पौराणिक भारत 1 : भाग ङ


ब्राह्मण का बहुत आदर थाइनकी श्रेष्ठता का कारण नारदजी ने समझाया है युदिष्ठिर को .“यह तपस्या,विद्या और संतोष अदि गुणों से भगवान के वेदरूप शरीर को धारण करता है l.सबकी आत्मा कृष्ण के इष्टदेव ब्राह्मण हैं ’’--7/15/41-42 .  द्रौपदी ने इन्हें पूजनीय बताया है--1 /7 /43 -45. भगवान विष्णु ने इन्हें अपना आराध्य बताया है--- /16/4... भगवान के अवतार ऋषभदेव जी ने ब्राह्मणों को स्वयं भगवान से भी श्रेष्ठ बताया  है.  जानवर से श्रेष्ठ मनुष्यमनुष्यों से श्रेष्ठ प्रथम गण,उनसे गंधर्वगंधर्वों से श्रेष्ठ सिद्ध गण , सिद्धों से किन्नर किन्नरों से असुरअसुरों से देवतादेवताओं से श्रेष्ठ इंद्रइंद्र से श्रेष्ठ प्रजापतिगणइनसे श्रेष्ठ रूद्र भगवानरूद्र से श्रेष्ठ ब्रह्मा जी क्योंकि रूद्र ब्रह्मा से उत्पन्न हुए हैंइन सब से श्रेष्ठ भगवान क्योंकि ब्रह्मा जी भी भगवान से ही उत्पन्न हुए हैऔर ब्राह्मण भगवान ऋषभदेव से भी श्रेष्ठ क्योंकि भगवान ऋषभदेव ब्राह्मणों को पूजनीय मानते हैं---5/5/22.  ब्राह्मण को मृत्यु दंड देने का प्रावधान नहीं थाइसीलिए कृष्ण ने अश्वत्थामा को छोड़ने के लिए कहां थामारने के लिए नहींब्राह्मण की हत्या करना बहुत बड़ा पाप माना जाता थास्वर्ग का राजा इंद्र भी ब्रहम हत्या से  परेशान हो गया था-- 6 /13 /5 .  भगवान के अवतार बलराम जी को भी सूतजी  जी को मारने पर ब्रह्म हत्या का सामना करना पड़ा था.स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद् भागवत में कहा है जो ब्राह्मण घर में रहकर अपने महान धर्म का निष्काम भाव से पालन करता है और खेतों में तथा बाजारों में गिरे पड़े दाने चुनकर संतोष पूर्वक अपने जीवन का निर्वाह करता हैसाथ ही  अपना शरीरप्राण ,अंतः करण और आत्मा मुझे समर्पित कर देता है और कहीं भी अत्यंत्र  आसक्ति नहीं करता वह बिना सन्यास लिए ही परम शांति स्वरूप परम पद प्राप्त कर लेता है--11/17/43. ब्राह्मण  वह कहलाते  थे जिन्होंने  ब्रह्म को प्राप्त किया हुआ  थाऔर जिनके कर्म भी ब्राह्मणों जैसे थे अर्थात इंद्रियों को वश में करनाधर्म पालन के लिए कष्ट सहनाबाहर से और भीतर से साफ रहनादूसरों के अपराध को क्षमा करनावेद शास्त्र का ज्ञान होना और उनमें आस्तिक भाव रखनापढ़ना-पढ़ाना आदि--- गीता 18 /42. पृथु ने कहा है कि ब्र्हामण के मुख से यज्ञीय देवता हवन किये हुए पदार्थ अधिक  चाव से ग्रहण करते है,अग्नि में होमे हुए द्रवों की अपेक्षा--4/21/40-41 . वेद की परंपरा को यथावत  रखने के कारण अर्थात वेदों को ज्यों का त्यों एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को पहुँचाने   में ब्राह्मणों का ही हाथ था और इसी कारण वे सबके पूजनीय थे और सभी वर्णों के अपने माने जाते थे .
 क्योंकि अलग-अलग वर्णों के कार्य बटे  हुए थेइसलिए आपस में स्पर्धा नहीं थीवर्ण एक दूसरे की जीवन समृद्धि के लिए पूरक थे,एक दूसरे पर निर्भर भी थे सामान्तः एक वर्ण  से दूसरे वर्ण में नहीं जाया जा सकता थापरंतु  वर्णपरिवर्तन के विश्वामित्र के अलावा अन्य उदाहरण भी मिलते हैं जहाँ  एक वर्ण  से दूसरे वर्ण में जाना हुआ हैविश्वामित्र जी के क्षत्रीय होते हुए भी ब्र्हामणों  जैसे कर्म थे.क्षत्रिय राजा ऋषभदेव के 81 पुत्र पुण्य कर्मों का अनुष्ठान करके शुद्ध होकर ब्राह्मण बने थे-- 5/4/13. परंतु एक वर्ण से दूसरे वर्ण में जाना  ज्यादा प्रचलित नहीं था .कृपाचार्यद्रोणाचार्य और परशुराम ब्राह्मण थे परंतु इनके कर्म क्षत्रियों जैसे थेउनके वर्ण परिवर्तन नहीं माने गए थे,  दूसरे वर्ण के कर्म करने पर भी यह लोग जिस वर्ण में पैदा हुए थे उसी वर्ण के माने जाते थे.
