भागवत के भक्त भाग: 2


                                                 प्रह्लाद            
                                        
                                   बेचारा वृत्तासुर तो मंत्रों की शक्ति से प्रकट हुआ था असुर बनके; प्रह्लाद जी बहुत बड़े भक्त माने जाते हैं और यह तो खानदानी  असुर थे l  उनके माता-पिता  असुर, पिता के भाई हिरण्याक्ष बहुत बड़े असुर, ऐसे पराक्रमी कि उन्हें त्रिलोकी में कोई हराने वाला ही नहीं था l अस्तु भगवान को शूकर रूप में आना पड़ा, उन्हें समाप्त करने l  प्रहलाद जी की माता का नाम कयाधु , पिता हरिण्यकशिपु ;दादा कश्यप, दादी दिति। इनकी एक विशेषता यह थी कि यह  गुरु बनाने कहीं नहीं गए, जब मां के पेट में थे  तभी गुरु गए l गर्भ  में ही इन्होंने शिक्षा पाई नारद जी से l ऐसा भी कह सकते हैं कि  नारद जी की वजह से यह जन्म ले पाए l उनके पिता तपस्या करने चले गए थे, मौका देखकर देवताओं ने असुरों को हरा दिया, भगा दिया, खदेड़ दिया। इंद्र इनकी माता को मारने पर उतारू था कि  असुरों का बीज  ही खत्म कर दिया जाए। नारद जी ने समझाया कि उसके पेट में प्रभु का भक्त पल रहा है l नारद जी प्रहलाद की माता को और गर्भस्थ शिशु को अपने साथ आश्रम में ले गए l गर्भावस्था के दौरान नारद जी ने भक्ति- ज्ञान की शिक्षा दी इनकी माता को l यह भी सीख गए l बाद में कालांतर में इनकी माता तो  नारदजी की बातें भूल गई, परंतु  प्रहलाद जी को याद रहा l दूसरी विशेषता प्रहलाद जी में यह है कि इनके पिता इन से इतना  बैर रखते थे  कि  इन्हें मरवाने  के बहुत प्रयास किए l पिता और पुत्र में आपस में स्नेह होता है l पिता पुत्र को स्वाभाविक रूप से प्रेम करता है l ऐसे ही, दूसरे, इस प्रकार के पिता, नचिकेता के पिता थे, उद्दालक, जिन्होंने अपने पुत्र को मृत्यु को सौंप दिया था क्योंकि पुत्र ने उन्हें शक्ति हीन गाएँ   ब्राह्मणों को दक्षिणा में देने से मना किया था l तीसरे  थे अजीगर्त,इन्होंने अपने पुत्र शुनःशेप  को बेच दिया था राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहित को l उसे हरिश्चंद्र के यज्ञ में यज्ञ पशु ,जिस की बलि दी जानी थी, के रूप में काम में लेना था l फिर इसे   विश्वामित्र जी ने बचाया,और अपना पुत्र माना।

नारद जी आगे कथा कहते हुए युधिष्ठिर को समझाते हैं कि प्रह्लाद जी के पिता का उनसे  अप्रसन्न होने का कारण था प्रह्लाद जी का हरि की भक्ति करना जबकि उनके पिता भगवान को अपना  बैरी समझते थे l प्रहलाद जी के शिक्षक गुरु शुक्राचार्य जी के पुत्र थे l इन दोनों को असुर राजा का आदेश था कि वह प्रहलाद जी को अन्य असुर बालकों की तरह असुर संस्कृति, नीतिशास्त्र आदि में शिक्षित करें l प्रहलाद जी जो गुरु  पढ़ाते थे उसे सीख लेते थे l परंतु मन से उन्हें अच्छा नहीं लगता था l कारण उनका मन भगवान में था l