सृष्टि: नीड का निर्माण फिर फिर नेह का आह्वान फिर फिर: भाग1

        
 सृष्टि होती है. उसके बाद  सृष्टि का अंत हो जाता है,  प्रलय हो जाती है. प्रलय के बाद पहले की भांति  फिर सृष्टि होती है…. फिर प्रलय हो जाती है….  फिर सृष्टि और यह सिलसिला चल ही रहा है. समाप्त नहीं होगा।  कब प्रारंभ हुआ यह भी कोई नहीं जानता। कब से है? यह तब से है जब से कब से नहीं था अर्थात अनादि और अनंत है.ऐसा मत हिंदू धर्म में मिलता है या यूं कहें कि सनातन धर्म में मिलता है. यह वेदों, पुराणों और दर्शन,सांख्य  शास्त्र, पर आधारित है. बाइबिल में ऐसा  नहीं है. अभी जो संसार दिखता है वह पहली बार बना है. इसे भगवान ने छः  दिनों  में बनाया और सातवें दिन विश्राम किया। एक दिन बाइबिल में  2Peter  3/8  के अनुसार मनुष्य के 1000 साल के बराबर होता है. जबकि क़ुरान  Quraan  70/4 में  एक दिन 50000 साल के बराबर बताया गया है.वैज्ञानिक कार्ल सीगन ने  अपनी किताब cosmos कॉसमॉस(1985) पेज 258 पर लिखा है कि केवल हिंदू धर्म ही  बताता है कि ब्रह्माण्ड  बार-बार पैदा होता है और बार-बार समाप्त हो जाता है ,हिंदुओं की काल गणना को भीबिग बैंग’  के समीप माना है.   ब्रह्मा जी का एक दिन और  रात मनुष्यों के 8. 64 बिलियन साल बराबर होता है.बाइबल के अनुसार इस संसार की पहली ही बार रचना हुई है और जब यह समाप्त होगा तो हमेशा  के लिए समाप्त हो जाएगा। कुरान भी संसार का समाप्त होना बताती है, परंतु समाप्ति के बाद एक नया संसार बनेगा जो सदा  रहेगा. दोबारा प्रलय नहीं बताई गई है l

प्रलय  को समझने के लिए सृष्टि को समझना आवश्यक है. महाप्रलय(जो कल्प प्रलय से भिन्न है )  के समय कोई हलचल नहीं होती है.सब  कुछ बिना हलचल के और शांत होता है.भौतिक शक्ति सोई हुई थी ,केवल भगवान की अन्तरंगा शक्ति ही व्यक्त थी . भगवान ही दृष्टा थे ,कोइ दृश्य नहीं था. भगवान अपने को असत्य समझने लगे. वे असत्य नहीं हैं ,सोई हुईं शक्तियों,जीवो और स्वांशो  के कारण ऐसा समझा. सृष्टि के आभाव में वे अपने को अधूरा मान रहे थे। .   ऋग्वेद10.129,श्रीमद्भागवत,श्रीमद् भगवतगीता और सांख्यदर्शन के अनुसार भगवान संकल्प करते हैं कि वह अनेक हो जाएं. इस संकल्प से प्रकृति में , जोकि एकदम  निश्चल स्थिति  में होती है ,भगवान की काल शक्ति से  हलचल आरम्भ होती है.भगवान की स्वभाव शक्ति तीनों गुणों को परिवर्तित करती  है और कर्म महत्तत्व को जन्म देता  है. भगवान के एक से अनेक होने के संकल्प को   आदि कर्म कहा है. कर्म की परंपरा का इससे आरंभ हुआ है.इसे विश्राम का त्याग भी बताते हैं.....8/3गीता . इसे कहते हैं कि भगवान ने  बीज प्रकृति के गर्भ में स्थापित किया. इस कर्म से ही  महतत्व पैदा होता है. महा -प्रलय के पश्चात  सृष्टि में सबसे पहला  पदार्थ जो प्रकट होता है वह  महतत्व है.