शाप और वरदान


भागवत में शाप और वरदान :  

 शाप  पहले लिखा है और वरदान बाद में . कारण यदि राजा परीक्षित को शमीक ऋषि के  पुत्र  श्रृंगी ने शाप   नहीं दिया होता तो  संभवत:  परमहंस श्री  शुकदेव जी राजा परीक्षित को सप्ताह विधि से भागवत नहीं सुनाते.शाप किसी के अमंगल के लिए उसे नीचे गिराने के लिए दिया जाता है. वरदान किसी के मंगल के लिए और उसे ऊपर उठाने के लिए प्रयोग में लाया जाता है. दोनों के पीछे विज्ञान एक ही --संकल्प शक्ति और वाक् शक्ति. यह श्री  कृष्ण ने  उधव  को समझाया है. ‘‘ जिसने मेरे सत्य संकल्प स्वरूप में अपना  चित् स्थिर कर लिया है वह जैसा संकल्प करता है उसका संकल्प सिद्ध हो जाता है-- ’’11.15.26 . इस के लिए यह जानना आवश्यक है कि भगवान सत्य संकल्प है, मैं भगवान का अंश होने के कारण सत्य  संकल्प हूं. मैं जो संकल्प कर रहा हूं वह पूरा होगा.यही नियम ओल्ड टेस्टामेंट old testament और न्यू टेस्टामेंट new testament  में भी दिया  गया है.इसकी चर्चा हम प्रार्थना संबंधी अंग्रेजी के लेख में कर चुके हैं,  साइट www. primelements .com  पर. ‘तुम जो आदेश दोगे वह पूरा होगा’. . जॉब Job  22 . 28 .  एक बार यीशु अपने साथियों के साथ कहीं जा रहे थे. रास्ते में उन्हें अंजीर( fig )खाने की इच्छा हुई, परंतु पेड़ पर कोई फल नहीं था, यीशु ने उसे शाप  दिया कि   तेरे से  कभी कोई फल ना खाय.अगले दिन  वापस लौट कर रहे थे जब देखा कि पेड़ सूख चुका था. अपने चेलों को यीशु ने बताया कि इस के पीछे विज्ञान क्या है. “ईश्वर में विश्वास रखो.. मैं तुमसे सत्य कहता हूं यदि तुम पहाड़ को कहो कि  समुद्र में जाकर गिर जाए और अपने मन में कोई संदेह  ना रखो तो ऐसा ही होगा, तुम  जो कहोगे  वैसा ही हो जाएगा. ’’--- मार्क Mark  11.22-24. यही बात मैथ्यू Matthew 21.21,22 में  भी है. “ अगर तुम्हें विश्वास है और तुम संदेह नहीं करते हो  तो तुम ऐसा ही कर सकते हो जैसा अंजीर वृक्ष   के साथ हुआ है ,इसके अलावा यदि तुम पहाड़ से कहो कहो कि समुद्र में जाकर गिर जाए तो ऐसा ही होगा.’’ बाइबिल में ही जेनेसिस  27 वें चैप्टर मे शाप और आशीर्वाद का प्रसंग मिलता है. अपने पिताजी से छल दवारा जैकब Jacob ने आशीर्वाद प्राप्त किया जो वास्तव में पिता आइज़क   [issac]   अपने दूसरे पुत्र  एसयू [Esau]   को देना चाहता था. आशीर्वाद का महत्व इसी से जान लेना चाहिए कि जब पिता  को पता लगा कि उसने गलत पुत्र को आशीर्वाद दे दिया है तो वह कांप उठा. आशीर्वाद देकर वापस नहीं लिया जा सकता. ऐसा बाइबिल  से भी  प्रतीत होता है.