जब पिता ने एक बार पहलाद से पूछा कि उन्होंने क्या सीखा, तो प्रहलाद जी के उत्तर से उन्हें क्रोध आयाl भक्त ने भक्ति संबंधी बातें बताएं थी: “हमारे स्वार्थ और परमार्थ भगवान विष्णु ही है….. उन्हीं की प्राप्ति से हमें सब पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है l’’असुर को इतना क्रोध आया कि उसने प्रहलाद जी को जी को अपनी गोदी से उठाकर फेंक दिया l उसने अपने सेवकों कोआदेश दिया कि प्रहलाद को मार दिया जाए l मारने के बहुत प्रयास किए, परंतु पहलाद जी का चित् परमात्मा में लगा हुआ था; अस्तु सारे प्रयत्न व्यर्थ गए l इनके शिक्षक शुंड और अमर्क  ने राजा को समझाया कि उसकी अवस्था कम है, धीरे-धीरे इसकी बुद्धि ठीक हो जाएगीl एक प्रकार  से  प्रहलाद को नजरबंद कर दिया,पाठशाला में l एक तो पहलाद जी में श्रद्धा बहुत थी दूसरे वे  नारद जी से ज्ञान पाए हुए थे, इसलिए असुर बालकों को   प्रहलाद जी  के भक्ति संबंधी उपदेश अच्छे लगते थे l प्रह्लाद जी का कहना था कि बचपन में ही भगवान की भक्ति में लग जाना चाहिए l ना जाने कब मौत जाए l मनुष्य की सौ वर्ष की आयु है, जिन्होंने अपनी इंद्रियों को वश में नहीं किया है उनकी आयु का आधा हिस्सा तो यूंही  बीत जाता है,निद्रा में  l बचपन में कोई होश नहीं रहता है l कुमारावस्था खेलकूद में निकल जाती है, इस प्रकार 20 वर्ष का तो पता ही नहीं चलता l जब बुढ़ापा शरीर को घेर ले ता है तब आखरी 20 वर्ष कुछ करने की शक्ति ही नहीं रहती lथोड़ी सी बीच की आयु है उसमें कामनाएं जकड़ लेती हैं l  इस प्रकार सारा जीवन ही बीत  जाता है lप्रहलाद जी ने  उन्हें यह भी समझाया कि भगवान को प्राप्त करना आसान है क्योंकि भगवान सब प्राणियों की आत्मा है, स्वयंसिद्ध वस्तु हैं l प्रहलाद जी के उपदेश सुनकर असुर बालक उनके ही रंग में रंग गए, और असुर विद्या पढ़नी  छोड़ दी, भक्ति की ओर मुड़ गए l प्रह्लाद जी की बातों पर ध्यान देने लग गए कि  योग का मतलब है परमात्मा से मिलन l परमात्मा सबसे  अतीत हैं , सबका  साक्षी है l जन्म मृत्यु का चक्कर प्रकृति के गुणों में  फँसने से और आसक्ति सहित कर्म करने से होता है... भगवान की भावना करते-करते भक्तों का हृदय ही भगवानमय   हो जाता है, जीवन मृत्यु के बीजों का खजाना जल जाता है और वह पुरुष श्री भगवान को प्राप्त होता है.. भगवान सबके सुहृदहै, प्रेमी हैl
 पहलाद जी के पिता बोले,  “मेरे क्रोध से  त्रिलोकी भी  कांप जाती है, तू किसके बूते पर निडर है l ’’ पहलाद जी ने जवाब दिया कि  ब्रह्माजी से लगाकर तिनके तक सभी छोटे बड़ो को, चर-अचर जीवो को भगवान ने ही अपने बस में कर रखा है.. भगवान सब बलवानों से भी बलवान हैं l प्रहलादजी ने भगवान को सर्वव्यापी बताया और असुर राजा के पूछने पर यह भी कहा कि वह खंबे में भी है. खंबे पर  इनके पिता द्वारा मुक्का  मारने पर नरसिंह भगवान प्रकट हो गए.

