सत्संग


                     
सत्संग की तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती. प्रेमी भक्तों के साथ लवलेश मात्र के सत्संग से स्वर्ग एवं मोक्ष की तुलना नहीं की जा सकती, भोग  की तो बात ही क्या1/18/13.तुलना तो तब की जा सकती है जब कोई समानता हो आपस में. भक्त लोग स्वर्ग के भोगों को, इस लोक की समस्त सामग्री  को और मोक्ष को  भगवत प्रेम के आगे कुछ भी नहीं मानते.श्री कृष्ण उद्धव को समझाते हैं कि संसार सागर को पार करने के सत्संग और भक्ति के अलावा कोई उपाय नहीं है --11/11/47.गोपनीय बात खोलते हुए श्री कृष्ण उद्धव  से कहते हैं  कि  सत्संग जिस प्रकार कृष्ण को वश में कर लेता है ऐसा और कोई साधन नहीं--योग, तप,  दान, स्वाध्याय,कोई भी सत्संग जैसा सक्षम नहीं भगवान से प्रेम कराने में.सत्संग के प्रभाव से ही पशु,पक्षी ,राक्षस, वैश्य, शूद्र, स्त्री आदि ने भगवान को प्राप्त किया है. कृष्ण स्वयं  सुग्रीव ,हनुमान, विभीषण, कुब्जा बृज की गोपियां, यज्ञपत्नियां, बाणासुर, बलि ,जटायु आदि के संबंध में बताते हैं. इन्होंने ना तो वेदों का अध्ययन किया ना ही कोई तप  दान आदि ही  किया, केवल सत्संग के बल पर ही भगवान को प्राप्त कर लिया. प्रेमपूर्ण भाव से भगवान की प्राप्ति होती है--11/12/1-13 .
सत्संग का सामान्य अर्थ आजकल माना जाता है कि भक्त लोग एक स्थान पर  एकत्रित होकर भगवान की  लीलाओ ,नाम, गुण आदि के संबंध में सुनते हैं. इनमें एक वक्ता होता है बाकी श्रोता होते हैं. या भगवान के भक्त एक जगह एकत्रित होकर भगवान के नाम का कीर्तन करते हैं. सत् उसे कहते हैं जो  नित्य हो. जो था, है और आगे भी रहेगा.जिसका कभी आभाव नहीं हो सकता --श्रीमद् भगवद गीता /16.  इस प्रकार सत् परमात्मा का सूचक है.संग का अर्थ है साथ साथ रहना, सानिध्य में रहना, या सामीप्य.  सत्संग का अर्थ हुआ परमात्मा के समीप रहना, दूसरे  शब्दों में परमात्मा का स्मरण करना, उनकी लीलाओं का श्रवण करना और कीर्तन करना. वास्तविक सत्संग तो हुआ संतो के समीप रहना. संतो से मतलब है ऐसे महापुरुष जिन्होंने भगवान को प्राप्त कर लिया है और जिनका संसार में कोई राग-द्वेष नहीं है.ऐसे व्यक्तियों की संगति में बिताया हुए  एक क्षण की तुलना स्वर्ग से, मोक्ष से और संसार के भोगों से नहीं की जा सकती.प्रारंभ में हमने जो  कहा उसका मतलब यही समझना चाहिए.
जैसे चुंबक के पास जाने से लोहे में चुंबक के गुण जाते हैं ऐसे ही संत की संगति में जाने से संत के गुण हम में  स्वाभाविक रूप से जाते हैं. चेतन महाप्रभु के  एक चेले थे हरिदास जी. उन्हें लोगों ने बदनाम करने की साजिश रची और एक वैश्या को उनके पास भेजा. वैश्या के रूप का हरिदास जी पर कोई असर नहीं हुआ.तीन  दिन तक वैश्या  ने  प्रयत्न किए परंतु निष्फल रही. और उनके सानिध्य के कारण तथा भगवान के नाम के श्रवण से वैश्या में भी भगवान के प्रति प्रेम जाग उठा. अंत में वह भी संत ही बन गई. कुछ इसी प्रकार का नारद जी के साथ भी हुआ. पिछले  कल्प(पाद्म कल्प  ) में नारदजी दासी पुत्र थे, महात्माओं की संगत में रहने से और साधुओं की उच्छिष्ट खाने से उनमें भगवान के प्रति भक्ति भाव जागा. सत्संग के प्रभाव से ही  प्रहलाद भगवान के बहुत बड़े भक्त हुए-- नारदजी  जब उनकी माता को उपदेश देते थे तब गर्भ में स्थित बालक प्रहलाद उनका उपदेश सुनता  था और पैदा होने पर बातें याद रहने पर  भगवान का भक्त हुआ. इसी कारण से नारद जी ने अपने भक्ति सूत्र में  साधु संग पर विशेष जोर दिया है--सूत्र 42.  वृत्तासुर अपने पूर्व जन्म में राजा चित्रकेतु था. उसे नारदजी और अंगिरा मुनि की  संगत प्राप्त हुई जिससे  असुर योनि मिलने पर भी उसमें तत्वज्ञान रहा भगवान के प्रति भक्ति भी रही( यह सब हम भक्त वृत्तासुर के वृत्तांत में बता आए हैं ). हाथी गजेंद्र ने पूर्व जन्म में भक्तों की संगति की थी जिस कारण से उसे हाथी का शरीर मिलने पर भी भगवान की भक्ति याद रही और भगवान द्वारा उसका उद्धार हुआ.