 गृहस्थ आश्रम की  महिमा गाई गई हैभोगों को बुरा नहीं माना गया हैभोगों में आसक्ति को गलत बताया हैजिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया है उसका गृहस्थ आश्रम कुछ नहीं बिगाड़ सकताब्रह्मा जी ने राजा प्रियव्रत को उपदेश दिया. “किले में रहने वाला राजा अपने शत्रुओं को आसानी से जीत सकता है.  पहले पुराण पुरुष के दिए हुए भोगों को भोगो  इसके बाद निःसङ्ग  होकर अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाओ” ---5/1/11-19.    गृहस्थ  के लिए लिए धर्मानुसार सभी कार्य करना आवश्यक था। इन सभी कर्मों को भगवान के अर्पण करने के निर्देश थेऐसा करने से गृहस्थ सारे कर्म करता हुआ भी कर्म बंधन से मुक्त हो जाता था.संतोष को सबसे अच्छा मन गया है . जिसके मन में संतोष है उसके लिए सब जगह सुख ही सुख है.
  
अतिथि को भी  देवता माना जाता थाअतिथि देवो भवः .अतिथि उसे माना जाता था जो बिना बुलाए बिना पूर्व सूचना के घर पर  जाता था.चाहें  वह जान पहचान का हो या नहींउसे घर में आश्रय दिया जाता थाभोजन दिया जाता था.ब्रह्म पुराण में कपोत दंपत्ति का प्रसंग  हैकपोत-  कपोती ने एक भूखे और प्यासे व्याघ्र को ,जो उस पेड़ के नीचे बैठा था जहां इनका घोंसला था  ,भोजन देने के लिए अपने आप को अग्नि में समर्पित कर दिया। यह दोनों देवलोक गएइन दोनों को देवताओं जैसा  शरीर प्राप्त हुआ और लेने के लिए विमान आयाइसे अपवाद  समझें क्योंकि नवीन कर्म करने का अधिकार केवल मनुष्य शरीर में है.
 विश्व बंधुत्व की भावना थी..--- वासुदेव कुटुंबः.  
संयुक्त परिवार हुआ करते थे।   अनेक  भाइयों के परिवार एक साथ साझे  में रहते थे ,सबका भोजन एक ही रसोई में बनता था।  वंश परंपरा चलाने हेतु पुत्र प्राप्ति पर विशेष जोर दिया जाता थाजिसके पुत्र नहीं होता था ,चाहें  वह राजा ही होतो वह पुत्र प्राप्ति हेतु यज्ञतप व्रत आदि में लग जाता  था .ऐसे यज्ञ पुत्रेष्टि यज्ञ कहलाते थे.स्त्रियों द्वारा करने वाले  व्रतों  में पुसंवन व्रत और पयोव्रत मुख्य हैं.पहला व्रत  मार्गशीर्ष महीने की प्रतिपदा से आरंभ होता है और  अमावस्या तक तक चलता है.  यह पतिपत्नी दोनों ही कर सकते हैंदूसरा  फागुन मास की प्रतिपदा से शुरू होकर त्रयोदशी को खत्म होता हैपहले का वर्णन श्रीमद्भागवत में छटे स्कंध के 19 वें अध्याय में हैदूसरे का  आठवें स्कंद के 16वें अध्याय में  यह दोनों व्रत वास्तव में शरीर को कष्ट देने वाले ना होकर भगवान की आराधना प्रधान हैंइनसे सारे मनोरथ पूरे होते हैंयूँ  तो भागवत का  आरंभ ही भक्ति के लिए है---1/1/2 ; परंतु बीचबीच में सकाम भक्ति  भी बताई गई है जैसे कि यह व्रतऐसा इसलिए है श्रीमद्भागवत का उद्देश्य हमको भगवत्प्राप्ति में लगाना हैचाहे जैसे हो मन भगवान में लगे तो प्राप्ति भगवान की ही होती है.
