अवतार : भाग 1


अवतार से संबंधित इस लेखक का  साइट www.primelements.com पर विस्तार में एक लेख़ है, अंग्रेजी भाषा में.

अवतार का अर्थ है नीचे उतरना, अवतरित होना.जो दीख नहीं रहा था उसका व्यक्त होना, पादुर्भाव होना.

भगवान द्वारा अवतार लेने के बहुत से कारण बताए जाते हैं, धरती का भार उतारना भी एक कारण है.जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब भगवान अवतार लेते है ,भक्तों की रक्षा और पापियों के विनाश के  लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए . कुंती कहती हैं  कि जो  मनुष्य संसार में अज्ञान कामना और कर्मों के बंधन से पीड़ित हैं ,उन लोगों के लिए श्रवण और स्मरण करने योग्य लीला करने के लिए ही भगवान अवतार लेते हैं, भक्तजन बार-बार भगवान के चरित्र का  श्रवण कीर्तन और स्मरण करके आनंदित  होते रहे और भवसागर से पार हो जाए. यह भी भगवान का  अवतरित होने का कारण है. स्वयं कृष्ण भी उद्धव  को समझाते हैं कि कुछ गोपियां जो उनके रास विहार में सम्मिलित नहीं हो पाई थीं  क्योंकि स्वजनों द्वारा रोकी गई थी, वह श्री कृष्ण की लीलाओं का स्मरण करने से ही श्री कृष्ण को प्राप्त हो गई थीं ---10 /47 /37 .

अवतार के समय भगवान का शरीर हमारे शरीर जैसा पंचभूतों से बना प्राकृतिक,मायिक , शरीर नहीं होता, अप्राकृतिक  और चिन्मय होता है  . भगवान माता के गर्भ से कर्म-बन्धन के करण  पैदा नहीं होते बल्कि प्रकट होते हैं.  इसे प्रकट होना,पादुर्भाव  कहते हैं. प्रतीति ऐसी होती है जैसे पैदा हुए.  लीला के पश्चात शरीर के साथ ही भगवान अपने धाम को चले जाते हैं. इसे अविर्भाव कहते हैं.हमारे शरीर की तरह उनके शरीर का विनाश और उत्पत्ति नहीं होती।  भगवान के  शरीर में  शरीर-शरीरी  का  भेद   भी नहीं होता. जैसे साधारण शरीर का  अभिमानी जीवात्मा  होता है, ऐसे भगवान के शरीर का कोई अभिमानी नहीं होता.  समाधान यह  है कि जब जीवन- मुक्त ही  देह-अभिमानी के बिना समस्त कार्य कर लेता है तब भगवान क्यों नहीं कर सकते.  भगवान का अवतार काल में शरीर दिव्य होता है और इस शरीर  के सारे कार्य  परमात्मा द्वारा किए जाते हैं या यह कह सकते हैं कि  परमात्मा की  सत्ता- स्फूर्ति से समस्त कार्य होते हैं. अब यह भी प्रश्न कभी-कभी उठाया जाता है कि जो सब जगह है वह एक देशीय  कैसे हो सकता है , एक शरीर में  कैसे रह सकता है? इसे यूं समझा जा सकता है कि  अग्नि निराकार रूप में  उस हर स्थान पर  विद्यमान है जहां लकड़ी है. जब किसी एक विशेष स्थान पर प्रकट अग्नि को आहुति दी जाती है, तो इसका मतलब यह नहीं निकाला जा सकता कि अग्नि  केवल एक ही जगह है और बाकी जगह की  लकड़ियों में अग्नि नहीं है. यूँ तो  भगवान सर्वव्यापी हैं, सब जगह है; परंतु, अवतार शरीर में  विशेष रुप से हो सकते हैं, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं. जैसे  जीवात्मा जो शरीर धारण करता है उस सारे शरीर में ही रहता है.  विशालकाय जीव जैसे डायनासोरस (dinosaurus )या हाथी की  सारे शरीर में ही, जीवात्मा व्याप्त है. परंतु यह विशेष रूप से हृदय में रहता. ऐसे ही सर्वव्यापी परमात्मा विशेष रुप से एक शरीर अवतार हेतु धारण करते हैं.इसका यह अर्थ  नहीं होता कि बाकी के स्थान परमात्मा से रिक्त हो गए हैं, उनका आभाव हो गया है. भगवान के अवतार हर योनि में होते हैं. बाइबिल में शब्द का शरीर बनना वर्णित है (word made flesh)---john 1 /10 ,14 .

विराट पुरुष को प्रथम अवतार कहा गया है ,सृष्टि के आरम्भ में महत्तत्व आदि २३  तत्वों में भगवान द्वारा प्रवेश करने पर इसकी उत्तपत्ति होती है --3/6/1-8.