सत्संग से ऐसा क्यों होता है? इसका उत्तर श्री कृष्ण स्वयं ने  भागवत में दिया है. ‘‘ महात्माओं के संग से मेरी कथाएं सुनने को मिलती है जिससे मोक्ष मार्ग में शीघृ श्रद्धा,भक्तिऔर प्रीतिउत्पंन होतीहै.’’---3/25/25 भगवान को सही ढंग से वह लोग ही जानते हैं जो उनके  शुद्ध भक्त हैं अर्थात  जिन्होंने भगवान की प्राप्ति कर ली है. ऐसे भक्त हमें   भगवान की सही जानकारी दे सकते हैं,  भौतिकवादी नहीं . भौतिकवादी तो भगवान को भी साधारण इंसान ही मानते हैं और हमें भी वह गुमराह करेंगे .इसलिए यदि भगवान को जानना है, समझना है तो भौतिकवादियों की संगत नहीं करनी है. भगवान का सही रूप जानने के लिए तो भगवान के भक्तों की ही संगत करनी है. यही हमें भगवान की लीलाओं का सही अर्थ समझा सकते हैं. राम ने सीता का त्याग क्यों किया, इसका सही मतलब भगवान का शुद्ध  भक्त ही  हमें समझा सकता है. कृष्ण ने बहुत बड़ी संख्या में शादियां क्यों की, यह भी हमें कोई भौतिकवादी नहीं समझा सकता बल्कि भगवान का भक्त ही बता सकता है. भगवान की लीलाओं का सही अर्थ समझ कर हमें भगवान के वास्तविक रूप का ज्ञान , तत्वज्ञान, हो जाता है. ऐसा ज्ञान होने से भगवान में  प्रीति  बढ़ती है और भक्ति उदय होती है,  भगवान को प्राप्त करने की इच्छा जागृत हो जाती है .और फिर हम भगवत- प्राप्ति की ओर अग्रसर होते हैं. प्रभुपाद जी ने तो यहां तक कहा है कि  भक्तों की संगति वास्तव में भगवान की संगति है. जो भगवान के भक्तों की संगति करता है उसमें भगवान की सेवा करने की चेतना जगती है और फिर भक्ति योग के दिव्य पद में स्थित होकर वह धीरे-धीरे सिद्ध हो जाता है.
जहां लोग इकट्ठे होकर उनका कीर्तन करते हैं वहां भगवान स्वयं रहते हैं….आदि पु० 19 /35 .  यह बात सनातन धर्म ही नहीं मानता बल्कि अन्य धर्म भी मानते हैं.बाईबिल भी कहती है ,‘’फॉर वेयर ट्वॉ और थ्री आर गैदरद इन माय नेम ,आई एम देयर इन मिड्स्ट ऑफ दैम. ‘’--मैथउ०18 /20 .अर्थात जहां पर मेरे लिए दो या तीन लोग इखट्टे होते हैं, उनके बीच में मैं होता हूं.सरल भाषा में हम कह सकते हैं कि जहां भगवान का नाम लिया जाता है वहां भगवान होते हैं.सत्संग के पीछे वही गीता वाला सिद्धांत है जिसे कृष्ण ने अर्जुन को दो बार समझाया है, “तू मेरा भक्त हो जा, मुझ में मन वाला हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा, और मुझे नमस्कार कर. ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जाएगा-- यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूं क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है. ‘’---18 /65 ,9 /34 .इस प्रकार सत्संग का अर्थ ही है भगवान में मन लगाना, चाहें उनके नाम का जप करना, चाहे उनकी लीला कथाएं सुनना और सुनाना, या और किसी रीति से भगवान का स्मरण करना.चेतन महाप्रभु ने कीर्त्तन को सबसे उत्तम माना है ,इसमें श्रवण सुमिरण भी समाये हुए हैं.पहले सुमिरण करेगा फिर ही तो बोल सकेगा और जो बोलेगा सो सुनेगा ही.   