 भगवान ने प्रह्लाद की रक्षा करते हुए असुर का वध किया l यह अवतार अन्य से विलक्षण है, केवल भक्त की रक्षा और असुर के वद्ध के लिये ही अवतार हुआ l  यह सब हम नरसिंह भगवान के अवतार के संबंध में चर्चा करते समय बता चुके हैंl  यह अवतार देखने में बहुत भयंकर था l  ब्रह्म जी कोई भी देवता उनके पास जाने का साहस नहीं कर रहा था l  सबके अनुरोध करने पर प्रहलाद जी ने भगवान का क्रोध शांत किया ,उनकी स्तुति की l  स्तुति:-भक्ति से भगवान शीघ्र संतुष्ट हो जाते हैं, तप विद्या , आदि गुणों से उतनी शीघ्र नहीं l  भक्ति  करने वाला चाण्डाल  बारह  गुणों से संपन्न ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ है, यदि ब्राह्मण में भक्ति नहीं है l  जैसे अपने मुख का सौंदर्य दर्पण में देखने वाले  प्रतिबिंब को भी सुंदर बना देता है वैसे ही भक्त भगवान के प्रति जो जो सम्मान प्रकट करता है वह वापस भक्तों को ही प्राप्त होता है l’’ भगवान की महिमा का गान करने  का प्रभाव बहुत होता है, इसलिए प्रह्लाद जी कहते हैं कि वह भगवान की महिमा का गान करते हैं l भगवान की सेवा के छह अंगों को प्रहलाद जी ने  बताया l यह हैं  नमस्कार ,स्तुति, समस्त कर्मों का समर्पण, सेवा पूजा, चरण कमलों का चिंतन और लीला कथा का श्रवण .यह अनिवार्य अंग है और इनके बिना भगवान की भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती l  अपनी स्तुति में भक्त प्रहलाद  ने भगवान को प्रकृति से परे बताया ,प्राकृत गुणों से रहित l  और भगवान के स्वरूप- भूत गुणों का वर्णन किया l  पहलाद जी की स्तुति  सुनकर भगवान का क्रोध शांत हो गया l  भगवान ने इनसे वर मांगने को कहा l  प्रहलाद जी ने  वरदान मांगना भक्ति में  विघ्न समझा और वर मांगने से इंकार कर दिया l पहलाद जी ने बताया की कामना धर्म बुद्धि, लज्जा, श्री, तेजा आदि  गणों को समाप्त कर देती है l  कामनाओं के त्याग को भगवत प्राप्ति का साधन प्रहलाद जी ने बताया l  प्रहलाद जी ने कुछ नहीं मांगा परंतु नरसिंह भगवान ने खुश होकर उन्हें एक  मन्वंतर तक पृथ्वी  का राज दिया l  इस पर प्रह्लाद जी ने अपने पिता के लिए क्षमा की प्रार्थना की, भगवान ने स्वीकार की. भगवान ने प्रह्लाद से कहा की पहलाद जी की वजह से उनके पिता तो तर ही गए हैं पवित्र हो गए हैं और प्रह्लाद जी की 21 पीढ़ियों   तक के  पितर उनकी की भक्ति से तरें  हैं l हैं ना भगवान विरोधी गुणों के स्वामी ! शिव-संकट मोचन के प्रसंग में कहते हैं कि वे जिस पर कृपा करते है उसका सब धन  छीन लेते है ,और यहां मांगने पर भी वरदान देते है ---10/88/8-10 ,7/10/11 l         
