अवतार : भाग 5


भगवान का  यज्ञरूप अवतार
सातवें अवतार में भगवान ऋषि रुचि और  अकूती पुत्र के रूप में  यज्ञअवतार ग्रहण किया. इस समय पृथ्वी पर कोई शासक नहीं था. इसलिए  भगवान ने अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वयंभू मनवंतर की रक्षा की. उन्होंने अग्नीहोत्र की स्थापना की. इनके नाम से ही अग्नीहोत्र का नाम यज्ञ पड़ा. हवन से देवता पुष्ट  हुए.

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राजा पृथु-- भगवान के अवतार     स्कंध 4  अध्याय 15 से 23
दुराचारी राजा वेन को मुनिओं ने बिना हथियार के केवल क्रोध पूर्वक की गई  हुंकारों से मार डाला.  उसकी बाहों को मथ कर एक स्त्री पुरुष का जोड़ा उत्पन्न किया(.जाहिर है कि विज्ञान विकसित था.)  पुरुष राजा पृथु हुए और स्त्री उनकी रानी अर्चि  हुईं .  पृथु  के रूप में साक्षात विष्णु के अंश  ने ही  संसार की रक्षा के लिए अवतार लिया और अर्चि  रूप में उनकी सहचरी और शक्ति श्री लक्ष्मी प्रकट हुईं  -4.15.6 , 4.16.19. उस समय पृथ्वी यागों  में अपना हिस्सा तो लेती थी परंतु बदले में कुछ नहीं देती थी. इससे राजा पृथु क्रोधित हो गए और पृथ्वी को मारने पर उद्धत हुए. पृथ्वी पदार्थ देने को तैयार हो गई. प्रथ्वी की प्रार्थना पर राजा ने पहाड़ों को अपने तीर की नोक से तोड़ कर पृथ्वी को समतल किया जिससे पानी टिक सके. राजा ने मनु को बछड़ा बनाकर के पृथ्वी का दोहन किया और खनिज पदार्थ अंन आदि प्राप्त किए ; ऋषियों ने गुरु वृहस्पति को बछड़ा बनाकर पृथ्वी के दोहन से वेदादि प्राप्त किए; देवताओं ने इंद्र को बछड़ा बनाकर पृथ्वी से अमृत , इंद्रीय बल और शारीरिक बल प्राप्त किया; गंधर्व और अप्सराओं ने विश्व वसु को बछड़ा बनाकर के पृथ्वी से संगीत और सौंदर्य प्राप्त किया; इस प्रकार औरों ने भी पृथ्वी से अपने काम की वस्तुएं प्राप्त की.  “बछड़ा बनाकर के दोहन करने का,’’ एक आध्यात्मिक अर्थ हो सकता है, कि सारे पदार्थ संसार में अस्तित्व में है. मनुष्य या अन्य  कोई योनि उन्हें पुरुषार्थ से और मार्गदर्शक अथवा गुरु  के बताए हुए मार्ग से प्राप्त कर सकते हैं।सब सकल पदार्थ है जग माही …..’’