 किसी कारणवश ,मृत्यु हो जाने के कारण  या अन्य कारण सेयदि पति गर्भधारण कराने में सक्षम नहीं होता था तो नियोग  प्रथा से पुत्र प्राप्ति कराई जाती थीइसमें पहला अधिकार  परिवार के सदस्य को होता थाजैसे सगा भाईपरिवार और कुटुंब का  कोई सदस्य नहीं होता थाया सक्षम नहीं होता थातो ऐसे हालात में कोई अन्य भी यह  कार्य कर सकते थेयहां ध्यान देने की एक बात यह है कि पुरातन समय में ऐसा केवल भारत में ही नहीं होता थायहूदियों में भी ऐसी प्रथा थीयहूदियों में तो यहां तक कानून था कि यदि कोई भाई अपने भाई का वंश चलाने से इन्कार  कर देता था तो  उसकी बहुत भर्तसना  होती थीपंचों की मौजूदगी में  वह स्त्री,ऐसे पुरुष के पांव का सैंडल /जूती उतारती थी और उसके मुंह पर थोंकती  थी “यह वह है जो अपने भाई का वंश नहीं चला रहा.”--- डुटेरोनोमयी 25 /5 -10 .  सैंडलजूताजूती दरवाजे पर टांग दी जाती थीजहां पर ऐसा सैंडल टंका  हुआ होता था ऐसे गांव में कोई बाहर का व्यक्ति ना तो आना पसंद करता था ,ना ठहरना हीवह कहते थे, “यह वह गांव है जहां के लोग भाई के भी सगे नहीं।’’

 पुराणों में मुख्यतः पांच ईश्वर कोटि के देवताओं का वर्णन आया है…. सूर्यशिवगणेशविष्णु और शक्ति।यह सब  अभिन्न हैइन्हें अलगअलग मानना गलत हैपदम पुराण में श्रीकृष्ण ने यह साफसाफ बता दिया है कि जैसे वर्षा का जल सब ओर से समुद्र में ही जाता है ऐसे ही इन पांचों रूपों के उपासक कृष्ण के  ही पास आते हैं. “ मैं एक ही हूंलीला के लिए विभिन्न नाम धारण कर पांच रूपों में प्रकट हूंजैसे एक ही व्यक्ति देवदत्त पितापुत्र ,पति  आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है वैसे ही लोग मुझको भिन्न भिन्न नामों से पुकारते हैं’’… पदम पुराणउत्तर/ 90/63 -64  इसी प्रकार हमें ब्रह्माविष्णु और महेश को जानना चाहिए।  सृष्टि के लिए ब्रह्मा का नामरूपपालन के लिए विष्णु का और संहार के लिए शिव का नामरूप भगवान जनार्दन धारण करते हैं. पदम पुराणसृष्टि/2 / 114 . परमसत्ता तो एक ही है। अलग-अलग पुराणों   में अलग-अलग रूपों को विशेष महत्व दिया गया हैकिसी पुराण में किसी एक रूप को सबसे सर्वोपरि बताया गया हैअन्य रूपों को गौणदेवी भागवत में भगवती को बड़ा बताया गया हैब्रम्हाविष्णुऔर  महेश को छोटा बताया गया हैशिव पुराण में शिव को सबके ऊपर बताया गया हैविष्णु और  ब्रह्मा जी को छोटा बताया गया हैइससे यह नहीं समझना चाहिए कि भगवान का कोई रूप छोटा है और कोई रूप  बड़ा। सब समान हैं  और अभिन्न  हैं जैसा कि पदम पुराण में ऊपर बताया  है.पृथक रूप क्योंयह इसलिए है कि भगवान का एक नियम है कि वह भक्त की इच्छा के अनुसार रूप धारण करते हैं….  श्रीमद्भागवत 3 /9 /11 .
हिंदू धर्म में मूर्ति पूजा का भी एक बड़ा स्थान हैहालांकि  परम सत्ता को निराकार भी बहुत लोग मानते हैंमूर्ति में भगवान की भावना करना स्वयं श्री कृष्ण ने उद्धव को समझाया है---11/27.10-18 l  33 करोड़ देवी देवता माने गए हैंपरंतुवास्तव में देखा जाए तो इससे भी ज्यादा हो सकते हैंइसका कारण है गीता (10/41)और भागवत (11/16/40) में वर्णित मूलभूत सिद्धांत कि  जहां जहां भी जिस पदार्थ या प्राणी में तेजश्री ,कीर्तिऐश्वर्यत्यागसौंदर्यसौभाग्यपराक्रमविज्ञान आदि श्रेष्ठ गुण हैं वह भगवान का ही अंश हैहर प्राणी  --ब्राह्मणचाण्डाल ,पशुपक्षीसांपबिच्छूवृक्ष आदि--- मेंभगवान को देखना और हर प्राणी को भगवान का अंश मानना भी हिंदू धर्म का एक बहुत बड़ा अंग है इसी प्रकार संतो का संग करनातीर्थ यात्राएं करना ,भगवान की  यात्रा निकालना और धूमधाम से राजसी ठाट से उत्सव मनाना भी हिंदू धर्म की   मूलभूत  क्रियाएँ   है .   यह भी श्री कृष्ण की आज्ञा मानकर ही किया जाता है --11/29/10- 11 .
