुए उसने देह को त्यागा.उसने युद्ध भी किया और उसका ध्यान भगवान में था. इस कारण से गीता में अध्याय 8 श्लोक 5,6,7 में  तथा भागवत  में  स्कंध 7 अध्याय 1 श्लोक 30 31 में प्रतिपादित  सिद्धांत [ कि  अपना मन भगवान में तन्मय करने से, चाहे जिस किसी भाव से, जीव को भगवान की  ही प्राप्ति होती हैके अनुसार उसे भगवत-प्राप्ति हुई. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है. जब जय और विजय को शाप दिया गया था तब भगवान ने उन्हें आश्वासन दिया था: “ दैत्य  योनि में मेरे प्रति क्रोध की भावना रखने से तुम्हें एकाग्रता प्राप्त होगी जिससे तुम पाप से मुक्त हो जाओगे और थोड़े ही समय में मेरे पास लौट आओगे .’’ आगे चलकर यही जय विजय , नारदजी  बताते हैं , रावण कुंभकरण और शिशुपाल दंतवक्त्र  भी  बने--7.10.36-40.  जब  असुर की मृत्यु हुई, तब उसकी माता दिति  का हृदय कांप उठा और उसके स्तनों से रक्त बहने लगा. यह सत्य ही तो है. ऐसा बहुत बार सुनने में आता है कि जब संतान कष्ट में होती है तब माता का हृदय विचलित हो जाता है और स्तनों में  सरसराहट , झनझनाहट,ख़ुजली , वेदना, कंपन आदि  होता है.

 श्रीधर स्वामी ने हमें समझाया है कि जब असुर भगवान को ललकार रहा था तब वास्तव में वह उनकी स्तुति कर रहा था. हमारा ध्यान  शब्दवन गोचर’’ की ओर आकर्षित करके वे  समझाते हैं कि इस शब्द का अर्थजो जल में लेटा है’’ भी होता हैअज्ञ = सब ज्ञान वाला; सुराधम  = सब का देवता भी होता है. इस प्रकार 3.18.3 , इस श्लोकद्वारा  वास्तव  में असुर ने  भगवान की पूजा ही की है. क्यों नहीं करताथा तो प्रभु का पार्षद ही. लीला में साथ देने आया था. चारों कुमारों का लक्ष्मी जी का शॉप भी तो प्रभु की लीला ही था! इस मृत्यु को मैत्रेजी ने अलभ्य मृत्यु बताया है.

इस  चरित्र के संबंध में भागवत कहती है कि यह  पवित्र करने वाला धन और यश की प्राप्ति कराने वाला,आयुवर्धक और कामनाओं की पूर्ति करने वाला है. युद्ध में  प्राणों की शक्ति को बढ़ाने वाला है. जो इसे सुनते हैं उन्हें भगवान का आश्रय प्राप्त होता है--3/1/38.
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                                                    नारद जी
पूर्वजन्म में इसके पहले महाकल्प में मैं एक गंधर्व था ’’...7.15.69.(और ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार नारदजी गंधर्वों के राजा चित्ररथ के पुत्र थे जो कि पिता द्वारा बहुत लंबी आराधना करने के पश्चात एक  वैष्णव पुत्र के रुप में शिवजी के वरदान से प्राप्त हुए .)यह बातें नारदजी श्रीमद्भागवत में  बता रहे हैं जो कि पदम कल्प  [अभी श्वेतवराह कल्प चल रहा है ] से संबंधित है, इसलिए विद्वानों का मत है कि नारदजी पदम  कल्प से पहले कल्प की बातें कह रहे हैं.