शाप देने की शक्ति आती है  तपस्या ,मंत्र आदि से, धर्म पर चलने से, सत्यवादिता से, भक्ति से  योग से अथवा भगवान या महापुरुष द्वारा दिए गए वरदान से.किसी को भी शाप  देने से तपस्या का श्रय होता है. श्री कृष्ण जब महाभारत युद्ध के पश्चात द्वारिका जा रहे थे तब रास्ते में उन्हें उतंग मिले जो उन्हें शाप देने पर उतारु हो गए, यह कहकर कि उन्होंने महाभारत के  युद्ध को रोका नहीं. कृष्णा ने  उन्हें समझाया कि कोई भी पुरुष थोड़ी सी तपस्या के बल पर श्रीकृष्ण का तिरस्कार नहीं कर सकता, वह नहीं चाहते कि उतंग  की तपस्या का नाश हो उन्हें शाप देने से...महाभारत आश्वमेधिक 53.23-26.यही सिद्धांत भगवान के भक्तों पर भी लागू होना मानना चाहिए . इसका वर्णन इस लेखक के अंग्रेजी लेख दुर्वासा से संबंधितआई ईट  ग्रास ओन्ली ’’ में है जो  साइट www .primelements .com पर है.दुर्वासा जी द्वारा प्रकट की गई  कृत्या अमरीश का कुछ नहीं बिगाड़ सकी, चक्र द्वारा मार दी गई और दुर्वासा जी के पीछे सुदर्शन चक्र, जो भगवान के भक्तों की रक्षा करता है, लग गया.  इससे यह निष्कर्ष निकलता  है कि भगवान उनके अनन्य भक्तों  पर शाप  नहीं लग सकता.  यही बात भगवत- प्राप्त महापुरुषों पर भी लागू है. परंतु ऐसा देखा गया है कि लीला में भगवान भी शाप  स्वीकार कर लेते हैं, यह स्वेच्छा से करते हैं. कोई उनकी इच्छा के विरुद्ध  उन्हें शाप  नहीं दे सकता.महापुरुषों की शक्ति वरदान आशीर्वाद और शाप देने से घटती नहीं है. महापुरुष तो एक तरह से भगवान के जैसे ही होते हैं. उन्हें भगवान की समस्त शक्तियां समस्त ऐश्वर्य प्राप्त होता है, अलावा सृष्टि, सृष्टि का पालन और प्रलय के. रही बात भगवान की तो उनकी शक्तियां अनंत हैं और कभी कम हो ही नहीं सकती.और  तपस्वियों की शक्ति जैसे ऊपर बताया गया है शाप या वरदान देने से घटती है.

कुछ ऐसे शाप, जिनका भागवत में वर्णन है, पर हम चर्चा करेंगे.जय विजय को सनकादिक कुमार द्वारा दिए गए शाप  की चर्चा हम वराह अवतार की कथा में पूर्व में  कर चुके हैं. नारद जी को दिए गए शाप  की भी चर्चा नारद अवतार के प्रसंग में की जा चुकी है.इन दोनों में ही हमने देखा है कि शाप  या तो किसी लीला का हिस्सा होता  हैं, या जिस  व्यक्ति को दिया जाए उस के भले के लिए होता है. जय विजय  को जो शाप मिला, उससे वह लोग तीन जन्मो  तक असुर  योनि में उत्पन्न हुए, एकाग्रचित होकर भगवान से वैर  रखा--- हिरण्याक्ष-हिरण्यकश्यपु, रावण-कुँभकरण ,शिशुपाल-दन्तवक्त्र बनकर , जिस कारण  उन्हें भगवान की ही प्राप्ति हुई. इसलिए यह मानना उचित है कि इन्हें शाप इसलिए दिया गया था कि हम सीख सकें कि भगवान में किसी भी भाव से मन लगाकर हम भगवान को प्राप्त कर सकते हैं अर्थात वैर भाव से भी भगवान मिल सकते हैं .