अवतार : भाग 4


 योग सम्राट भगवान दत्तात्रेय
मंत्रदृष्टा ऋषि अत्री और अनुसूया के तीन पुत्रों में से एक दत्तात्रेय हैं. यह विष्णु के अंश से पैदा हुए हैं दूसरे दुर्वासा शिव के अंश से और चंद्रमा ब्रह्मा के अंश से. इस प्रकार तीनों देवों ने अनसूया , के गर्भ से जन्म लिया, दत्तात्रेय का अर्थ ही है  “मैंने तुम्हें अपने आपको  दिया.’’ कृष्ण को योगेश्वर के नाम से जाना जाता है, शिव को  योगियों का ईश्वर और दत्तात्रेय जी को योग के साम्राज्य का सम्राट माना जाता है. इनके पिता भगवान को पुत्र रूप में प्राप्त करना चाहते थे, प्रसन्न होकर भगवान ने कहामैंने अपने आपको तुम्हें दिया’’, अस्तु नाम दत्तात्रेय पड़ा.इन्होंने यदु ,सहस्त्रार्जुन, प्रहलाद और राजा अलग को ज्ञान का उपदेश दिया .

जाबाल दर्शन उपनिषद में उनके उपदेश है जो उन्होंने अपने शिष्य मुनि सांगकृति को दिए .उनके अनुसार सत्य का अर्थ है सब कुछ सच स्वरूप परब्रह्म परमात्मा ही है परमात्मा के अलावा दूसरी कोई वस्तु नहीं है. शौच का अर्थ समझाते हुए यह कहते हैं कि ऐसा जानना कि मैं परमात्मा हूं ही सबसे बड़ा  शौच है और बाहरी शौच को इन्होंने हीन बताया, आंतरिक शौच के सामने. सब समय परमात्मा के चिंतन को करना और परमात्मा को ही मन में रखने को इन्होंने सच्चा ब्रह्मचर्य बताया है. उनके अनुसार राग द्वेष से रहित रहना और भगवान की प्रसन्नता के लिए ही सारे कर्म करना ही ईश्वर पूजन है. यह कहते हैं कि सारे तीर्थ हमारे शरीर में ही है। बाहरी तीर्थों में भटकना रतन छोड़कर कांच ढूंढने जैसा है. प्रयाग हमारे हृदय में है, केदारनाथ ललाट में, शैल तीर्थ मस्तक में, कुरुक्षेत्र दोनों स्तनों में.  योग शास्त्र में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के इन्होंने सरल अर्थ और गूढ़  अर्थ समझाएं हैं. अमावस्या उसे कहते हैं जब प्राण इडा और पिंगला नाडी की संधि में जाता है. चांद की अमावस्या अलग है. चंद्र ग्रहण  तब होता है जब नाडी  द्वारा प्राण कुंडलीनी पर जाता है. सूर्य ग्रहण पिंगला नाड़ी का  कुंडलिनि पर आना है. ब्रहम को अपनी आत्मा के रुप में देखना ही यथार्थ देखना है. ध्यान के संबंध में इन्होंने बताया है कि साकार और निराकार दोनों का ही ध्यान किया जा सकता है. इन्होंने प्रहलाद को भी उपदेश दियाप्रहलाद जी! तृष्णा  एक ऐसी वस्तु है जो कभी भी पूरी नहीं होती. इस तृष्णा के कारण ही जन्म मरण के चक्कर में फिरना पड़ता है तृष्णा ने ना जाने मुझसे कितने कर्म करवाए और अनेकों  योनियों में मुझे डाला.’’  भगवान दत्तात्रेय ने प्रह्लाद  जी को समझाया कि अपने स्वरूप में ही सच्चा सुख है. आत्म स्वरूप में ही स्थित रहना चाहिए, धन में और जीवन में बुद्धिमान मनुष्य स्पृहा ना रखें . मनुष्य योनि में पुण्य करने से स्वर्ग मिलता है, पाप से पशु-पक्षी कीट पतंग आदि की  नीच योनिया, और दोनो ही, पाप और पुण्य, करने से मनुष्य योनि तथा कर्मों से निवृत होने पर मोक्ष प्राप्ति होती है. इन्होंने  जब प्रहलाद को उपदेश दिया जब यह अवधूत अवस्था में रह रहे थे. कभी भोजन मिलता कभी नहीं मिलता, कभी दिन में दो बार मिलता, कभी दिन और रात्रि में भी मिलता, कभी सुख मिलता ,कभी दुख मिलता. कभी श्रद्धा से अन्न  मिलता कभी अपमान से.यह सब को सम मान कर रहते थे .यह ना किसी की निंदा करते थे और ना किसी की स्तुति, यह सब का कल्याण चाहते थे. परमात्मा से एकता को इन्होंने सबसे बढ़कर बताया.
