राधा तत्व को भी समझ ले l कृष्ण और राधा दो नहीं एक है l जो कृष्ण हैं वही राधा हैं , जो राधा हैं वही कृष्ण हैं l दोनों अभिन्न हैl इन्हें शक्ति और शक्तिमान माने तो भी यह दोनों एक ही हैं क्योंकि शक्तिमान से शक्ति अभिन्न है, अलग नहीं हो सकती-- विष्णु पुराण 6/7/61 l राधा जी स्वयं हमें ब्रह्म वैवर्त पुराण में समझाती है कि उनके पुरुष शरीर वाले रूप को कृष्ण कहते हैं ; इसी प्रकार देवी भागवत के अनुसार वाम अंश को राधा और दक्षिण अंश को कृष्ण कहते हैं --स्कन्द 9 /अध्याय 2 ; राधिका तापनीय उपनिषद कहता है कि राधा कृष्ण के दो
होने का प्रश्न ही नहीं उठता उनके दो शरीर भी नहीं है; सनत कुमार संहिता के अनुसार राधा कृष्ण हैं और कृष्ण राधा हैं l राधा उपनिषद में ब्रह्माजी सनकादिक कुमारों के प्रति कथन करते हैं कि राधा वह हैं जिनकी आराधना अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक श्रीकृष्ण करते हैं l इसी तथ्य को श्रीकृष्ण ने ब्रह्मांड उपनिषद में माना है कि वह केवल राधा तत्व की ही आराधना करते हैं और स्मरण रहे कि श्वेताश्वर उपनिषद6/7के अनुसार श्री कृष्ण समस्त देवों के ईश्वर हैं ;कृष्ण द्वारा आराधना करने के कारण ही यह राधा है l यह उपनिषद् भी राधा और कृष्ण को एक और अभिन्न बतलाता है l राधिका तापनीय उपनिषद समस्त देवी-देवताओं की शक्ति राधा से बताता हैl
और एक बात फिर से समझ लें कि श्री कृष्ण का श्री विग्रह इतना सुंदर था कि सारा संसार तो उस पर मोहित होता था ही, स्वयं कृष्ण भी अपने आप पर मोहित हो जाते थे --3/2/12 l
इनकी,गोपियां ,राधा तथा श्री कृष्ण की, कृपा के बिना रासलीला को समझना संभव नहीं है ! गोपियों वास्तव में कौन हैं इस संबंध में कुछ चर्चा अवतार के प्रसंग में की गई है l अब थोड़ी और कर लें। कृष्ण उद्धव को बताते हैं कि गोपियों ने मन और प्राण श्रीकृष्ण को अर्पण कर रखे हैं ...कृष्ण के गोकुल लौटने के संदेश के भरोसे ही गोपियां जीवन धारण करे हुए हैं...10/46/4-6 l श्रीमद् भागवत में यह भी आया है कि गोपियों का चित् सर्वदा भगवान में रहता था, घर के कामकाज करते समय भी उनका मन भगवान में रहता l काम करते समय भी वह कृष्ण का गान करती थी और आंसू बहाती थीं ...10/44/14-16 l जो प्रसाद गोपियों को मिला वह लक्ष्मी जी को भी नहीं मिला--,10/47/59- 60 l उद्धवजी कृष्ण का संदेश लेकर गोपियों के पास उन्हें ज्ञान देने की नियत से गए थे परंतु कृष्ण के प्रति उनका प्रेम देखकर स्वयं भक्ति के रस में बह गए ,उनकी चरण धूलि को सिर पर चढ़ाया.