आ रस पी : भाग 1


भागवत को सुनाने वाले हैं  व्यास पुत्र  शुक देव परमहंस,सुनने वाले हैं राजा परीक्षित और जिस के संबंध में भागवत है वह हैं  श्रीकृष्ण।शुकदेव जी को प्रधान- भागवत  अर्थात भगवान का प्रमुख भक्त और परीक्षित को विष्णु-  रातम अर्थात विष्णु द्वारा सुरक्षित बताया गया है--10/1/14  l  शुकदेव जी अपनी मां के पेट में 12 वर्ष तक रहे, जब इनके पिता व्यास जी ने इन्हें आश्वासन दिया कि इन्हें माया नहीं लगेगी तब जाकर यह गर्भ  से बाहर आये l आते ही घर छोड़कर चल दिएl देवी भागवत के अनुसार इनके पिता ने इन्हें  गृहस्त आश्रम स्वीकार करने के लिए इनसे कहा तो उन्होंने साफ मना कर दियाl कहां:  “ पिताजी भला बताइए तो इस लोक में ऐसा कौन सा सुख है जिस में दुख ना भरा हुआ हो?.. विवाह.करने से मैं स्त्री के वश में हो जाऊंगा l’’  इन्हें व्यास जी ने राजा जनक के पास भेजा, राजा जनक ने इन्हें समझाया:  “ जंगल में तुम निसंग कैसे रह सकते होlभोजन की चिंता तुम्हारे साथ रहेगी और  मृग आदि जीव भी तुम्हारे साथ रहेंगे l तुम्हें तुम्हारे मृगचर्म की चिंता रहेगी जैसे कि मुझे मेरे राज्य की रहती हैl तब हम दोनों की चिंता एक समान ही है l”  राजा जनक द्वारा ऐसा समझाने पर इन्होंने गृहस्थ आश्रम में प्रवेश किया,पितरों की सौभाग्यशाली कन्या पीवरी से विवाह किया चार  पुत्र  और एक कन्या हुए  l  उसके पश्चात शुकदेव जी महाराज अपने पिता को छोड़कर कैलाश पर चले गए जहां समाधि में स्थित हो गए l सिद्धि मिलने पर इनका आसन शिखर से ऊपर उठ गया और  आकाश में महान तेजस्वी सूर्य की भांति चमकने लगेl इनके पिता व्यास जी को बहुत दुख हुआl तब शंकर जी ने उन्हें आकर समझाया कि शुकदेव जी की महान गति हुई है और व्यास जी को शोक नहीं करने के लिए कहा l शंकर जी ने व्यास जी को शांत करने के लिए उन्हें उनके पुत्र की छाया को दिखलायाl ओर  व्यास जी अपने आश्रम पर गए lइन्हीं शुक देव जी ने माना है कि वह निराकार के उपासक होते हुए भी बरबस कृष्ण की लीलाओं की कथा की ओर आकर्षित हो गए और भागवत का अध्ययन किया lइन सुखदेव जी को वेदों ने और पुराणों ने सर्व भूतों की आत्मा बताया है l  व्यास जी ने जब इन्हें पुकाराबेटा ,बेटा, ’’उसका उत्तर वृक्षों ने दिया क्योंकि वृक्षों में भी इनकी आत्मा थी-- सुखदेव रहस्य उपनिषद3/19,20औरभागवत महात्म्य 1/2. इस प्रकार की अवस्था में होने के कारण, भक्त ध्रुव के प्रसंग में भी आता है , उन द्वारा विश्व आत्मा में अपना चित् ली करने के कारणसमस्त प्राणियों का सांस रुक गया था --4/8/82 l ऐसे शुकदेव जी जिस कृष्ण की ओर आकर्षित हुए वह कृष्ण कैसे हैं,?इसका भागवत में स्थान स्थान पर वर्णन है, विशेषकर  दशम स्कंध में l  
भागवत जीव और ब्रह्म की कहानी है l यह  हमारी और हमारे भगवान की कहानी हैl पुरंजन के आख्यान से.तो यह बात पूर्णतः स्पष्ट  हो जाती --.4/25-29 l कुछ कुछ ऐसा ही बताती है,  बाई बिल भी.--exodus3/7-8   l हम दोनों--भगवान और जीव-- के बीच में अज्ञान का पर्दा डालने वाली एक अन्य शक्ति है जिसे माया कहते हैं l प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि माया खलनायिका है l वास्तव में ऐसा नहीं हैl माया कृष्ण की शक्ति है, इसलिए भली है, बुरी नहीं हो सकती। यह हमें बारम्बार  फटकार नहीं लगाए दुःख देकर तो हम भगवान की ओर जाएंगे  ही नहीं।भागवत में इस  माया की भी कहानी हैlभगवान का अवतार ही इसलिए होता है कि हम माया को छोड़कर भगवान की ओर मुड जाऐं। बाईबिल से:( Luke.ch 15,parable of prodigal son  में )एक पुत्र अपने पिता का घर छोड़ कर चला गया , और सब कुछ लुटाकर  जब लौटकर  वापस आया तो पिता ने उसे दुत्कारने की  जगह अपने घर में आश्रय  दिया  और प्रेम से स्वागत किया। ऐसे ही हम भगवान से विमुख है और माया के सम्मुख हैं.  एक दिन जब थक हार कर हम भगवान की ओर मुड़ेगें  तो भगवान हमें गले से लगाएंगे, धक्का नहीं देंगें।
   