यह परमपुरुष की परम चेतना से जुड़ा हुआ है , उसकी छाया या प्रतिबिम्ब है ,पर भौतिक पदार्थ सा प्रतीत होता है . रजोगुण के कारण इसमें क्रियाशीलता है .  महतत्व से अहम्कार पैदा होता है.अहम्कार --सात्विक,राजसिक व् तामसिक -- से मन ,पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्म-इन्द्रियाँ  प्रकट होती हैं, इसी से पांच तन्मात्राएं और इन पांच  तन्मात्राओं से पांच महाभूत--- आकाश ,वायु, अग्नि, जल और धरती प्रकट होते हैं. सृष्टि में प्रकृति के अलावा काल,स्वभाव  और जीव भी रहते हैं.भागवतानुसार यह सब निष्क्रीय रहते हैं. भगवान अपनी कालशक्ति  सहित इनमें प्रवेश करते हैं तो इनमें चेतना आती है. यह विराट पुरुष है ,जो कि आदि अवतार ,प्रथम  जीव , समस्त जीवों की आत्मा और परमात्मा का अंश है -- 3/6/1-8. इसमें ही समस्त लोक हैं . और अर्जुन को दिखाया गया विराट रूप कृष्ण के छोटे से अंश में स्थित है --गीता 10/ 42.  इससे भगवान कृष्ण  की विशालता -अनन्ता पर ध्यान जाता है .  परमहंसों में प्रधान श्री सांख्यायन जी से गुरु परम्परा से आदिपुराण, जो कल्प प्रलय के पश्चात की रचना समझता है , पारासर जी वृहस्पति के पास आया फिर पुलस्त्य मुनि की सिफ़ारिश पर मैत्रय जी को  मिला--3/8/10-17.इसके अनुसार भगवान नारायण एक सहस्त्र चतुर्युगी के पश्चात जब जागते हैं तब उनकी नाभि से सृष्टि की रचना हेतु एक सूक्ष्म तत्त्व प्रकट होता है जिसमें  वे अन्तर्यामी के रूप में प्रवेश करते हैं. उससे ब्रह्माजी प्रकट होते हैं जो आगे संसार की रचना करते हैं (यह ब्रह्माजी के प्रसंग में कुछ विस्तार से  बताया गया है). महा प्रलय के समय,कल्प प्रलय से भिन्न , एक भगवान --मूलतत्त्व -- के आलावा कुछ भी नहीं होता, नारायण भी नहीं . .   सृष्टि की रचना करना,जो भगवान अपनी गुणमयी माया से अपनी अध्यक्षता में  करवाते हैं,  वास्तव में भगवान की कृपा है. जीव को मानव शरीर देकर अवसर दिया जाता है कि वह भगवत्प्राप्ति/ मोक्ष प्राप्ति कर ले और अनंत आनंद प्राप्त कर लें.पुनः प्रेम करने हेतु नया नीड़/शरीर  दिया जाता है--नीड का निर्माण फिर फिर,नेह का आह्वान फिर फिर .
इस संसार को भागवत सनातन वृक्ष बताती है . आश्रय एक है ,प्रकृति . दो फल --सुख दुःख;तीन जड़ें --सत्व ,रज,तम ;चार रस --अर्थ,धर्म,काम,मोक्ष . श्रोत्र ,त्वचा ,नेत्र ,रसना नासिका से इसे जाना जाता है . पैदा होना ,रहना,बढ़ना,बदलना,घटना और नष्ट होना इसका स्वभाव है. आठ शाखाएं है --मन,बुद्धि ,अहंकार पांच महाभूत. नौ द्वार हैं ,मुख आदि ;दस प्राण हैं ,उदान ,अपानादि . इसमें ईश्वर व् जीव दो पक्षी रहते हैं . सबका एक मात्र आधार भगवान हैं --प्रलय,उत्तपत्ति,रक्षा--10/2/27-28 .     
भागवत ने चार प्रकार की प्रलय  बताई  है:नैमित्तिक ,प्राकृतिक ,आत्यंतिक और  नित्य.