---10/47/59-63 l जिसे रास लीला को सही ढंग से समझना है वह राधा, कृष्ण और गोपियों की शरण में जाए l नित्य कृष्ण का नाम जपे ,उन की लीलाएं सुनें ,पढ़ें और दूसरों को सुनाएं। यह करने से उसका अंतःकरण शुद्ध होगा और वह रास लीला समझने के लिए कुछ कुछ समर्थ हो जाएगा। इसके अलावा गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार का साहित्य रासलीला के संबंध में अवश्य पढ़ें। शुकदेव जी ने परीक्षित राजा को समझाया कि जो कोई भी रासलीला का श्रद्धा के साथ बार-बार श्रवण और कीर्तन करता है उसे भगवान के चरणों में परा भक्ति की प्राप्ति होती है और ऐसा मनुष्य अति शीघ्र अपने हृदय के रोग, काम विकार, से छुटकारा पा जाता है--- उसका काम भाव सर्वदा के लिए नष्ट हो जाता है--10 /33 /40 l हाथ कंगन को आरसी क्या ? करके देख लो l
आध्यात्मिक जगत में भी भौतिक जगत जैसे नियम होते हैंl भगवान ने अपना नियम भागवत में अक्रूरजी व नारदजी द्वारा व श्रीमद भगवत गीता में अर्जुन को स्पष्ट समझाया है l जो बुद्धि हीन मनुष्य भगवान के परम अविनाशी सर्वश्रेष्ठ भाव को नहीं जानते और उन्हें साधारण मनुष्य समझते हैं, उनके समक्ष भगवान अपना असली रूप प्रकट नहीं करते,अपनी योगमाया के परदे में अपने आप को छुपा लेते हैंl जो उन्हें जिस भाव से भजता वे भी उसे उसी भाव से भजते हैं उसी प्रकार का आश्रय देते हैं --- गीता 7/24-25, भाग .10/38/22, व 7/1/29
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यज्ञ करने वाले ब्राह्मण और उनकी पत्नियों से संबंधित श्री कृष्ण की लीला को समझने के लिए उपरोक्त कानून को दृष्टिगत रखना होगा l एक बार भगवान ग्वाल बालों के साथ
वन में गाय चरा रहे थे l उन्होंने अपने साथियों को ब्राह्मणों के पास भेजा जो एक यज्ञ कर रहे थे और उनसे कुछ भात की याचना की l यह ब्राह्मण श्री कृष्ण को साधारण मानव मानते थे और स्वयं के कर्मकांड वाले ज्ञान पर गर्व रखते थे l ब्राह्मणों ने देने से मना कर दिया l अपने साथियों को दूसरी बार श्रीकृष्ण ने यज्ञ- पत्नियों , इन ब्राह्मणों की पत्नियों ,के पास भेजा l ब्राह्मणों की पत्नियों का मन श्रीकृष्ण में लगा हुआ था l कृष्णा का नाम सुनते ही यह सब स्वादिष्ट व्यंजन लेकर गवाल बालों के पीछे चल पड़ी जैसे कि नदी समुद्र से मिलने के लिए चलती है l अपने पति,पुत्र ,भाई- बंधु सब को छोड़ कर चल पड़ीं , रोकने पर भी नहीं रुकीं । कृष्ण के प्रेम में रंगी हुई थी, भीगी हुईं थींl वन में जहां कृष्ण बलराम घूम रहे थे वहां पर यह पहुंच गईं l मानसिक रूप से कृष्ण का आलिंगन किया। कृष्ण ने इन लोगों से भी वही कहा जो कि