भगवान के अवतार राजा पृथु ने सबसे पहले नगरों को और गांवों  को योजनाबद्ध तरीके से बसाया. इसके पहले तो बेतरतीब से[un-planned manner]  मनुष्यों की बस्तियां हुआ करती थी. इस प्रकार यह अवतारटाउन प्लानर’’ [town -planner ] भी था.आजकल जैसे डैम[dam ] बनाते हैं ऐसे ही उन्होंने पृथ्वी को समतल बना कर के इस प्रकार किया कि बहुत समय तक पानी ठहर सके.
इन्होंने सौ अश्वमेध यज्ञ करने की दीक्षा ली, 99 पूरे कर लिए; आखरी यज्ञ में इंद्र ने अश्व चुराकर के बाधा डाली. वह नहीं चाहता था कि राजा शत- यज्ञ पूरा करके उसके बराबरी कर लें. यह क्रोधित हो गए.  राजा के ऋत्विकगण  ने इंद्र को बुलाने की आहुति दी.ब्रह्मा जी पधारे और उन्होंने राजा से कहा, “आप मोक्ष धर्म के जानने वाले हैं आपको यज्ञो  की आवश्यकता नहीं है...धर्म की रक्षा के लिए आप ने अवतार लिया है.’’  ब्रह्मा जी के ऐसा समझाने पर  पृथु   महाराज ने इंद्र को  दंड देने का विचार त्याग दिया. फिर क्या था स्वयं हरि प्रकट हो गए ,उन्होंने राजा से कहा, “इंद्र  तुम से क्षमा चाहता है इसे क्षमा कर दो.’’ ..4.20.2.श्री भगवान ने राजा से कहा कि  जो पुरुष आत्मा को शरीर से भिन्न जानता है वह पृथ्वी के गुणों से लिप्त नहीं होता क्योंकि उसकी स्थिति परमात्मा में होती है. जो कामना नहीं रखता और वर्णाश्रम के धर्मों द्वारा भगवान की आराधना करता है उसका चित् धीरे-धीरे शुद्ध हो जाता है. वह विषयों से संबंध नहीं रखता, उसे तत्व ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है और वह परमात्मा की समता रूप स्थिति को प्राप्त हो जाता है. यही मोक्ष है. भगवान उनके हृदय में रहते हैं जिनके हृदय में समता होती है. गीता में कृष्ण ने भी समता पर ज़ोर दिया है …2. 38 -58 .   राजा ने भगवान की बात मान ली और इंद्र को हृदय से लगा लिया, उसे अपने पैरों में नहीं गिरने दिया,क्षमा कर दिया. राजा ने श्रीहरि की स्तुति की. राजा ने भगवान से वर मांगने से भी इनकार कर दिया. इसे उन्होंने मोह में डालने वाला मान.  इसी प्रकार के विचार भक्त पहलाद के भी हैं . राजा ने कहा कि वह बिना किसी इच्छा,कामना  के ही भगवान का भजन करते हैं. भगवान ने राजा से कहा कि राजा उनकी आज्ञा का पालन करें, जो भगवान की आज्ञा का पालन करता है उसका हर जगह मंगल ही होता है. अपनी भक्ति का आशीर्वाद देकर भगवान अपने धाम को चले गए और राजा पृथु भी प्रजा पालन हेतु अपनी राजधानी  लौट गए.
एक बार सनकादिक चारों कुमार राजा के पास पधारे और सनत्कुमार ने  उन्हें उपदेश भी दिया.  भक्ति भाव से मनुष्य का संपूर्ण जड़ प्रपंच से वैराग हो जाता है और आत्म स्वरुप निर्गुण परबह्रम  में उसकी प्रीति हो जाती है ’’...4.22.22-25. उन्होंने राजा को समझाया कि भगवान के आश्रय के बगैर संसार सागर को पार करना मुश्किल है. राजा को कुमार ने आज्ञा दी.” तुम तो भगवान के चरण कमलों को नौका  बनाकर इस दुस्तर भवसागर को पार कर लो... 4.22.40.

राजा पृथु ने प्रजा की सभी व्यवस्थाएं कीं ,ग्रामों को और शहरों को व्यवस्थित ढंग से बसाया, सब की आजीविका का प्रबंध कर दिया और धर्मों का खूब पालन किया .  बाद में पुत्री रूपा पृथ्वी का भार अपने पुत्रों को सौंप दिया और सारी प्रजा को रोती  छोड़कर अपनी पत्नी सहित अकेले ही तपोवन को चल दिए. प्राणायाम और योग को अपनाते हुए ज्ञान और वैराग के प्रभाव से उन्होंने अपने आप को शुद्ध ब्रह्म स्वरुप में स्थित कर दिया और देह को त्याग दिया. रानी अर्चि ने पति के चरणों का ध्यान किया तीन बार चिता की परिक्रमा की और अग्नि में प्रवेश कर गईं . देवियों ने उनको धन्य बताया...4.23.25-28 .वह भी अपने पति के लोक में  गईं --- भगवान के परम धाम  जहां  जाकर जीव वापस नहीं आता, आवागमन से छूट जाता है. महापुरुषों का कथन है कि योगी योग का अनुसरण करके और भक्त केवल भगवान का नाम जप करके ही सुगमता से शरीर छोड़कर भगवत्प्राप्ति कर लेता है.

 मैत्रेय जी कहते हैं कि जो पुरुष इस परम पवित्र चरित्र को श्रद्धापूर्वक  निष्काम भाव से एकाग्रचित होकर श्रवण करता है किसी को सुनाता है वह महाराज पृथु  के पद यानी भगवान के परम धाम को प्राप्त होता है.सकामी   इसे  सुनकर, इसका पाठ करके अपनी कामनाएं पूरी कर सकता है....4. 23.31-36.