 प्रहलाद-चरित्र युधिष्ठिर को नारद जी द्वारा सुनाया गया था l जब श्री कृष्ण ने शिशुपाल का वध किया तब सब ने देखा कि एक ज्योति शिशुपाल में से निकलकर श्री कृष्ण में समा गई है l इसका रहस्य नारद जी ने,युधिष्ठिर के पूछने पर, समझाया कि किसी भी तरह भगवान से नाता जोड़ दिया जाए तो भगवान की ही प्राप्ति होती है. नाता   द्वेष का हो, डर का  हो,नातेदारी का हो ,स्नेहा का हो या कामना  का हो... प्राप्ति श्री भगवान की ही  होती है.  नारद जी ने कहा गोपियों ने भगवान से मिलन के तीव्र काम अर्थात प्रेम से, कंस ने  भय से, शिशुपाल- दंतवक्त्र ने द्वेष से l यदुवंशियों ने परिवार के संबंध से, पांडवों ने  स्नेह से  , भक्तों ने भक्ति से भगवान में मन लगाया है l नियम यह है कि जिसमें हम निरंतर चित्त लगाते हैं उसी के गुण हम में जाते हैं और हम उसे ही प्राप्त होते हैं l नारद जी ने भृंगी  और कीड़े का दृष्टांत दिया है lकीड़ा  भय से  भृंगी का  चिंतन करते करते उसके  के ही रूप का हो जाता है lइसी प्रकार हम भी भगवान का चिंतन करते करते तद्रूप हो जाते हैं..... 7.1.27, 11.9.22. थोड़ा सा  देख लीजिए की स्वयं भगवान ने गीता में क्या कहा है चौथे अध्याय में दसवें  श्लोक में: “ राग ,भय और क्रोध से सर्वता रहित मेरे आश्रित,तथा ज्ञान रूप यज्ञ से   पवित्र हुए बहुत से भक्तों ने मुझे प्राप्त किया है l ’’  इधर प्रेम,क्रोध  और डर त्यागने की बात कह रहे हैं, और उधर नारद जी प्रेम , भय और क्रोध  से भगवान को प्राप्त करना बता रहे हैंl दोनों बात परस्पर विरोधी प्रतीत होती हैं? प्रथम दृष्टया तो परस्पर विरोधी प्रतीत होती हैं, परंतु है नहींl ज्ञानी लोग प्रकृति से नाता तोड़कर अर्थात  राग,- द्वेष भय  छोड़कर अपने स्वरुप में स्थित होते हैं , भगवान को प्राप्त करते हैं l इसके विपरीत भक्त लोग चाहे डर से चाहे प्रेम से चाहे कामना से और चाहे जैसे भी भगवान से नाता जोड़ते हैंl और भगवान से नाता जोड़ कर उनका प्रकृति से संबंध अपने आप विच्छेद हो जाता हैl इसलिए भक्ति में छोड़ा नहीं जाता जोड़ा जाता है l कृष्ण और नारद जी दोनों ही ठीक हैं l तभी तो कुछ विद्वान कहते हैं जहां गीता का ज्ञान समाप्त होता है वहां भागवत शुरू होती है !  शिशुपाल और दंतवक्त्र वैकुण्ठ में  भगवान के पार्षद जय और विजय थेl यह सनकादिक कुमारों के शॉप से हिरण्यकशिपु-हिरण्याक्ष,रावण- कुंभकरण और शिशुपाल- दंतवक्त्र बने  और हर बार भगवान द्वारा मारे गए l इस प्रकार प्रह्लाद जी के पिता और चाचा हिरण्याक्ष दोनों ही भगवान के पार्षद थे और इन्हें समाप्त करने( शाप- मुक्त ) के लिए भगवान को अवतार लेना पड़ा तीन बार l
प्रहलाद जी का नाम नवधा भक्ति से जुड़ा हुआ है जो उन्होंने अपने गुरु महाराज जी से सीखी।---७। ५। २२ -२३ l   जैसा कि नाम से जाहिर है ,भक्ति के  नौ  अंग है. ) श्रवणं:सबसे उचित तो यह है कि भगवान का नाम भगवान के भक्तों के मुख से सुना जाए, ऐसा ना हो पाए तो खुद ही भगवान का नाम बोले l श्रवण करने वाले भक्तों में राजा परीक्षित का नाम सबसे आगे है l )कीर्तनं : ऊंचे स्वर से  भगवान के नाम का उच्चारण करना l एक होती है व्यास  पद्धति, जिसमें वक्ता व्यास पीठ पर बैठकर भगवान की कथा सुनाता है; दूसरी नारद पद्धति ,इसमें भगवान के