गोपियों से कहा था-- “अब तुम लोग मेरे दर्शन कर चुकी हो , अपने पतियों के पास लौट जाओ, वह लोग गृहस्थ हैं उनका यज्ञ तुम्हारे बिना पूर्ण नहीं होगा। ’’ ब्राह्मण पत्नियों ने कहा , “हम आप की शरण में आ गए हैं l हमें और किसी का सहारा नहीं है l ऐसी व्यवस्था करें कि हमें दूसरे की शरण में ना जाना पड़े।’’ यह लक्षण अनन्य भक्ति के हैं l कृष्ण ने उन्हें यह कहकर विदा किया कि उनका कोई भी तिरस्कार नहीं करेगा, सारा संसार उनका सम्मान करेगा। यह भी सीख दी कि वे
अपना मन श्री कृष्ण में लगा के रखें।चाहे यज्ञ पत्नियां हो, या गोपियां हो, या अर्जुन हो या उद्धव सब को ही भगवान ने साकार रूप में मन लगाने के लिए कहा है---गीता8 /7 ,12 /२. l इसका कारण अवधूत दत्तात्रे जी ने यह बताया है कि प्राणी का मन जिस व्यक्ति या वस्तु में लग जाता है और निरंतर जिस वस्तु का चित्नन किया जाता है,चाहे जिस भाव से…. प्यार से ,डर से खार से, या कामना से..... उसी का रूप प्राप्त हो जाता है उस प्राणी को---11 /9 /22. l इस प्रसंग में ब्राह्मणों तथा ब्राह्मण पत्नियों की मानसिकता में अंतर था. पतिगण तो श्री कृष्ण -बलराम को साधारण मानव समझते थे इसलिए उन्हें भोजन देने से इंकार कर दिया। जबकि ब्राह्मणों की पत्नियां कृष्ण की लीलाऐं सुन-सुनकर उनके दर्शन की अभिलाषिणी
बन चुकी थी l उन्हें केवल कृष्ण की ही कामना थी l कृष्ण ने इसीलिए उन्हें अपनी मानसिक भक्ति करने का आदेश दिया और समझाया कि इस जगत में उनका अङ्गसङ्ग ही मनुष्यों में उनमें प्रेम का कारण नहीं है---10 /23 /32 .( भगवान में मन लगाने की बात भगवान ने कई बार गीता में भी कही है यथा 8 /7 , 9 /34 . ) एक ब्राह्मण पत्नी को बलपूर्वक रोक लिया गया था l उसने मन ही मन कृष्ण के रूप का ध्यान किया ,मन ही मन भगवान का आलिंगन किया और अपने स्थूल शरीर को छोड़ दिया, दिव्य शरीर से भगवान की सन्नधि प्राप्त की l बाद में जब ब्राह्मणों को मालूम पड़ा कि श्री कृष्ण स्वयं भगवान है तब वे बहुत पछताए। कंस के डर से यह ब्राह्मण लोग भगवान का दर्शन करने भी ना जा सके l इससे हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि भगवान प्रेम से मिलते हैं भाव से मिलते हैं l प्रेम तो कर्मकांड ,यज्ञ आदि से ऊपर है l विचित्र बात यह भी है कि व्रज की गोपियों संग रास किया और कुब्जा द्वारा मांगने पर भगवान द्वारा अंग संग भी दिया गया था ;परन्तु ब्राह्मणियों को इससे वंचित रखा --10/48/9-11 l अर्जुन को युद्ध करने के लिए कहा, उद्धव जी को बद्रीका आश्रम भेजा श्रीकृष्ण ने; राम ने मर्यादा का पालन किया,सीता का त्याग किया; परंतु बाली को छुप कर मारा। भगवान की बातें भगवान ही जान सकते हैं, या वे महापुरुष जिन पर भगवान कृपा करें !