                                                भगवान ऋषभ
 ऋषभ शब्द ही श्रेष्ठता का सूचक है. भगवान ने राजा नाभि के पुत्रेष्टि यज्ञ को सफल करने हेतु,ब्राह्मणों को  अपना मुख मांनते हुए, और यह मानते हुए की ब्राह्मणों का वचन मिथ्या नहीं होना चाहिए, स्वयं अजन्मा होते हुए राजा नाभि और उनकी पत्नी मेरु देवी के पुत्र रूप में अपनी अंश कला से जन्म लिया .जन्म से ही इनके शरीर पर अंकुश, वज्र, ध्वजा आदि के चिह्न थे. भगवान के जो छह  ऐश्वर्य होते हैं-- समस्त धन, समस्त बल ,समस्त ज्ञान, समस्त सौंदर्य ,समस्त यश और समस्त  वैराग्य-- उनसे वह जन्म से ही संपन्न थे. इन्होंने साधारण मानवों की तरह गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण की . उसके पश्चात गृहस्थ  आश्रम में प्रवेश किया, इंद्र की कन्या जयंती से विवाह किया और100  पुत्र  पाए .उनके राज्य में सभी भगवान के भक्त थे, सभी प्रभु से प्रेम करते थे, कोई किसी से कुछ भी नहीं चाहता था.  यह समस्त  वेद, लोक ,देवता, ब्राह्मणों और गायों के परम गुरु थे....5.6.16.
इन्होंने शिक्षा दी है कि मनुष्य शरीर भोग के लिए नहीं है. भगवत प्राप्ति के लिए ही हमें मिला है. गुरु को, पिता को, प्रिय-जनों को, इष्टदेव को चाहिए कि वह अपने प्रियजनों को जन्म- मृत्यु के चक्र से छुड़ाए. जैसे  आंख वाला अंधे को गड्ढे में गिरने से रोकता है ऐसे ही यह लोग सबको भगवान की ओर ले जाएं और संसार रूपी गड्ढे से बचाएं. भगवान ने कहा है: “मैं मेरे पन को छोड़ो, मेरे लिए कर्म करो; मेरी कथाओं का श्रवण करो. मेरे भक्तों का संग करो, मेरे गुणों का कीर्तन करो; वैर को त्यागो,  एकांत सेवन करो, ब्रह्मचर्य का पालन करो.’’

 ऋशभ देव ने सन्यास को अपनाया.इनके पास आठों सिद्धियां आई. इन्होंने उनको ठुकरा दिया ,अपनाया नहीं ,ना ही मन से कोई आदर किया. यह अपने ईश्वरी प्रभाव को छुपा कर रखते थे. कोई पहचान ना सके इसलिए उन्होंने अजगरवृति अपना ली. लेटे लेटे ही शौचकरते थे. इनके मल से दुर्गंध नहीँ  आती थी , सुगंध आती थी जो मीलों तक जाती थी .घूमते-घूमते यह कुटकाचल के  वन में चले गए. यह स्वरुप में स्थित हो चुके थे. इनका शरीर योग माया के आश्रय से विचरता था. यह तो लिंग देह  के अभिमान से मुक्त थे. उन्होंने मुख में पत्थर रख लिए  और वन की आग ने इनके शरीर को भस्म कर दिया. अग्नि इनको भस्म नहीं कर पाई क्योंकि यह अपने को शरीर नहीं मानते थे और अपने स्वरुप में स्थित  थे.
भगवान ने यह अवतार रजोगुणी लोगों को मोक्ष की शिक्षा देने के लिए लिया.. 5.6.12. आत्म लोक  का उपदेश दिया।  सभी तृष्णाओं को छोड़ने के लिए उपदेश दिए. इन्हें जन्म मृत्यु जरा व्याधि से कोई सरोकार नहीं था. यह पूर्ण स्वतंत्र थे. पर  बद्ध जीवका सा आचरण करते थे. इंद्र ने जब इनके राज्य में वर्षा नहीं की तब उन्होंने अपने बल से अपने राज्य में भरपूर वर्षा की. ठीक ही तो है जब कर्मचारी कार्य नहीं करता है, स्वामी  कर्मचारी का अधिकार  स्वयं  अपने हाथ में ले लेता है.
राजा अर्हत  ने इनके आचरण का अनुकरण किया और एक वेद विरुद्ध धर्म चलाया जो आगे चलकर जैन धर्म के नाम से विख्यात हुआ. ऋषभदेव जैनियों  के तीरंथकर है.
भगवान ऋषभ का चरित्र एकाग्रता से नित्य सुनने या सुनाने से भगवान वासुदेव में अनन्य भक्ति हो जाती है.ऐसा  शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को समझाया….5.6.16 …(क्रमश:)

                                 


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