इसी प्रकार नारद जी को भी शाप उनके भले के लिए ही दिया गया.  वह दासीपुत्र हुए, उन्हें संतो का संग मिला, संतो की जूठन खाई   संतो की आज्ञा लेकर , जिससे उन  का अंतःकरण शुद्ध हो गया. उन्हें भगवान के दर्शन हुए. भगवान की साधना की और अंत में भगवान के पार्षद बन गए. यदि शाप  ना दिया जाता तो बहुत लंबे समय तक गंधर्व रहते हैं.गंधर्वों की, देवताओं की पितरों की आयु हम मनुष्यों से बहुत ज्यादा होती है. अगले जन्म में ना जाने क्या योनि मिलती, मनुष्य योनि आवश्यक नहीं थी. इस प्रकार  उन्हें भगवत प्राप्ति में देरी हो जाती.शाप ने इस देरी को कम कर दिया. नारद् जी को शॉप  देवताओं ने भगवत प्रेरणा से नारद जी के उत्थान के लिए ही दिया.इसी प्रकार कृष्ण अवतार में भगवान ने शकटासुर का उद्धार किया जो कि उत्कच  था.   उस के पिता का नाम  हिरण्याक्ष था,और लोमश ऋषि के शाप वश  बिना शरीर का हो गया था--10.7.6-7.अन्य शापित व्यक्तियों का भी श्रीकृष्ण ने उद्धार किया जैसे अशोक  वृक्ष के रूप में नल कूबर - मणिग्रीव, अजगर के रूप में विद्याधर, गिरगिट के रुप में राजा नृग  और सबसे बड़ा उदाहरण है कि खुद यदुवंश को ऋषि का शाप जिससे वह नष्ट हो गया. वरदान के कुछ उधारण है मार्कंडेय ऋषि जिन्होंने प्रलय देखी भगवान की माया को देखा, ध्रुव जिन्हें  अचल पद मिला और प्रहलाद जिन्हें  ना मांगने पर भी भगवान ने वरदान दिया और एक पूरे मन्वंतर तक धरती का एकछत्र निष्कंटक राज दिया.
  शाप   कैसे दिया जाता है
शमीक मुनि के पुत्र बालक श्रृंगी ने कहा, “  मेरा तपोबल देखो. ’’ उसने कौशिकी नदी के जल से  आचमन  किया और कहा,  परीक्षित को आज के सातवे  दिन तक्षक सर्प डस  लेगा क्योंकि उन्होंने मेरे पिता का अपमान करके मर्यादा का उल्लंघन किया है, यह मेरी प्रेरणा से होगा. ’’  ऐसा बालक ने इसलिए किया क्यों कि राजा ने उसके पिता के गले में मरा हुआ सांप डाल दिया था.. 1.18.32-38. यह प्रसंग ध्यान से पढ़ने पर प्रतीत होता है कि तपस्या के बल पर ही बालक तक्षक को राजा को डसने के लिए प्रेरित कर सका. और गौर से देखा जाए तो ऐसा  प्रतीत होता है कि भगवान का ही कोई बड़ा विधान  था .राजा परीक्षित ,जो महापुरुष थे, ने इसे भगवान का प्रसाद समझा कि बहुत दिनों से वह संसार में आसक्त हो रहे थे और उन्हें अब वैराग्य का कारण मिल गया है , आमरण अनशन का व्रत लेकर वे गंगा तट पर बैठ गए.. 1.19.4,5. आगे की कथा हम सभी जानते हैं. शुकदेव जी आए और उन्होंने सप्ताह भर राजा को भागवत सुनाई जिससे राजा आत्मा और ब्रह्म  की एकरूपता की स्थिति में स्थित हो गए ब्रहमस्वरूप हो गए और उनकी मुक्ति हो गई, आवागमन से. यह राजा के भले के लिए ही हुआ, और साथ में जगत का भला भी हुआ,  भागवत श्रवण से सबके लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया.