अवतार कई प्रकार के होते हैं .जब भगवान स्वयं  आते  हैं  तो विमावतार कहलाता है . यह साक्षात और आवेश ,दो प्रकार का होता है. आवेश भी दो प्रकार का होता है --शक्ति आवेश रूप आवेश . पहले में केवल भगवान की शक्ति आती है किसी प्राणी में ;दूसरे में किसी प्राणी  के शरीर में भगवान  प्रवेश करते हैं ,जिसमें  प्रवेश करते है वह भगवान बन जाता है. भगवान की शक्तियाँ अनन्त हैं परन्तु  धरती पर  अधिकत्तम १६ कला अवतार ही होता है .इससे अधिक की आवश्यकता नहीं .  जब कला से अवतार होता है तो कलावतार कहलाता है ,जैसे एक ,दो,तीन अादि कलावतार. अवतार में जब कला /१६ होती  है तब अंशावतार जाना जाता है . इससे कम वाला विभूतिअवतार है . सब ही अवतारों में शक्ति समान होती है,जिस काल में जितनी शक्ति की आवश्कता होती है उतनी शक्ति का ही प्रयोग किया जाता है बाकि प्रयोग में नहीं लाई जातीं  . अस्तु १६ कला के कृष्णावतार , कला  के रामावतार,मोहनी अवतार  और परशुरामावतार सब बराबर है और भगवान हैं . पूर्णावतार में भगवान चतुर्-व्यूह में अवतरित होते हैं . वासुदेव, बलराम, प्रदयुम्न और अनिरुद्ध --यह कृष्णावतार के व्यूह  हैं और राम,लक्मण ,भरत शत्रुघन यह रामावतार के .  गुणवतार गुणों पर हैं --विष्णु सतगुण ,ब्रह्मा रजोगुण और रूद्र तमोगुण . यह स्थायी अवतार हैं . युगावतार हर युग में जैसे राम हर त्रेता में कृष्ण हर द्वापर में; कल्पावतर हर कल्प में आते हैं .

   अर्चावतार में भक्त चित्र या मूर्ती में भगवान को  मानता है .1 यह स्वयं प्रकट भी होते हैं ,जैसे श्री रंगजी प्रयाग में ;2 ब्रह्मा,देवतादि द्वारा स्थापित यथा  माधव काशी में, राम माधव हस्ती शैल में ; 3 महापुरुषों द्वारा स्थापित,जैसे राजा शिवि द्वारा विष्णु  नंदपुरी में; 4 फिर साधारण मनुष्य भी जगह-जगह मंदिर बनवाते हैं . इन की शक्तिका घेरा क्रमशः तीन योजन , एक योजन,दो कोस तथा एक कोस होता है . “स्थानम प्रधानम’’ का सिद्धान्त पुष्टि पाता है . मंदिरों में विलक्षणता होती है , ऐसे तो भगवान सर्व वियापी हैं.  

सबके ह्रदय में रहने वाले अन्तर्यामी भी भक्तों को दर्शन देते हैं और लीलाएँ करते हैं . इसे अवतार ही जानें.    
कार्य समाप्त करके अवतार वापिस सशरीर अपने लोक चले जाते हैं . इनका रूप लोगों की भावना की अनुसार दीखता है. सब को एक जैसा नहीं ---सीता-स्वयंवर  में  वही राम-लष्मण अलग -अलग रूपों में  अलग-अलग लोगों को नज़र आए.
   
भगवान के निम्न अवतार बताए गए हैं,भागवतमें;इनका अक्षय स्त्रोत नारायण हैं .( हर कल्प में एक बार स्वयं भगवान अवतार लेते हैं ,५००० वर्ष पूर्व जो कृष्णवतार हुआ वह भगवान का अवतार था ,बाकी  द्वापर युगों में महाविष्णु अवतार लेते हैं . “ कृष्णास्तु स्वयं भगवान.” भगवान नारायण ने ब्रह्माजी को बताया कि सबसे श्रेष्ठ अवतार  एवं परमब्रह्म श्री कृष्ण हैं --गोपाल उत्तर तापनी उपनिषद  )
1 कौमार  सर्ग में सनक ,सनंदन, सनातन सनत्कुमार,
2 शूकर  
3 नारद
4 नर- नारायण
5 कपिल
6 दत्तात्रेय
7 यज्ञरूप
8 ऋषभदेव
9 राजा पृथु
10 मत्स्य
11 कच्छप
12 धन्वंतरि
13 मोहिनीरूप
14  नरसिंह
15 वामन
16 परशुराम
17 व्यास जी
18 राम
19 बलराम
20 कृष्ण
21  बुद्ध
22  कल्कि (बाकी है)
कुछ विद्वान् हंस और हयग्रीव को जोड़कर २४ अवतार गिनते हैं . अन्य कृष्ण को पूर्ण परमेश्वर मानते हैं; कृष्ण अवतारी हैं ,अवतार नहीं .इसके आलावा ,यह मत भी है कि २० अवतार तो जो ऊपर बताए हैं वह हैं, राम-कृष्ण के अतिरिक्त. श्रीकृष्ण के अंश हैं --पहला केश का अवतार ,दूसरा सुतपा  पृश्नि पर कृपा करने वाला ,तीसरा बलराम और चौथा परब्रह्म,इन सबसे  विशिष्ट पांचवें शाक्षात वासुदेव स्वयं भगवान .
 ऐसे देखा जाए तो भगवान के अवतार असंख्य   हैं .