इन्होंने भगवान कृष्ण के पूर्वज राजा यदु को भी उपदेश दिया जिसका वर्णन श्री कृष्ण ने उद्धव को 11  स्कंध में किया  है. इन्होंने राजा यदु को बताया कि इन्होंने 24 गुरुओं से अलग अलग प्रकार की शिक्षा ली है. राजा यदु का प्रश्न था, “आप पुत्र ,स्त्री, धन आदि से रहित हैं. आपको अपने आत्मा में आनंद का अनुभव कैसे होता है, हमें समझाइए?’’ यदु  जी को समझाते हुए दत्तात्रेय जी ने  पृथ्वी गुरु से  सहनशीलता सीखना बताया, पृथ्वी के पर्वतों और वृक्षों से दूसरों को देना बताया, किसी से कुछ लेने की अपेक्षा नहीं रखना सीखा. शरीर में स्थित वायु से भगवान दत्तात्रेय ने यह सीखना बताया कि जितने में गुजारा हो उतने  ही भोजन की आवश्यकता होती है, इंद्रियों को तृप्त करने के लिए बहुत से विषयों की कामना नहीं करनी चाहिए. बाहरी वायु जगह जगह जाती है ,यह किसी भी जगह आसक्त नहीं होती.ऐसे ही मनुष्य को आवश्यकता होने पर विभिन्न धर्म और स्वभाव वाले विषयों में जाना चाहिए; परंतु अपने लक्ष्य भगवत- प्राप्ति पर स्थिर रहना चाहिए. आकाश में पानी भी बरसता है, बिजली भी चमकती है , बादल आते हैं, वायु रहती है; परंतु आकाश किसी में भी लिप्त नहीं होता. भगवान कहते हैं कि हमें भी आकाश की तरह अपनी आत्मा को ही  मानना चाहिए और कहीं भी लिप्त नहीं होना चाहिए, आकाश की भाँति अछूता रहना चाहिए.अग्नि कहीं प्रकट रूप में रहती है. कहीं अप्रकट रूप में जैसे लकड़ियों में. भांति भांति के लकड़ियों में रहती है. कोई छोटी लकड़ी, कोई बड़ी, कोई  टेढ़ी,  कोई सीधी. और अग्नि भी उन के समान ही प्रतीत होती है. परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है, अग्नि एक ही है. ऐसे ही सर्वव्यापक आत्मा भी जगत में विभिन्न  वस्तुओं में व्याप्त होने के कारण उन उन वस्तुओं के नाम- रूप से प्रतीत होती है, कोई वास्तविक संबंध नहीं रखती; नाम और रूपसे प्रतीत भर ही होती  हैं.चंद्रमा बढ़ता हुआ प्रतीत होता है और फिर घटता हुआ प्रतीत होता है ; परंतु वास्तव में चंद्रमा ना बढ़ता है ना घटता है, जैसा है वैसा ही रहता है. यही हाल आत्मा का है. शरीर पैदा होता है, बढ़ता है, बूढ़ा  होता है, समाप्त हो जाता है; परंतु उस में व्याप्त आत्मा वैसी की वैसी, ज्यों की त्यों रहती है--निर्विकार. भिन्न भिन्न अवस्थाएं शरीर की है आत्मा और  शरीर का कोई संबंध नहीं; ऐसा जानने से मनुष्य संसार से विमुख होता है और उसका भगवान से अनुराग हो जाता है.गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो ज्ञानरूपी नेत्रों से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभाग को जान जाता है और स्वयं को प्रकृति से प्रथक समझ जाता है वह  भगवान को प्राप्त होता है, परमात्मा को प्राप्त होता है--13.34. सूर्य पृथ्वी का जल सोख लेता है; परंतु समय आने पर बरसा देता है,  वापस धरती को दे देता है. ऐसे ही योगी  पुरुष इंद्रियों के विषय ग्रहण करते हैं; परंतु समय आने पर उनका त्याग भी कर देते हैं. जल के विभिन्न पात्रों में सूर्य  अलग अलग नजर आता है, ऐसा लगता है कि सूर्य कई  है परंतु यह वास्तविकता नहीं है. ऐसे ही आत्मा है.  अलग-अलग शरीरों में भिन्न भिन्न रूप वाला प्रतीत होता है, परंतु यह सूर्य के समान एक ही है. इसमें कोई भेद नहीं.