ब्रह्माजी के तीस दिन ,तीस कल्प स्कन्धपुराण के प्रभासखंड में निम्न हैं : श्वेत , नीललोहित , वामदेव, गाथान्तर , रौरव , प्राण ,७बृहत् , कन्दर्प ,९सदयोथ, १०ईशान , ११ ध्यान , १२  सारस्वत,१३ उदान ,१४गरुड़ ,१५  कौर्म,१६ नारसिंग ,१७ समाधि ,१८ आग्नेय ,१९ विष्णुज ,२० सौर ,२१ सोम ,२२ भावन ,२३ सुपुम ,२४ वैकुण्ठ ,२५ अर्चिष २६ वली ,२७ वैराज २८  गौरी, २९ माहेश्वर, ३०पैतृ .  नारदजी देखने में बहुत सुंदर थे उनके शरीर से सुगंधी निकलती थी,  स्त्रियां इनकी ओर आकर्षित रहती थी. एक बार यह देवताओं के ज्ञान सत्र में गए और वहां भगवान की लीला का गान करने के स्थान पर  स्त्रियों के साथ लोक गीतों का गान  करने लग गए. देवताओं ने अपना अनादर समझा और नारद जी को शाप दे दिया कि उनकी  सौंदर्य संपत्ति नष्ट हो जाए और  वे शुद्र हो जाए.नारदजी दासी पुत्र बन गए,वेदवादी ब्राह्मणों की दासी के यहां जन्म लिया. बचपन से ही वह ब्राह्मणों की सेवा में लग गए, ब्राह्मणों की अनुमति से उनका जूठन खा लिया करते थे जिससे इन के पाप धुल गए, इनका ह्रदय शुध्द हो गया है.  इनकी माता को सांप ने डस लिया जिससे उसकी मृत्यु हो गई. नारदजी उत्तर दिशा की ओर जंगलों में चल दिए  और  भगवान की आराधना कीकृपा करके भगवान ने इन्हें  दर्शन दिए, दर्शन देकर भगवान ओझल  हो गए। बार-बार  प्रयत्न करने पर भी दोबारा नारदजी भगवान के दर्शन नहीं कर पाए. इनसे भगवान ने कहा, “खेद है कि इस जन्म में तुम मेरे दर्शन नहीं कर सकोगे। जिनकी वासना पूर्णतः  शांत नहीं हो गई हैं उन अधकचरे योगियों को मेरा दर्शन अत्यंत दुर्लभ है. निष्पाप बालक तुम्हारे हृदय में मुझे प्राप्त करने की लालसा जागृत करने के लिए ही मैंने एक बार तुम्हें अपने रूप की झलक दिखाई हैमुझे प्राप्त करने का तुम्हारा यह दृढ निश्चय कभी किसी प्रकार नहीं टूटेगा।  समस्त सृष्टि का प्रलय हो जाने पर भी मेरी कृपा से तुम्हें मेरी स्मृति बनी रहेगी..” इतना कहकर भगवान चुप हो गए. नारदजी भगवान के नाम और लीलाओं का कीर्तन स्मरण करने लगे. कालांतर में नारद जी की मृत्यु हो गई. पंचभौतिक शरीर नष्ट हो गया. भगवत पार्षद शरीर प्राप्त हुआ.यह शरीर दिव्य होता है, प्रकृति के  गुणों से परे होता है. यह हमेशा के लिए होता है, कभी नष्ट नहीं होता और कर्मों के बंधनों से मुक्त होता है.इस शरीर से बेरोक टोक नारदजी किसी भी लोक में जा सकते हैं . भौतिक  लोकों  और दिव्य लोकों  में बेरोक- टोक आते जाते हैं. ऐसी सुविधा मरीची आदि सनकादिक को भी नहीं है. जय विजय ने सनकादिक को वैकुंठ के द्वार पर रोक लिया था ,यह हम सब जानते हैं. ऐसा कभी नारद  जी के साथ नहीं हुआ है. ऐसी सुविधा केवल भक्तों को दी गई है, ज्ञानी सनकादिक कुमारों को भी नहीं और सकाम मरीची आदि ऋषिगण  को भी नहीं .नारद जी को एक दिव्य वीणा श्रीकृष्ण ने प्रदान की है ऐसा वर्णन लिंग पुराण में आता है. यह  वीणा, नारद जी और श्री कृष्ण अभिन्न है. इस वीणा से नारदजी दिव्य संगीत निकालते हैं.