ब्रह्मा जी अपना एक दिन बिताने के बाद शयन करते हैं. यही नैमित्तिक प्रलय है.  ब्रहमा जी का एक दिन 1000 चतुर्युगी के बराबर होता है.   कलि युग 432000 वर्ष का होता है, इससे दो गुना द्वापर , तीन गुना त्रेता ,चार गुना सतयुग।  चारों युग मिलाकर  43 लाख 20 हज़ार  वर्ष के होते हैं.ब्रह्मा का दिन 4 अरब 32 करोड़ वर्ष का हुआ.यह एक कल्प कहलाता है. इतनी बड़ी  ही उनकी रात होती है जिसमें वह सोते हैं.ब्रह्मा जी की रात्रि हमारे लिए प्रलय है. रात के बाद दिन में पुनः सृष्टि होती है; सृष्टि के बाद पुनः  रात होती है अर्थात प्रलय होती है  और यह सिलसिला चलता रहता है. अपने मान  से  100 वर्ष पूरे कर के ब्रह्माजी भी समाप्त हो जाते हैं. इसे प्राकृतिक प्रलय या महाप्रलय  कहते हैं. ब्रह्माजी के 1 वर्ष में  360 दिन और इतनी ही रातें होती हैं.हर कल्प के बाद नैमित्तिक प्रलय होती है . ब्रह्मा जी के 100वर्ष के पश्चात प्राकृतिक प्रलय होती है. इस प्रलय में सारा संसार अपने कारण में घुल मिल जाता है ,लय हो जाता है.प्राकृत सृष्टि भी नहीं रहती .  कल्प प्रलय में चराचर प्राणी समाप्त हो जाते हैं, प्राकृत सृष्टि वैसी -की -वैसी रहती है --2 /10 /46  .कल्प प्रलय में  तीनों लोक ब्रह्माजी में छिप जाते हैं . महर्लोक के वासी ताप से पीड़ित होकर जनलोक चले जाते हैं ,जल के भीतर शेषशायी भगवान शयन करते हैं --3/11/27-31.   संसार का महा प्रलय/प्राकृत प्रलय  संसार की सृष्टि के विपरीत क्रम  से होता  है. जो सबसे बाद में उत्पन्न होता है वह सबसे पहले समाप्त होता है. अर्थात पंचमहाभूत सबसे पहले समाप्त होते हैं, और  महतत्व  सब के पश्चात. इस प्रलय में भयंकर उत्तल पुथल होती है. ऐसी उथल-पुथल का वर्णन बाइबिल और कुरान में भी है--- 2Peter3/10, Genisis7 , Quraan69/13-16 . प्रलय  का समय आने पर 100 वर्षों तक बारिश नहीं होती.  खाने के पदार्थ अंन आदि उत्पन्न नहीं  होते.प्रजा क्षीण हो कर समाप्त हो जाती है. सारा जल सूर्य सोख लेता है; परंतु वर्षा नहीं होती. सब ओर से ब्रह्मांड जलने लगता है. गोबर के  पिंड की तरह जलता हुआ प्रतीत होता है. प्रलयकालीन अग्नि का नाम है सावर्त्तक अग्नि. प्रचंड  वायु  सैकड़ों वर्षो तक चलती है. फिर भयंकर बारिश आती है.सारा संसार समुद्र ही हो जाता है.  धरती तत्व को जल तत्त्व ग्रस लेता है ,जल को तेज,तेज हो वायु, और  वायु को आकाश. यह सब अहंकार में समा जाते हैं. और अहंकार महतत्व में.  महतत्व को प्रकृति के गुण ग्रस लेते हैं. काल का भी कोई विकार नहीं होता.इस अव्यक्त को जगत का मूलभूत तत्व कहते हैं. इस अवस्था का नाम प्राकृत प्रलय  है. प्रकृति और पुरुष की शक्तियां काल के प्रभाव से  क्षीण हो जाती हैं और अपने मूल स्वरूप में लीन हो जाती है. इस अवस्था को तर्क से नहीं जाना जा सकता. इस अवस्था में कोई भी हलचल नहीं है--12/4/22. योगेश्वर अंतरिक्ष ने  राजा निमि को   समझाया है कि व्यक्त का अव्यक्त होना प्रलय है ;इसका विपरीत क्रम सृष्टि है और   भगवान की माया है यह सब-- 11/3/8-15.
 प्राकृतिक प्रलय में अपनी शक्तियों को समेट कर सोए हुए भगवान को प्रलय के अंत मेंश्रुतियां जगाती हैं भगवान का प्रतिपादन करने वाले वचनों से--10/87/12-13 ....(क्रमशः)


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