 भगवान दत्तात्रेय राजा यदु को कबूतर- कबूतरी का वृत्तांत भी सुनाते हैं. यह दोनों एक दूसरे में बहुत आसक्त थे , उन्होंने गृहस्ती चलाई, उनके बच्चे भी हुए, जिनका यह बहुत प्रेम से लालन-पालन करते थे. एक दिन एक बहेलिया ने इनके बच्चों को जाल में फांस लिया. बच्चों के वियोग में दुखी होकर दोनों भी  जाल में फंस गए, जानबूझकर. इस प्रकार अपना अमूल्य जीवन बहेलियों को सौंप दिया. भगवान आगे समझाते हैं कि ऐसे ही हम हैं. हमें यह शरीर भगवत- प्राप्ति के लिए मिला है. लेकिन हम इसे व्यर्थ में घर गृहस्थी में ही फंसाकर जन्म बिगाड़ लेते हैं ,हम  अरुढ़च्यूतहो जाते हैं. दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हमें अजगर की तरह रहना चाहिए. प्रारब्ध के अनुसार जो प्राप्त हो जाए उसमें ही संतुष्ट रहना चाहिए ,व्यर्थ की चेष्टा नहीं करनी चाहिए-- निद्रा रहित होने पर भी ऐसा प्रतीत होना चाहिए कि मनुष्य सो रहा है और कर्मेंद्रियां होने पर भी कोई चेष्टा नहीं करनी चाहिए.  भगवत्प्राप्ति आसान हो जाती है. हमें समुद्र की तरह रहना चाहिए; वर्षा में   बहुत सी नदियां बहुत सा जल लेकर आती हैं परंतु समुद्र बढ़ता नहीं. ऐसे ही गर्मी के मौसम में नदियां कम जल लेकर आती है परंतु समुद्र घटता नहीं. ऐसे ही हमें रहना चाहिए। कोई वस्तु प्राप्त हो जाए तो प्रसन्न नहीं होना चाहिए, कुछ खो जाए तो दुखी नहीं होना चाहिए. जैसे पतंगा आग की ओर आकर्षित होकर जल जाता है मर जाता है; ऐसे ही मूढ़लोग कंचन, कामिनी ,गहने ,कपड़े, सांसारिक धन.....  नाशवान मायिक पदार्थों में फंस जाता है और अपना संपूर्ण जीवन जो भगवत प्राप्ति के लिए मिला था  नष्ट कर देता है,पतंगे की तरह ही. भंवरा जैसे अलग-अलग फूलों से रस चूस लेता है ऐसे ही मनुष्य को चाहिए कि वह छोटे बड़े सभी शास्त्रों का सार जान ले. मधुमक्खी संग्रह करती है; परंतु उसका  संग्रह करा हुआ शहद मधुहारी तोड़ कर ले जाता है. संग्रह करने के कारण मधुमक्खी को अपना शहद भी गवाना पड़ता है और जान भी, क्योंकि प्रायः  शहद का छत्ता तोड़ते समय काफी मक्खियों की जान चली जाती है. भगवान कहते हैं कि हम संचय नहीं करें. गृहस्त  का संचय करा हुआ धन ब्रह्मचारी और सन्यासी भोगते हैं क्योंकि भिक्षा देने को  गृहस्थ का  धर्म माना गया है. मछली से भगवान ने यह सीख ली कि  मछली भोजन के लालच के कारण कांटे में फंस कर जान गवा देती है. ऐसे ही मनुष्य अपनी रस इंद्रियों के वश में हो कर जीवन बिता रहा है. जितेंद्रीय होने के लिए मनुष्य को अपनी रस इंद्रियों पर नियंत्रण करना आवश्यक है.