आगे नाराजी समझाते हैं, “कल्प के अंत में जिस समय भगवान नारायण प्रलय कालीन समुद्र के जल में सोने की इच्छा करते हैं, उस समय  भगवान के हृदय में शयन करने की इच्छा से सारी सृष्टि को लपेट कर ब्रम्हाजी जब भगवान में प्रवेश करने लगे तब उनके सांस के साथ मैं भी उनके हृदय में प्रवेश कर गया. सृष्टि के समय जब ब्रह्मा जी  जागे और उन्होंने सृष्टि करने की इच्छा की तब उनकी इंद्रियों से मरीची आदि  सभी  ऋषियों के साथ मैं भी प्रकट हो गया. तभी से मैं भगवान की कृपा से वैकुंठ आदि में और तीनों लोकों में बाहर और भीतर बिना रोक-टोक विचरण किया करता हूं.’’ लिहाजा नारद जी का शरीर माता के गर्भ से पैदा नहीं होता, बल्कि प्रकट होता है.इसीलिए नारद जी को अवतारों में गिना जाता है. इसाई मत में भी इस प्रकार का उदाहरण मिलता है. ईसा मसीह को सूली पर लटका दिया गया तथा  उनकी मृत्यु हो गई. वह तीन  दिन पश्चात फिर जी उठे. पुराना शरीर कहां गया इसका कोई वर्णन नहीं आता. नए शरीर में उन्होंने अपने चेले टॉमस को  कीलों  के घाव के निशान भी इंगित किये शरीर से उन्होंने खाया पिया बातें करी और फिर आकाश में उठकर  अंतर्ध्यान हो गए. यह सब दिव्य शरीर प्राप्त करने के लक्षण हैं.
 इन्होंने नारद पंचरात्र की रचना की है, भक्ति के आचार्य हैं. इनके 84 भक्ति सूत्र भक्तों के लिए कलपतरू है. इन्होंने निष्काम और अनन्य भक्ति को सर्वश्रेष्ठ बताया है, ब्रज की गोपियां इनके अनुसार भगवान की सबसे ऊंची भक्त हैं. जब सारे पुराणों की और महाभारत की रचना के बाद भी व्यास जी को शांति नहीं मिली, तब नारद जी ने उन्हें भागवत लिखने की सलाह दी. उन्होंने दक्ष पुत्रों को भक्ति का और वैराग का उपदेश दिया था जिस कारण नारद् जी को शॉप भी मिला दक्ष प्रजापति द्वारा….6.5.43. इसी कारण  नारद जी किसी एक जगह ज्यादा टिककर नहीं रहते, जगह जगहतरह-तरह के  लोकों  में विचरते रहते हैं.
  नारद्जी ने राजा प्राचीनबर्हि  को  आत्माज्ञान--जीव   ईश्वर का स्वरूप-- का उपदेश देते हुए बताया कि जीव का सखा ईश्वर है.  आत्मा निर्गुण है, स्वयं प्रकाश है; परंतु जब तक आत्मस्वरूप भगवान के स्वरुप को नहीं जान लेता तब तक प्रकृति के गुणों में ही बंधा रहता है..4.29. 24-26. पुरंजन आख्यान में भगवान के अवतार नारद जी राजा को समझाते हैं: “ जो मैं[ ईश्वर] हूं,वह  तुम[ जीव] हो. तुम मुझसे भिन्न नहीं हो... ज्ञानी हम में थोड़ा सा भी अंतर नहीं बताते.’’ [आख्यान  में भगवान ब्राह्मण का रुप लेकर यह बातें पुरंजन जो कि दूसरे जन्म में विदर्भराज की कन्या था को समझाते हैं ]. जैसे एक पुरुष अपने शरीर की परछाई को शीशे में भिन्न भिन्न रूप से देखता है वैसे ही एक ही आत्मा अविद्या  के कारण अपने को ईश्वर और जीव के रूप में दो प्रकार से देखता है...4.29.62-65. पुरंजन आख्यान इस प्रकार है कि एक बार यशस्वी  राजा पुरंजन,जिनके सखा का नाम है अविज्ञात   जिस की बातें लोगों को कम समझ में आती थीं  , शिकार खेलते खेलते एक नगरी पर पहुंचे जिस के नौ द्वार थे . वहां राजा को एक बहुत ही सुंदर कन्या दिखाई थी जो कि वर की तलाश में थी . इस कन्या के 10 नौकर थे, हर नौकर के सौ सौ पत्नियां थीं.  