रास  से संबंधित पांच अध्याय श्री मद्भागवत के पांच प्राण कहे गए हैं. इन्हें समझने और समझाने में ही श्रोता और वक्ता की परीक्षा है, जैसे कि विपत्ति काल में मित्र और पत्नी की तथा त्रिदोष के रोग में वैद्य की.इनका असली अभिप्राय और अर्थ तो भगवान ही जानते हैं.जिस पक्षी में जितनी शक्ति होती है वह आकाश में उतना ही ऊंचा और उतनी ही देर तक उड़ सकता है, इसी प्रकार अपनी अपनी बुद्धि के  सामर्थ केअनुसार संत लोगों ने, विद्वान लोगों ने भगवान की लीलाओं का अर्थ लगाया है, स्वयं की समझ के अनुसार वर्णन किया है….1 /18 /23  .  भगवान की लीलाएं अनंत है. इन्हें पूर्णतः  समझना किसी के भी बस की बात नहीं।

 आओ कृष्ण कथा का रस पिएं ! कृष्ण कहते हैं, गीता में अर्जुन को समझाते हुए , कि उनके जन्म और कर्म दोनों ही दिव्य हैं। इन्हें जो जान जाता है वह कृष्ण को   प्राप्त कर लेता है 4 /9 l  इनके जन्म में यह दिव्यता है कि कृष्णा मां के गर्भ से प्रकृति के बन्धन के कारण  जन्म नहीं लेते  वरन प्रकृति को बस में करके  प्रकट होते हैं l इनका शरीर हमारे शरीर जैसा हाड़- मास का प्राकृतिक नहीं होता। यह दिव्य, चिन्मय और विलक्षण होता हैl इसमें  शरीरऔर शरीरी का भेद भी नहीं होता है,हमारे शरीर और आत्मा दोनों पृथक-पृथक है  l  लीला समाप्त करके जब भगवान अपने धाम को जाते हैं तब इस शरीर को धरा पर नहीं छोड़ते, शरीर समेत ही जाते हैं l  ऐसा मीरा तुकारामादि  द्वारा भी किया गया था l  ध्रुव भी  दिव्य शरीर से भगवत धाम को पधारे थे l  यीशु और उनकी माता मेरी भी सशरीर  भगवत धाम गए थे l  श्रीकृष्ण  स्वेच्छा से  प्रकट होते हैं l  इनके कर्मों में दिव्यता है कि इनकी लीलाओं का  श्रवण ,कीर्त्तन और स्मरण करने से मनुष्य का अंतःकरण निर्मल हो जाता है और अज्ञान दूर हो जाता हैl   दूसरी दिव्यता उनके कर्मों में यह है कि भगवान कर्म  करने के लिए बाध्य नहीं हैं l  हम तो  प्रकृति के  बस में हुए कर्म करते हैं और चाहें तो भी  अकर्मा   नहीं रह सकते-- गीता 3 /5 ,3 /27 l   भगवान को कोई भी कर्म करने की आवश्यकता नहीं है और ना ही कुछ पाने  की आवश्यकता है-- गीता 3 /33  l  भगवान जीव कल्याण के लिए कर्म करते हैं जिसे लीला कहा जाता हैlइस प्रकार श्री कृष्ण के जन्म और कर्म के रहस्य को दृष्टिगत रखते हुए श्री कृष्ण की लीलाओं का पान करें l