 पिंगला का चरित्र भी भगवान ने राजा को सुनाया, शिक्षा देने के लिए.यह एक वैश्या थी, खूब श्रृंगार  कर ग्राहक के इंतजार में रहती थी कि कोई धनवान आएगा तो  मैं खूब धन कमा लूंगी’’- ऐसा करने से उसको ना नींद आती ना चैन मिलता- ग्राहक नहीं आता, वह बेचैन रहती परेशान रहती. ऐसे करते-करते वह दुखी हो गई, उसे  वैराग्य उत्पन्न हो गया. “अब मैं अपने आपको भगवान को देकर भगवान को खरीद लूंगी और उनके साथ वैसे ही रहूंगी जैसे लक्ष्मीजी रहती हैं, मैं विषयो  का त्याग  करती हूं और जगदीश्वर की शरण ग्रहण करती हूं, प्रारब्ध के अनुसार जो मिल जाएगा उसी से निर्वाह करूंगी और संतोष करूंगी’’
दत्तात्रेय जी बताते हैं कि जब उसने पुरुष की आशा त्याग दी तब वह सुख से सो सकी.ऐसे ही हम जब संसार से कुछ पाने की आशा छोड़ेंगे और भगवान की शरण में जाएंगे तभी हमें सच्चा सुख मिल पाएगा, जिसकी हम अनंत जन्मों से खोज कर रहे है.
 कुरर पक्षी के बारे में बताते हुए दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हमें उस वस्तु को त्याग देना चाहिए जो हमें कष्ट देती  हैं. विषय भोग  को छोड़कर भगवान की शरण ग्रहण करनी चाहिए. पक्षी के पास माँस का  टुकड़ा था जिस से आकर्षित होकर बहुत से पक्षी गए और उससे मांस का टुकड़ा छीनने का प्रयास करने लगे. जब इस कुरर पक्षी ने मांस का टुकड़ा छोड़ दिया तो अन्य पक्षियों ने भी उसे छोड़ दिया. वह विपत्तियों से छूट गया. आगे दत्तात्रेय जी राजा को बताते हैं कि उन्हें मान अपमान का कोई ध्यान नहीं है, उन्हें घर वालों की भी कोई चिंता नहीं है क्योंकि वह अपनी आत्मा ही नहीं रहते हैं. इस प्रकार के आनंद में दो ही प्रकार के लोग रह सकते हैं-- एक तो छोटा सा बच्चा और दूसरा गुणातीत, यह दोनों ही परम आनंद में मगन रहते हैं.अकेले रहने की सीख भी यह राजा को दे रहे हैं. एक कन्या के हाथ में बहुत सी चूड़ियां थी, वह धान कूट रही थी तो चूड़ियां आवाज कर रही थी. उसने चूड़ियां उतार दी. केवल एक एक   चूड़ी  एक एक  कलाई पर छोड़ी. इससे आवाज आनी बंद हो गई. हमें भी अकेले ही विचरना चाहिए दूसरों के साथ रहने से झगड़ा होने का खतरा रहता है.मन को इंद्रियों के विषय से हटाकर कैसे भगवान में केंद्रित किया जाए ,यह शिक्षा  बाण बनाने वाले गुरु  से ली. वह बाण बनाने में इतना तल्लीन था कि उसने राजा की सवारी को आते हुए ना देखा ना कोई आवाज ही सुनी.  ऐसे ही, शिक्षा देते हैं महाराज दत्तात्रेय, हमें भी संसार में रहना चाहिए. सांप अपना घर नहीं बनाता दूसरे के बिल  में रहता है. ऐसे ही सन्यासी को संघ  नहीं बनाना चाहिए मठ नहीं बनानी चाहिए. इससे प्रपंच बढ़ता है.मकड़ी अपने आप ही जाला बनाती है उस  में रहती है और जाले  को फिर अपने अंदर समेट लेती है. ऐसे ही भगवान है जो अपने आप से ही सृष्टि की रचना करते हैं ,उसी में रहते हैं और प्रलय  के समय अपने में ही समेट लेते हैं. भगवान के अलावा संसार में कुछ है ही नहीं.कृष्ण ने गीता में भी यही समझाया है कि संसार में भगवान के अलावा कुछ नहीं है, जैसे सूत  की मणियां  सूत  के धागे में पिरोई  हुई होती है ऐसे ही यह संपूर्ण संसार भगवान में ही ओत प्रोत है--7.7