युग चार बताए गए हैं-- सत्यत्रेता , द्वापर और कलि .कलियुग 4,32,000 वर्ष का होता हैद्वापर इससे दुगना ,त्रेता  तीन  गुना और सतयुग चार गुना।चारों युग मिलाकर एक चतुर्युगी होती है जोकि 43 लाख 20 हज़ार  वर्ष  की है। सत्य युग में केवल एक ही वेद था--’’ ‘’ ओंकार. सारे वेद और शास्त्र इसी के अंतर्गत थे.अग्नि भी तीन नहीं केवल एक थीएक ही वर्ण था , हंस.  त्रेता युगके आरंभ में  राजा पुरुरवा से तीन अग्नियों और तीन वेदों का आरंभ हुआ…. 9 /15 /46 -49 . .सत्य युग में धर्म के चार चरण होते हैं-- सत्य,दयातप और दान.धर्म स्वयं भगवान का रूप है.अधर्म के भी असत्य,हिंसा असंतोष और कलह चार चरण है .त्रेता  युग में धर्म के चारों चरण कमजोर हो जाते हैं.द्वापर युग मेंहिंसाअसंतोषझूठ और द्वेष जोकि अधर्म के चरण हैकी वृद्धि हो जाती है और धर्म के चारों चरण क्षीण हो जाते हैंऔर कलियुग में अधर्म के चारों चरण बहुत बलवान हो जाते हैं तथा  धर्म के चरण बिल्कुल बलहीन हो जाते हैं… 12/3 /18 -25 . भगवान को प्राप्त करने के युग भेद  के अनुसार साधना में थोड़ी भिन्नता है.भागवत के अनुसार सत्ययुग में भगवत प्राप्ति का साधन भगवान विष्णु का ध्यान बताया गया है.सभी लोग योग का अभ्यास करते थे, हमेशा समाधि की अवस्था में रहते थे, इस कारण से रुचि इंद्रिय सुख में नहीं रहती थी. त्रेता  का साधन यज्ञ है. त्रेता युग में कोई भी शारीरिक कष्ट नहीं होता था. बिना कष्ट के मनुष्य इंद्रिय सुख भोगते थे. द्वापर का साधन है भगवान की पूजा,उपासनाऔर सेवा. द्वापर युग में भी शारीरिक कष्ट बहुत ज्यादा नहीं था.  कलियुग में कठिन भौतिक तापों का आरंभ हुआ है. कलियुग का साधन नाम कीर्तन है... 12/3 /52 .लगभग यही सिद्धांत पदम पुराण और विष्णु पुराण में भी दोहराया गया है. नारदपुराण में कहा गया है कि कलि युग में केवल हरि नाम ही कल्याण का साधन है, इस को छोड़कर दूसरा कोई उपाय ही नहीं है… 11/41/15
. तुलसीदास जी ने भी कहा है कि कलियुग केवल नाम अाधारा है. स्कंदपुराण में भगवान को प्रसन्न करने का साधन नाम जप को बताया है.वर्तमान में कलि युग चल रहा है.अब, इसलिए  भगवत प्राप्ति के लिए  हमें भगवान के नाम का सहारा लेना है.महर्षि पतंजलि के अनुसार नाम-जपस्वरूप चिंतन के साथ करना चाहिए, इससे विशेष लाभ होता है. यहीमत जगत गुरुत्तम गोलोकवासी श्री कृपालु जी महाराज का भी है. परंतु स्वरूप चिंतन के बगैर भी यदि नाम जप किया जाए तो भी फायदा ही फायदा है.  भगवत- प्राप्ति में विलंब हो सकती है. जबकि रूप ध्यान के साथ नाम जप करने से भगवत  प्राप्ति शीघ्र होती है.कलि युग का एक और गुण जान लीजिए, इसकावर्णन भागवत में है--- पुण्य कर्म तो  संकल्प मात्र से सिद्ध हो जाते हैं, परंतु पाप कर्मों का फल तभी मिलता है जब पाप कर्म शरीर से किया गया हो.अन्य युगों में पाप कर्म का फल विचार मात्र से ही मिल जाता है---1/18/17 .यह गुण दृष्टिगत रखते हुए राजा परीक्षित ने कलि  का वध नहीं किया।यही मानसिक पूजा का सिद्धांत है जिसका वर्णन देवी भागवत में भी है-- “अधिकारी होते ही बाहर की पूजा छोड़कर मेरी जो अभ्यंतर पूजा है वह करें, यह मानसिक पूजा थोड़े समय बाद ज्ञान में लीन हो जाती है’’… सातवां .....( क्रमशः)

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