नाम को गाया जाता है; तीसरी हनुमान पद्धति, इसमें नाच और गाने के साथ कीर्तन किया जाता हैl व्यास  पद्धति में शुकदेव जी का नाम अग्रणीय हैl ) स्मरणं  : इस में भगवान को याद किया जाता हैl भगवान का रूप- नाम ,भगवान का धाम भगवान की कथाएं और भगवान की लीला   परिकर का ध्यान किया जाता हैlसबसे ख्याति प्राप्त नाम प्रहलादजी का हैl ) पादसेवनं : इसमें भगवान के चरण कमलों का ध्यान किया जाता है, सेवन किया जाता है, सारे शरीर का भी ध्यान किया जा सकता हैl)  अर्चनं : भगवान की मूर्ति की पूजा की जाती है, श्री विग्रह की अर्चना की जाती है और भगवान के उत्सव आदि मनाने की भी आज्ञा है l ) वंदनं में  स्तुति है, वंदना है l ) दास्यं  यानि  दास भाव से भक्ति l  )सखयं  में सखा भाव से भगवान से प्रेम करना और  ) आत्म  निवेदनं  में अपना सर्वस्व  भगवान को अर्पण कर देना l इनमें से कोई भी एक पद्धति अपनाने से भगवान की प्राप्ति होती है l
 प्रह्लाद जी ने निष्काम भक्ति पर जोर दिया हैl मनुष्य सुख पाने और दुख से छूटने के लिए कर्म करता है और कामनाओं के कारण हरदम दुखी ही रहता हैl जिस शरीर के लिए वह भोग प्राप्त करना चाहता है वह शरीर ही उसका नहीं है, कभी मिल जाता है कभी बिछड़ जाता है l और यही हाल शरीर से संबंधित पदार्थों, परिस्थितियों और व्यक्तियों का हैl बचपन से ही मनुष्य को भगवान की भक्ति में लग जाना चाहिए lभगवान ,उनके अनुसार, केवल प्रेम भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं और इन्हें प्रसन्न करना आसान हैlभगवान की भक्ति से भगवान मिलते हैं, आवागमन से छुटकारा मिलता है और सदा के लिए दुख निवृत्ति हो जाती है, आनंद प्राप्ति हो जाती है lइनकी भक्ति का सार है सर्वदा ,सर्वत्र समस्त भूतों में भगवत- दर्शन --7/7/55, गीता 7 /19  l
पहलाद जी के पूर्व जन्म के संबंध में पदम पुराण के भूमि खंड के अध्याय 5 में वर्णन  है lपूर्व जन्म में यह द्वारका वासी शिव शर्मा के पुत्र सोम शर्मा थे और जाति से ब्राह्मण थे l भगवान के भक्त थे l हरिहर क्षेत्र में रात दिन भगवान की आराधना करते l उनके अंत समय में  राक्षसों ने इनकी तपस्या में विघ्न डाला, दैत्यों  के भयानक शब्द इनके कान में पड़े और उसी समय इनकी मृत्यु हो गई l आध्यात्मिक सिद्धांत  अंतमतिसोगति”--श्रीमद्भगवद्गीता८/  के अंतर्गत यह दैत्य  कुल में पैदा हुए l परंतु भगवान की भक्ति  याद  रही l जब यह कयाधु के गर्भ में थे तब नारद जी ने शिक्षा दी l प्रभु की  भक्ति कभी निष्फल नहीं जाती, अगले जन्म में भी साथ जाती है और उच्च कोटि का जंम दिलाती है--श्रीमद् भगवतगीता१४/१४,१५,१८ , इस प्रकार जड़भरत को भी पूर्व जन्म की भगवान की  आराधना याद थी, हरिण के शरीर में भी l
 भक्त प्रहलाद का चरित्र पढ़ने, सुनने से,विशेषकर नरसिंह अवतार कथा से  भगवान के परम धाम वैकुंठ की प्राप्ति होती  है।......क्रमशः



  

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