दोनों एक दूसरे पर मोहित हो गए .दोनों नगरी में रहने लगे.   राजा इस पुरंजनी का दास बन गया; उसके इशारों पर नाचने लग गया ,जैसे नट के इशारों पर बंदरउनके कई पुत्र -पुत्रियां हुए . सेवक  विषूचीन के साथ राजा  अंतः पुर में जाया करता था . इस नगरी की रक्षा   सिर वाला सर्प करता था . प्रज्वर और कालकन्या  ने इस नगरी पर हमला बोल दिया,इनकी  सहायता गंधर्वराज चंडीवेग  ने की जिसके पास ३६०   गंधर्व और ३६०   गंधर्वनियां थीं. सिर वाले सांप ने डटकर मुकाबला किया परंतु अंत में, सौ  वर्षों के युद्ध के बाद वह हार गयापुरंजन को  बंदी बना लिया गया और  फिर अँधेरी  कोठरी में डाल दिया गया . यहां पर  जानवरों ने अपने सींगों से उसे  बहुत कष्ट दिया .अपने अंतिम समय में राजा ने अपनी प्रिया पुरंजनी  का ध्यान रखते हुए शरीर का त्याग किया ,इस कारण से वह अगले जन्म में, “जैसी मति वैसी गति’’ के नियमानुसार लड़की बना.....गीता  8/6 . राजा  विदर्भ के यहां जन्म लेकर विदर्भ नंदिनी कहलाया . सही समय पर स्वयंवर द्वारा मलयध्वज  से विवाह किया . खूब-भोग भोगे , बच्चे बच्ची  पैदा किए  और फिर विधर्भनंदिनी, जो कि पिछले जन्म में राजा पुरंजन था, के पति का देहांत हो गया . नंदिनी को बहुत दुःख हुआ . इसका पुराना सखा अविज्ञात ब्राह्मण के रूप में आया और ऊपर बताया गया जीव ईश्वर संबंधी  तत्वज्ञान राजा को दिया . स्पष्ट करते हुए नारद जी ने राजा प्राचीनबर्हि  को पुरंजन आख्यान का अर्थ समझाया  .  पुरंजन हम जीव हैं .नौ   दरवाजे वाला नगर हमारा शरीर है ---  दो आंख, दो नाक, दो कान, एक मुख, एक ,लिंग और एक गुदापांच  सिर वाला सर्प पांच प्राण हैं.lशरीर को रथ  बताया गया है-- पांच घोड़े पॉँच  ज्ञानेंद्रियां हैं, दो पहिये पाप और पुण्य रूपी कर्म हैपांच प्राण  डोरियां है, मन बागडोर है और बुद्धि सारथी हैपुरंजनी अविद्या है . इसके दस नौकरों में पांच  ज्ञानेंद्रियां हैं ,पांच ही कर्म इंद्रियां हैं और इनके विषय हैं सैकड़ों . अंतः पुर को हृदय समझिए . मन को विषूचीन मानिए.काल कन्या जरा है . गंधर्वराज चंडीवेग का मतलब एक वर्ष है . गंधर्व और गंधर्वी   दिन और रात है. प्रज़्वर का अभिप्राय व्याधियां और दुख दर्द हैं . अविज्ञात हमारे जन्म जन्म का साथी  ईश्वर है ---4/25-29. पुरंजनाख्यान  वास्तव में हमारी और आपकी कहानी है . जीव-ईश्वर की कथा . माया से  मोहित हुए, अपने साथी ,ईश्वर , को भुलाए हुए हम आवागमन के चक्कर में फंसे हुए हैं . ( इसी साइट www . primelements.com  में इस आख्यान का अंग्रेज़ी में विस्तार से वर्णन है )

 आगे प्रचेताओं को नारदजी समझाते हैं कि आवागमन के चक्र से छुटकारा भगवान की भक्ति से ही हो सकता है. जैसे वृक्ष की जड़ सींचने से पूरे वृक्ष को पानी मिल जाता है ऐसे ही एक भगवान की भक्ति करने से ही सब की  भक्ति हो जाती है. आत्म ज्ञान प्रदान करने वाले भगवान ही संपूर्ण प्राणियों की प्रिय आत्मा है---- 4.31.13-14.