शिवजी सबसे बड़े वैष्णव माने जाते हैं; परंतु इन्होंने भी कृष्ण से युद्ध किया l राजा बलि के सौ पुत्र थे उन में सबसे बड़ा ,बाणासुर, शिव जी का भक्त था l एक बार जब शंकर जी तांडव नृत्य कर रहे थे तब बाणासुर ने अपने हजार हाथों से भिन्न भिन्न प्रकार के बाजे बजा कर शिवजी को प्रसन्न कर दिया। शिवजी ने बाणासुर को उसके मांगने पर उसकी नगरी सोनितपुर की रक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया। बाणासुर रुद्र का भक्त था और इंद्र आदि देवता उसकी सेवा में रहते थे l बाणासुर की लड़की थी उषा l उसने एक दिन स्वप्न में श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध को देखा।एक बार उषा ने शिव पार्वती को क्रीड़ा करते हुए देख लिया था l उसके मन में भी वैसा सुख पति से लेने की आई lसब
के मन की बात जानने वाली पार्वती जी ने उसे आश्वासन दिया कि उसे भी ऐसा अवसर मिलेगा। विष्णु पुराण के अनुसार पार्वती जी ने उषा को कहा,’’ वैशाख मास की शुक्ल पक्षकी द्वादशी को सपने में जो व्यक्ति तुम्हारे पास आएगा वही तुम्हारा पति बनेगा।’’ उषा की एक सहेली का नाम चित्रलेखा था जो कि बाणासुर के मंत्री की लड़की थी l उस में योग की शक्तियां थीं l उसने विभिन्न देवताओं, गंधर्व, सिद्धू ,मनुष्य आदि के चित्र
बनाकर उषा को दिखाएं। उषा ने अनिरुद्ध को पहचान लिया और चित्रलेखा द्वारका में जाकर पलंग समेत अनिरुद्ध को उठाकर सोनितपुर में ले आई l अनिरुद्ध उषा के साथ वही रहने लग गया. उषा की अंतः पुर की सेविकाओं ने राजा बाणासुर को सूचित किया कि उषा कुमारी नहीं रही है l बाणासुर आग बबूला हुआ और उसने अनिरुद्ध को कैद कर लिया। उधर द्वारिका में चिंता हो गई ,अनिरुद्ध की ढूंढ मच गई l चार महीनों से वह लापता थे l नारदजी से जब पता लगा तब श्री कृष्ण एक भारी सेना लेकर सोनितपुर पहुंच गए l क्योंकि बाणासुर की नगरी की सुरक्षा का भार शंकर जी पर था, इसलिए शंकर जी बाणासुर की ओर से कृष्ण के विरुद्ध लड़ने आए l बहुत घमासान युद्ध हुआ l अपने आप को हारते हुए देख कर शंकरजी ने तीन सिर, तीन पैर , नौ आंखों वाला अपना ज़्वर श्रीकृष्ण की सेना पर छोड़ा। श्रीकृष्ण ने अपना वैष्णव ज़्वर छोड़ा। वैष्णव ज़्वर ने शिवजी के ज़्वर को दबोच लिया। त्राहि त्राहि कर उठा l रक्षण नहीं मिला कहीं पर भी l अंत में श्री कृष्ण की शरण में आया l कृष्ण ने क्षमा कर दिया। शिवजी तभी बाणासुर को लेकर कृष्ण के पास पहुंच गए और बाणासुर के प्राणों की भीख मांगी। कृष्ण ने कहा कि वह बाणासुर को वैसे भी नहीं मारते क्योंकि यह प्रहलाद के कुल का है l परंतु इसका घमंड चूर करने के लिए उन्होंने इसके दो के अलावा समस्त बाहें काट दीं।
श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती के अनुसार शिव जी ने भगवान श्री कृष्ण के आनंद और उत्साह वर्धन के लिए युद्ध किया। और यह बतलाने के लिए भी युद्ध किया कि श्री कृष्ण का अवतार अन्य अवतारों से श्रेष्ठ है हाँलाकि वे मनुष्य जैसे लीलाएं करते हैं l
शुकदेव जी का वचन है कि जो प्रातः काल उठकर शंकर- कृष्ण के युद्ध का स्मरण करता है उसकी पराजय नहीं होती---1o/63/53 l