  सबसे पहले श्री कृष्ण वासुदेव जी के मन में प्रवेश कर गए।  इससे उनके  मुख पर तेज गया, कोई उनके  मुखारविंद की और  देख नहीं पाता था lवह कृष्ण के रहने का धाम बन गएl इनके मन से श्री भगवान देवकी  जी के मन में प्रवेश कर गए। देवकी का शरीर भगवान का धाम बन गया l वह सुंदर बन गईं , जैसे उगते हुए चंद्रमा को पाकर पूर्व दिशा सुंदर बन जाती है l कंस के कैद खाने में होने के कारण इस सौंदर्य को कोई देख नहीं पाया जो भगवान को धारण करने से उत्पन्न हुआ। वे सारे  वातावरण को आलोकित करने लगी जिससे कंस जान गया कि मेरा वध करने वाला देवकी के  गर्भ में गया है l दर्शन देकर भगवान ने दोनों पति-पत्नी को उनके पूर्व जन्मों की बातें  बताईं कि वह पृश्नि  और सुतपा थे, और भगवान उनके पुत्र बने थे तथा भगवान का नाम पृश्निगर्भ  था ,उसके बाद यह अदिति और कश्यप हुए और भगवान ने इनके पुत्र रूप में वामन नाम से जन्म लिया।   चतुर्भुज रूप में दोनों को दर्शन दिए और कहा,वे अपना यह रूप इसलिए दिखा रहे हैं कि उन्हें भगवान के पूर्व अवतारों का स्मरण हो जाए क्योंकि मनुष्य शरीर से भगवान के अवतार की पहचान नहीं हो सकती।भगवान ने उन्हें आज्ञा दी कि वह भगवान के प्रति वात्सल्य स्नेह रखें जिससे कि उन्हें परम पद की प्राप्ति हो--10 /3 /32 -45 l फिर चतुर्भुज रूप आंखों से ओझल हो गया और भगवान एक साधारण शिशु के रूप में प्रकट हो गए l श्री भगवान के प्रकट होने से प्रकृति प्रफुल्लित हो गईl जैसे सूर्य के आने से स्वाभाविक रूप से गर्मी होती है, चंद्रमा शीतलता लाता है, वर्षा गीलापन लाती है, ऐसे ही आनंद के सागर के प्रकट होने से सब और आनंद छा गया l शिशु को वसुदेव जी ने गोकुल में पहुंचाया l

 श्री कृष्ण द्वारा असुरों का वध किया गया, प्रेम की अद्भुत लीलाएं दिखाई गईं और गीता का ज्ञान अर्जुन को दिया गया भक्ति और त्तत्व  ज्ञान उद्धव  को दिया गया l असुरों का वध श्री कृष्ण के स्वांश महाविष्णु द्वारा किया जाता है और प्रेम का व्यापार स्वयं भगवान श्रीकृष्ण करते हैं, ऐसे विचार प्रभुपादजी  ने अपनी पुस्तक कृष्ण में व्यक्त किए  हैं। अभी पांच हज़ार वर्ष पूर्व  जो अवतार हुआ था वह स्वयं भगवान का था, श्वेत वाराह कल्प में,सातवें अर्थात वैवस्वत मन्वंतर  के अठाइस वें द्वापर युग में।  संतों का मत है कि प्रत्येक कल्प में  ,जो कि ब्रह्मा जी का एक दिन है और मानवों के चार अरब   बत्तीस करोड़ वर्षों के बराबर है, स्वयं भगवान एक बार प्रकट होते हैं ,अवतार लेते हैl अन्य द्वापर युगों  में तो महाविष्णु का अवतार होता है l  ब्रह्म संहिता के अनुसार  प्रत्येक ब्रह्मांड में एक-एक  ब्रह्मा होते हैंl  इन की जीवन अवधि  महा विष्णु  के एक सांस की अवधि के बराबर होती है l और यह महा  विष्णु भगवान गोविंद के अंश के भी अंश हैं---5/48  l महारास  स्वयं भगवान ही करते हैl कृष्ण और राधा एक ही हैंl जो  कृष्ण हैं  वही राधा हैं  जो राधा हैं  वही कृष्ण  हैं  और इन दोनों का प्रेम बंसी हैl कृष्ण की सभी रानियां राधा के अंश का विस्तार हैंl कृष्ण की रानी यमुना ने कृष्ण की बाकी रानियां ,जो कि कृष्ण के गोलोक धाम जाने के पश्चात विरह की अग्नि में जल रही थी ,को यह समझाया l यह ज्ञान भी दिया कि कृष्ण के मथुरा जाने से गोपियां भी दुख से ग्रसित थीं l वास्तव में यह विरह  नहीं थी केवल आभास मात्र था l जब कृष्ण के भेजे गए दूत उद्धव जी ने यह रहस्य आकर के गोपियों को समझाया तब उन को शांति मिली l कालिन्दी  ने आगे कृष्ण की बाकी रानियों को यह भी बताया कि कृष्ण का अंश है राधा और कृष्ण  राधा दोनों एक ही हैं इसलिए रानियों का कभी कृष्ण से विरह नहीं हो सकता-- भागवत माहात्म्य .अध्याय  2 l.....(क्रमशः)


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