नारद जी ने राजा चित्रकेतु को ऐसी विद्या सिखाई जिससे वे विद्याधरों  के राजा बन गए,केवल सात दिनों की साधना से ही...6.16.18-28.
 जब भी कोई जीव भगवान की ओर जाना चाहता है तब  नारद जी  उसकी मदद करने  पहुंच जाते. इन्होंने  बालक ध्रुव को भक्ति का उपदेश दिया .   जब  पहलाद जी अपनी मां के गर्भ  में थे तब इनकी मां  कद्रू की रक्षा देवताओं से नारदजी  ने हीं की थी. मां को तत्व ज्ञान और भक्ति का उपदेश नारद जी ने दिया जिसे गर्भस्थ प्रहलाद ने ग्रहण कर लिया और उच्च कोटि के निष्काम भक्त बने.  भगवान की लीला में यह  सहायक के रूप में, प्रेरक के रूप में कार्य करते हैंजब भी भगवान का  अवतार होता है,यह दर्शन हेतु पहुंच जाते हैं .

 नारद जी के चरित्र से हमें यह सीखने को मिलता है कि जीव भगवान की भक्ति से भगवत- स्वरुप बन सकता है . नारद जी के अनुसार भगवान को समर्पित करने से कर्मों का कर्मपन्ना ही नष्ट हो जाता है.  “भगवान कृष्ण ने मुझे आत्मज्ञान ,ऐश्वर्या और अपनी भाव रूपा प्रेमा  भक्ति का दान किया. ’’-- 1.5.39.
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                                      नर नारायण
नर और नारायण राजा धर्म की और उनकी पत्नी मूर्ति के जुड़वा पुत्र हैं. हरि के यह अंश अवतार माने जाते हैं. इन्होंने बद्रीकाश्रम में घोर तपस्या की. इनके तेज से, देवी भागवत में प्रसंग आता है,[इस पुराण की  घटनाएं सारस्वत कल्प की है] संसार तपने लगा. स्वर्ग का राजा इंद्र डर गया. तपस्या डिगाने  के लिए उसने बहुत कोशिश की, हिंसक पशु भेजें, आंधी, आग ,वर्षा भेजी, कामदेव और अप्सराओं को भेजा; परंतु यह अपनी तपस्या से  विचलित नहीं हुए. मेनका, रंभा आदि 16050  अप्सराएं कुछ ना कर सकीं। उल्टे नारायण ने हीं अपने उरु से  उर्वशी प्रकट करी , और जितनी अप्सराएं  थी उतनी अप्सराएं और  बना दी. परंतु ना तो नर नारायण को क्रोध आया और ना ही काम जागृत हुआ. शिवजी ने काम पर तो विजय पा ली थी परंतु क्रोध पर विजय नहीं पा पाए थे, इसलिए उन्होंने कामदेव को जलाकर भस्म किया था. कथा यूं है की नारायण को इंद्र पर क्रोध आने ही वाला था कि  नर ने उन्हें सावधान कर दिया. नर  ने  उन्हें याद दिलाया कि क्रोध के कारणनारायण को  प्रहलाद से देवताओं के हजार वर्ष तक युद्ध  करना पड़ा था और विष्णु भगवान के आने पर समाप्त हुआ था. भगवान ने प्रहलाद को समझाया कि नर नारायण के अवतार हैं और प्रह्लाद इन पर  विजय नहीं प्राप्त कर सकते.पूर्व प्रसंग  नर द्वारा  समझाने पर नारायण ने अपने क्रोध पर भी काबू पा लिया. इस प्रकार इंद्र इनकी तपस्या भंग  नहीं कर सका. लगभग ऐसा ही वर्णन भागवत में भी मिलता है इंद्र तपस्या भंग नहीं कर सका ,अत्यंत भयभीत और चकित हो गया...11.4. 6-16.……..(क्रमशः)

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