जिन शिवजी ने श्रीकृष्ण के साथ युद्ध किया उन्हीं शिव जी का संकट मोचन भी श्री कृष्णा द्वारा ही किया गया l वृकासुर शकुनि का पुत्र था, बिगड़ी बुद्धि वाला था l नारद जी से यह जानकर कि शिव जी बहुत जल्दी प्रसन्न होकर वर दे देते हैं, उसने केदार क्षेत्र में जाकर घोर तपस्या की l अपने शरीर का मांस काट-काट कर अग्नि में हवन करने लगा l कुल्हाड़ी से अपना सिर काटने के लिए ,अग्नि में हवन करने के लिए ,अग्रसर हुआ l शिवजी ने उसे आकर रोक लिया l शिव जी हवन की अग्नि में प्रकट हो गए और दोनों हाथों से उसकी कुल्हाड़ी को पकड़ लिया l शिवजी का स्पर्श होने से उसके अंग पहले के समान हो गए। शिवजी ने उसे समझाया कि उसने व्यर्थ ही अपने शरीर को कष्ट दिया है क्योंकि जो लोग शरण के लिए शिव जी के पास आते हैं शिवजी उन द्वारा दिए गए जल से ही प्रसन्न हो जाते हैं---10 /88 /20 l. ऐसे ही वचन कृष्ण ने गीता में कहे हैं कि श्री कृष्ण भक्त द्वारा भेंट किए गए फल, फूल, पत्ते, पानी सब कुछ खा जाते हैं---9 /26 . उसने शिवजी को प्रसन्न कर लिया l वरदान भी अद्भुत मांगा कि वह जिसके सिर पर हाथ रखे वह भस्म हो जाए l शिव जी ने यह वर दे दिया l बिगड़ी हुई बुद्धि वाला असुर सोचने लगा कि शिव जी को मारकर वह पार्वती जी को ले लेगा l वर की परीक्षा हेतु शिवजी के सिर पर हाथ रखने का प्रयत्न करने लगा l भयभीत होकर शिवजी भागे. बड़े बड़े देवता भी इस संकट को टालने में असमर्थ थे l अंत में शिव जी वैकुंठ में भागते-भागते पहुंचे l भगवान ने शिव जी को संकट से बचाने के लिए ब्रहमचारी का रूप धारण किया और शिवजी के पीछे भागते हुए वृकासुर के पास पहुंचे l बहुत ही मीठे और लुभावने स्वर में भगवान ने कहा :’’ शिव जी के पास कोई शक्तियां नहीं है. प्रजापति के शाप से यह पिशाच भाव को प्राप्त हो गए हैं और अपने आप को आजकल पिशाचों का सम्राट मांनते हैं l शिवजी ने आप से झूठ बोला है। यदि आप उसकी बातों पर विश्वास करते हो तो अपने सिर पर हाथ रख कर देख लो ,और शिव जी की बात झूठ निकले तो शिवजी को मार डालो।’’ असुर ऐसा मोहित हुआ कि उसने अपने सिर पर हाथ रख दिया। उसका सिर फट गया ,वह मर गया, धरती पर गिर गया l शुकदेव जी के अनुसार भगवान श्री कृष्ण की यह लीला सुनने वाला संसार के बंधनों और शत्रुओं के भय से मुक्त हो जाता है---10 /88 /4 l इस प्रकरण से हमें शिक्षा मिलती है कि भगवान विष्णु भक्तों को वहीं वर देते हैं जो भक्त के हित का हो l ब्रह्मा और शिव कई बार बिना सोचे विचारे ही भक्तों को वर दे देते है l. इनके वरों से भक्तों को ऐश्वर्य और साम्राज्य प्राप्त होते हैं परंतु भक्त मोक्ष/भक्ति की ओर अग्रसर नहीं हो पाता और विषय-भोगों में ही डूब जाता है l पाप करने लगता है l इसके विपरीत विष्णु, भक्तों के भले के लिए ही ,भक्तों को अपनी ओर अग्रसर करने के लिए ही, उनका धन ,ऐश्वर्य छीन लेते हैं l जिसका मन धन संपत्ति में और सांसारिक भोगों में है वह भगवान को नहीं पा सकता l ईसाई धर्म के अनुसार भी ऐसे मनुष्य के लिए भगवान के धाम में जाना मुश्किल हैl एक ऊंट के लिए सुई के छेद में निकल जाना आसान है; परंतु ऐसे मनुष्यका भगवत धाम में जाना मुश्किल है l ऐसा आता है बाइबिल में भी--लुका luke 18/25 l और भक्तों का मन अपनी ओर खींच लेते हैं, उन्हें विषय-भोगों से और संसार से विमुख कर देते हैं,यह स्वं भगवान कहते हैं,सखा सुदामा कहता है और भक्त वृत्रासुर भी कहता है --- 10/27/16.,…( क्रमशः)
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