अब प्रश्न उठता है संग किसका करें? उत्तर श्री कृष्ण ने गीता के 12वें अध्याय में 13 से 20 श्लोक तक  दिया है. हमें उसका संग  करना चाहिए जो संसार से विरक्त हो और जिसकी आसक्ति केवल भगवान में हो.  जो संसार की किसी भी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति की कामना ना करता हो. उसमें  केवल भगवत्प्राप्ति की  ही  कामना हो.जो किसी प्राणी से द्वेष नहीं रखता करता हो , सब के साथ मित्रता का व्यवहार करता है, जो पक्षपात रहित है, जो हर परिस्थिति, सुख या दुख ,हानि या लाभ, जय और पराजय में सम रहता हो---- भगवान में पूर्ण श्रद्धा रखता  हो, और जो केवल परमात्मा के ही परायण है.

 संग किसका ना करें इस पर भी विचार करना आवश्यक है.हमें ऐसे लोगों का संग नहीं करना है जो संसार में और संसार की  वस्तुओं में ,व्यक्तियों में या  परिस्थितियों में आसक्त हैं. जो संस्कारहीन है,  शास्त्रों का ज्ञान नहीं है,  कामी, क्रोधी, लोभी हैं, मान और यश  के लालची हैं, जो अपनी पूजा करवाना चाहते हैं, जो असत्य बोलते हैं, जो  जुआरी या नशेबाज हैं, जो देवता, गुरु और अग्नि में श्रद्धा नहीं रखता है.  श्री कृपालु जी के अनुसार हमें ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए जो संसार का सामान बांटते हो अर्थात  सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करते हों . और संगत उसकी करनी चाहिए जो हमें भगवान से मिलवा सके. प्रायः यह लोग केवल भगवत संबंधी ही चर्चा करते हैं और संसार का सामान नहीं बांटते, जैसे ‘ ‘तेरे लड़का हो जाएगा, तेरी बीमारी दूर हो जाएगी, तेरी नौकरी लग जाएगी---- आदि.’’ बुरे संग से बचना  उतना ही आवश्यक है जितना कि अच्छा संग करना . मामूली कुसंग से भी पतन हो सकता है . इस संदर्भ में योगी सौभरि और कर्मकांडी ब्राह्मण अजामिल के  उधारण भागवत में दिए  गए हैl .सौभरि उच्च कोटि के साधक  थे, वह यमुना जी के  पानी के अन्दर  बैठ कर  साधना किया करते थे . एक दिन  उन्होंने एक  मछ को मछलियों के साथ  गृहस्थानंद लेते हुए देख लिया .मन में विकार गया . सुंदर युवा रूप बनाकर के राजा मांधाता की 50 कन्याओं से विवाह  किया . एक- एक पत्नी से 10-10 पुत्र उत्पन्न किए .बाद में जब ज्ञान चक्षु खुले तब बहुत पछतावा हुआ . विचार करने लगे,’’ एक मछली के संसर्ग से मेरा ब्रह्मतेज नष्ट हो गया... मोक्ष की इच्छा वाले को भोगियों का संग त्याग देना चाहिए…’’ 9/6/39-55 . अजामिल कान्यकुब्ज  में रहने वाला उच्च कोटि का सदगुणी ब्राह्मण था . यह इतिहास ,जिसे शुकदेव जी ने अगस्त्य ऋषि से सुना था, नामाभास की महिमा का गान करता है।  ( जब नामाभास की ऐसी महिमा है तो नाम की ना जाने कितनी  ज्यादा महिमा होगी ) . एक बार वह जंगल में अपने पिता के लिए समिधा ,फलादि  इकट्ठा करने गया हुआ था, लौटते समय उसने एक  स्त्री -पुरुष को निर्लजता पूर्वक यौन  व्यवहार करते हुए देख लिया. इस कुसंग से वह मोहित हो गया और उसकी नीच काम  वासनाएं जाग उठीं  . अपने घर में वेश्या को रख लिया पतिव्रता स्त्री को भगा दिया .सदाचारी से दुराचारी बन गया .’’मृत्यु’’ के समय उसने तीन भयानक यमदूत देखें . डर के मारे अपने पुत्र ‘’नारायणको आवाज लगाई,नारायण भगवान का नाम है . भगवत्नाम की  पुकार सुनकर के विष्णु के चार पार्षद गए और अजामिल को यमदूतों  से छुड़ा लिया . अजामिल ने यमराज और यमदूतों के बीच वेद-धर्म  के संबंध में तथा पार्षदों से भागवत- धर्म का  संवाद सुना . अजामिल विष्णु पार्षदों के दर्शन से आनंदित हो गया और उसने उन को सिर झुकाकर प्रणाम किया, वह उनसे कुछ कहना ही चाहता था  कि विष्णु दूत  अंतर्ध्यान हो गए . क्योंकि अजामिल ने विष्णु पार्षदों से भागवत धर्म के संबंध में सुना और यमदूतों से वेद धर्म सुना, इसलिए उसके  भक्ति के संस्कार जागृत हो गए . इसे बहुत पश्चाताप हुआ .  