नारद जी को रहस्य की बात समझाते हुए ब्रह्मा जी कहते है:,  ‘’जब संसार की रचना का समय होता है तब तपस्या, नौ  प्रजापति, मरीची आदि ऋषि और मेरे [ ब्रह्मा] रूप में; जब सृष्टि की रक्षा का समय होता है तब धर्म, विष्णु, मनु, देवता और राजाओं के रूप में तथा जब सृष्टि के प्रलय  का समय होता है तब अधर्म, रूद्र तथा क्रोधवश नाम के सर्प एवं दैत्य आदि के रूप में सर्वशक्तिमान भगवान की माया विभूतियां ही प्रकट होती हैं’’....2.7.39.
                                        सनकादिक अवतार
कुमार  सर्ग में  चार कुमारों को ब्रम्हाजी ने उत्पन्न किया. यह सबसे पहले-पहले ब्रह्मा जी के पुत्र हुए. इनके नाम सनक , सनंदन, सनातन और सनत्कुमार थे. ये शंकरजी के भी अग्रज हैं .  इन्हें विद्वान लोग भगवान के शक्ति आवेश अवतार  मानते हैं, इन्होने आत्म ज्ञान का उपदेश दिया.राजा पृथु को इन्होंने समझाया :

तुममैं वही हूँऐसा जानो .’’ इनका सिद्धांत अभेदवाद है --- जीव और ब्रह्म एक हैं . आगे चलकर नारदजी को इन्होंने भागवत सप्ताह यज्ञ की विधि भी समझाई-- महात्म्य   -अध्याय 6 . एक बार यह वैकुंठ में भगवान से मिलने गए, भगवान के पार्षद जय विजय ने इन्हें द्वार पर रोक दिया. नाराज होकर इन्होंने उन्हें शाप  दिया कि वे  वैकुंठ  से गिर जाएं; जय और विजय तीन बार असुर बने और तीनों ही बार भगवान के हाथों से उनका वध हुआ.

हिरण्याक्ष  का वध  शूकर भगवान ने किया. हिरण्यकश्यपु का  नरसिंह भगवान ने, राम अवतार में रावण और कुंभकरण का भगवान राम ने, कृष्ण अवतार में शिशुपाल और दंतवक्त्र  का श्रीकृष्ण ने किया. इन्होंने राजा पृथु को उपदेश दिया जिसका वर्णन हम ने ऊपर किया और आगे करेंगे,पृथु केप्रसंग में .  

एक बार उन्होंने ब्रह्मा जी से प्रश्न किया: “पिताजी! चित् विषयों में घुसा रहता है अर्थात  गुणों  में घुसा रहता है, गुण भी   चित् की एक-एक वृत्ति  में समाए  रहते हैं ,मुक्ति की प्राप्ति के लिए इन दोनों को अलग अलग कैसे किया  जाए?’’ ब्रह्मा जी उत्तर ना दे सके, भगवान को याद किया, भगवान हंस के रूप में प्रकट हुए.और सनकादिक को आत्म ज्ञान का उपदेश दिया. जगत को मन का विलास बताया. शरीर और आत्मा को अलग अलग बताया . आत्मा के आनंद में रहने के लिए कहा. जैसे जगा  हुआ  व्यक्ति  स्वप्न अवस्था के शरीर वस्तु आदि को सत्य नहीं मांनता, वैसे ही योग में आरूढ़ मनुष्य आत्म वस्तु का साक्षात्कार करने पर स्त्री ,पुत्र, धन आदि  प्रपंचों को अपने शरीर को अपना नहीं मानता. स्वयं को शरीर से भिन्न मानने लग जाता है. भगवान ने स्वयं को योग, सांख्य  ,सत्य, तेज, श्री ,कीर्ति ,दम आदि सब का आश्रय बताया और कहा कि सारे गुण उनमें ही प्रतिष्ठित हैं परंतु वे सब गुणों से रहित हैं.11. 14. 17-42 .संसार सागर पार करने हेतु भगवान के चरर्णो को नौका बनाने की सलाह देते हैं . यह सब स्थानो पर बेरोक टोक आते जाते हैं .
……(क्रमश:)

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