भगवान आगे  राजा यदु को समझाते हैं कि मनुष्य यदि एकाग्र रूप से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त हो जाता है.किसी भी भाव से-- भय क्रोध  प्रेम या भक्ति . उदाहरण भृंगी का देते हैं जो कीड़े को दीवार में बनाए हुए अपने मिट्टी के बिल में बंद कर देता है. कीड़ा  भृंगी  के बारे में ही सोचता रहता है कि  भृगीं  कर उसे खा नहीं ले. ऐसा करते करते  कीड़ा भृङ्गि  का ही रूप ले लेता है. ऐसा  ही  सिद्धान्त नारदजी  ने युधिष्ठिर  को समझाया है  ,शिशुपाल के प्रसंग में. शिशुपाल का जब कृष्ण ने वध  किया तो एक ज्योति निकलकर के कृष्ण में समा गई.7.1.25-31 और ,शुकदेव जी ने परीक्षित राजा को समझाया-- 10.29.14,15.  गीता में भी श्री कृष्ण ने बताया है कि देवताओं की भक्ति करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और भगवान की भक्ति करने वाले भगवान को--7 .23,9.25.ऐसा ही सिद्धांत पतंजलि योग में विभूति पाद के सूत्र 23 और 24 में बताया गया है कि जिस में मन का संयम किया जाता है उसके गुण हम में जाते हैं. दत्तात्रेय जी हमें यह समझा रहे हैं कि की हर समय मन भगवान में रखना चाहिए, इससे हम भगवान जैसे हो जाएंगे यानी भगवान को प्राप्त कर लेंगे. [कुछ ऐसी ही बात गीता में भी श्री कृष्ण ने अर्जुन को बार-बार समझाइए है--18.65 ,8.7,12.8... ]. भगवान जैसे गुण जाएंगे, भगवान का आनंद जाएगा, ऐसा आनंद जो अनंत मात्रा का है, प्रतिक्षण वर्धमान है और अनंत काल के लिए है.
इस प्रकार दत्तात्रेय भगवान ने इस अवतार में 24 गुरुओं से शिक्षा ली[ भगवान और मकड़ी  को अलग अलग माने तो गुरु 25 भी गिने जा सकते हैं है , वैसे इन्होंने अपने शरीर को भी गुरु माना हैl  शरीर को इन्होंने अन्य बताया है परंतु इसका बहुत महत्व है क्योंकि मानव शरीर से ही भगवत्प्राप्ति  होती है ] .
 सबका सार  इतना सा ही है की हम आत्मा है, शरीर नहीं है. शरीर और आत्मा अलग अलग है.आत्मा चेतन है ,एक ही रस  में सब जगह  है, शरीर जड़ है और परिवर्तनशील है. आत्मा और शरीर में ना कोई संबंध है ,ना कोई हो ही सकता है. केवल आत्मा ने शरीर को अपना मान रखा है जिस से ही सारा प्रपंच है. संसार के विषय-भोगों  से आसक्ति  छोड़ो, संसार कभी भी किसी को प्राप्त नहीं हो सकता.  अपने स्वरुप में स्थित हो जाओ. सब जगह एक आत्मा को देखो.
 इनका रंग  गोरा था, इस अवतार में  भगवान ने तीन मुख रखें,   प्रायः चित्रों में इनको कुत्तों  के साथ दिखाया जाता है. इन्होंने दक्षिण में जाकर उपासना की है .वहाँ  इनका सिद्ध पीठ है.इस अवतार में भगवान ने मुख्यतः ज्ञान का उपदेश दिया है ,वह भी विशेषकर योग्  का. इन्होंने योग से किस प्रकार रोगों को ठीक करें यह भी जाबाल दर्शन में बताया है…(क्रमश:)


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