सोचने लगा कि मैंने जो अभी देखा था क्या वह स्वप्न था या जागृत अवस्था का प्रत्यक्ष अनुभव ? मुझे छुड़ाने वाले कौन थे ?  अजामिल ने निश्चय कर लिया अब वह अपने मन को भगवान- नाम के कीर्तन आदि से शुद्ध करेगा और  मन को केवल भगवान में ही लगाएगा .  सारे मोह बंधन छोड़कर वह हरिद्वार चला गया .वहां जाकर कुछ समय  साधना की, अपने आप को परमब्रह्म  में लगा दिया . अजामिल की बुद्धि त्रिगुणमयी  माया से ऊपर उठकर भगवान के स्वरुप में स्थित हो गई.  उसने देखा की वही  4 पार्षद ,जो उसने पूर्व में देखे थे, उसे विमान लेकर लेने के लिए आए हैं . (जब उसे यमदूतों से विष्णु भगवान के पार्षदों ने छुड़ाया था तब उसने अपना शरीर नहीं त्यागा था .  यह हम  ऊपर देख चुके हैं) .अब  हरिद्वार में गंगा के तट पर अजामिल ने अपना शरीर त्याग दिया और उसे पार्षदों का स्वरुप  प्राप्त हो गया l स्वर्णमय विमान में बैठ कर भगवान के पार्षदों के साथ अजामिल लक्ष्मीपति के निवास स्थान वैकुंठ को चला गया--- 6/1-3 l (primelements पर अजामिल सम्बन्धी अंग्रेज़ी में  विस्तृत लेख है ) इस प्रकार साधक कुसंग से गिर सकते हैं और सत्संग से वापस ऊपर भी उठ सकते हैं l  अतः कुसंग छोड़नी है.  

 शुकदेव जी के अनुसार भगवान के नाम का संकीर्तन सबके लिए ही है-- चाहे विषयासक्त हो, चाहे विरक्त हो, चाहे सिद्ध  योगी हो, चाहे ज्ञानी हो और चाहे मोक्ष की अभिलाषा ही क्यों ना  रखता हो---2 /1 /11 .शुकदेवजी के अनुसार  सत्संग ,प्रेमी भक्तों के संग, में भगवान  की लीला-कथाएं होती हैं जिससे दुर्लभ ज्ञान की प्राप्ति होती है ,हृदय शुद्ध होकर भक्तियोग प्राप्त होता है ;अस्तु भगवत्प्रेम हेतु सत्संग आवश्यक है --2/3/11-12  l

 लिहाजा हमें सत्संग करना चाहिए. एकाग्र मन से भगवान का  ही निरंतर श्रवण ,कीर्तन, ध्यान और आराधना  करना चाहिए---1 /2 /14 . नाम कीर्तन से पाप नाश होता है---6  /2 /14 -18 .और कलि युग में तो भगवत- प्राप्ति का एकमात्र साधन भगवान का नाम कीर्तन और  सत्संग ही है---कलि संतरण उपनिषद में यह बात द्वापर के अंत में नारद जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए स्वयं ब्रह्मा जी ने बताई है . “ हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे. हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे . “ यह 16 नाम कलि के पापों का  नाश करने वाले हैं .( ब्रह्म वैवर्त पुराण में यही मंत्र इस प्रकार हैहरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे. हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे.यह मंत्र पौराणिक है, पहले जो बताया गया वह  वैदिक है दोनों  का फल एक ही समान है, दोनों ही भगवान की प्राप्ति कराते हैं)  इस नाम संकीर्तन से अंतःकरण शुद्ध होता है-- मन बुद्धि और अहंकार शुद्ध हो जाते हैं.’’ शुद्ध’’ से तात्पर्य है कि  अंतःकरण से संसार, संसार के सारे पदार्थ, व्यक्ति और परिस्थितियां हट  जाती हैं और उनके स्थान पर श्री भगवान प्रवेश करते हैं. इससे शरीर दिव्य हो जाता है. मन बुद्धि इंद्रियां आदि  भी दिव्य बन जाते हैं. इसी को भगवान का स्वरूप प्राप्त करना  कहते हैं. यही मुक्ति हैस्वरूप में स्थित होना.और इसी को भगवत्प्राप्ति  कहते हैं.  


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