दुर्वासा का पीछा सुदर्शन   चक्र से राजा अमरीश ने इस तरह छुड़वाया:  “ यदि मैंने  कुछ भी दान किया हो, यज्ञ किया हो, धर्म का पालन किया हो, ब्राह्मणों का सम्मान किया हो तो दुर्वासा की जलन मिट जाए .मैंने भगवान को सब प्राणियों की आत्मा में देखा हो और भगवान मुझ पर प्रसन्न हो तो दुर्वासा जी के हृदय की सारी जलन मिट जाए.’’--9.5.10-11.और ऐसा हो गया. दूसरा उदाहरण है भगवान श्री कृष्ण द्वारा उत्तरा के गर्भ को अर्थात परीक्षित को जीवित कर देने का जो कि अश्वत्थामा  के ब्रह्मास्त्र से मर चुका था. भगवान ने कहामैंने खेल खेल- कूद में भी कभी मिथ्या भाषण नहीं किया है और युद्ध में कभी पीठ नहीं दिखाई है. इस शक्ति के प्रभाव से अभिमन्यु का यह बालक जीवित हो जाए. यदि धर्म, ब्राह्मण मुझे विशेष प्रिय हो तो अभिमन्यु का यह पुत्र जो पैदा होते ही मर गया था, फिर जीवित हो जाए. मैंने कभी अर्जुन से विरोध किया हो इसका स्मरण नहीं है, इस सत्य के प्रभाव से यह मरा हुआ बालक जीवित हो जाए. यदि मुझ में सत्य, धर्म की निरंतर स्थिति बनी रहती हो तो अभिमन्यु का मरा हुआ बालक जी उठे. यदि मैंने कंस और केशी का धर्म के अनुसार वध   किया है तो इस सच के प्रभाव से बालक पुनः  जीवित हो जाए. ’’--- महाभारत आश्व्मेधिक  69.18-24.इसी प्रकार माता सीता ने हनुमान जी की पूंछ में लगी हुई आग को शीतल करने के लिए स्वयं के श्री राम के प्रति प्रेम और पति व्रत धर्म की दुहाई दी थी, ऐसा वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड में वर्णित है.
यदि कोई ऊपर बताए हुए शर्तें पूरी कर दे तो उसका  दिया हुआ वरदान आशीर्वाद यहां तक कि शाप भी सत्य हो सकता है.सबसे पहली और बाहरी शर्त है शुद्धता, आचमन करना  अंतःकरण. को शुद्ध करने का वाचक है . आचमन कृष्ण ने किया और आचमन श्रृंगी ऋषि ने किया.(बाय बिल में  शुद्धि करण  की शर्त नहीं है, केवल यह विश्वास ही पर्याप्त है कि मेरा वचन खाली नहीं जाएगा ,जो मैं कह रहा हूं होकर रहेगा)बाकी की शर्ते हैं धर्म पर चलना,  यज्ञ, सत्य भाषण, समस्त प्राणियों को भगवान का ही रूप मानना आदि.वेदों में और भागवत के माहत्म्य   में ऐसा वर्णन आता है कि शुकदेव जी को जब वापस बुलाने के लिए उनके पिता व्यास जी ने  पुकाराबेटा बेटा’’ तो सुखदेव जी की ओर से वृक्षों ने उत्तर दिया . इसका कारण यह था कि समस्त भूतों से सुखदेव जी का एक आत्मा, एक स्वरुप हो जाना-- सुखदेव रहस्य उपनिषद. कोई यदि इस स्थिति में हो तो उसका वचन हर भूत को मानना पड़ता है .  ऐसा प्राणी वास्तव में भगवान से एकत्व  प्राप्त कर चुका होता है और उसका वचन देखा जाए तो वास्तव में भगवान का वचन और भगवान की इच्छा होती है।  और सबसे बड़ी बात विश्वास हो कि मेरा वचन खाली नहीं जाएगा परम सत्ता इसे पूरा करेगी .


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