भागवत : सत् संधान - 5

Bhagwat Sat Sandhan - 5 ....


भागवत के भगवान
भगवान के संबंध में भागवत के प्रारंभ में ही बताया गया है। भगवान सब पदार्थों में है, चेतन है, स्वयं प्रकाश है, सत्य स्वरूप है | भगवान वे हैं जिनमें सृष्टि मिथ्या होने पर भी सत्य प्रतीत होती है, वे माया से मुक्त हैं। भगवान प्रकट इसलिए होते हैं, अवतार इसलिए लेते हैं कि भक्त उनकी लीलाओं का श्रवण, कीर्तन, सुमिरन करें और भक्त का मन भगवान में लग जाए जिससे भक्त उन्हें प्राप्त कर सके…1.1.1 ।  भगवान ज्ञाता और ज्ञेय  के भेद से रहित हैं,  अद्वितीय हैं, अखण्ड हैं और सच्चितानन्द  स्वरुप हैं। इन्हें कोई ब्रह्म कोई परमात्मा और कोई भगवान नाम से पुकारते हैं-- श्रीमद  भागवत१/२/११।   कुंती ने अपनी स्तुति में भगवान को प्रकृति से परे आदि पुरुष परमेश्वर बताया है|  कुंती के अनुसार भगवान इंद्रियों से नहीं देखे जा सकते, वह माया के परदे में ढके हुए रहते हैं। भगवान के दर्शन से आवागमन के चक्र से छुटकारा मिलता है। भगवान अनादि, अनंत, सर्वव्यापक हैं, सबके नियंता हैं, कालरूप सबके अंदर समान रूप से रहने वाले हैं। भगवान ना जन्म लेते हैं ना कर्म ही करते हैं…1.8 ।
ब्रह्माजी ने कहा है कि हर कल्प में भगवान अपने आप में अपने आप की सृष्टि करते हैं …..2.6  । ब्रह्माजी के अनुसार भगवान के अलावा कुछ है ही नहीं। जिस भावना से भक्त भगवान का चिंतन करते हैं भगवान वही रूप धारण कर लेते हैं। भगवान भक्तों का बहुत ध्यान  रखते हैं। गीता में भी श्री कृष्ण कहते हैं अर्जुन को कि जो जिस भाव से उनको भजता है वह उसी के अनुरूप उसे आश्रय देते हैं…..4.11 गीता। संसार की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय में जो माया की लीला होती है वह भगवान का खेल ही है। भगवान ब्रह्मा, विष्णु, शिव रुप में तीन प्रमुख शाखाओं में बैठ जाते हैं। ब्रह्मा जी से स्वयं भगवान कहते हैं  “मैं आत्माओं की भी आत्मा हूँ …. मुझसे ही प्रेम करना चाहिए’’ ....3.9 ।   ब्रह्मा जी केवल भगवान को ही एकमात्र स्तुति  करने योग्य बताते हैं । भगवान की स्तुति को सब कल्याण का स्तोत्र बताते हैं। सगुण भगवान के गुण नहीं गिने जा सकते। भगवान को कर्म समर्पित करने से और लीला कथा से भगवत- प्राप्ति होती है। समस्त जगत के जीवों का आश्रय भगवान हैं। सृष्टि करते समय भगवान ब्रह्मा; पालन करते समय विष्णु और संहार के समय रूद्र रूप धारण करते हैं। स्वयं ब्रह्मा जी के शब्दों में, “जगत स्वप्नरूप आप ज्ञानरूप हैं। आपकी कृपा से ही आपको जाना जा सकता है। आपको जानकर जीव, राग, द्वेष और सब आसक्तियों  से छूट सकता है। आप भक्तों को आनंद देने हेतु ही अवतार लेते हैं।’’ आगे ब्रह्मा जी स्वीकार करते हैं कि भगवान की महिमा जानना उनके लिए भी संभव नहीं….10.14  
ध्रुव का कथन है कि भगवान ही हमारे में प्रवेश करके हमें चेतन शक्ति देते हैं। साकार भगवान के ध्यान व उनके भक्तों के चरित्र सुनने से जो आनंद मिलता है वह अपने स्वरुप में स्थित होने पर भी नहीं मिलता। यही कारण है कि शुकदेवजी कृष्ण की लीला सुनने पर, पूतना विषय पर, अपना ब्रह्मानंद खो बैठे और पिता व्यासजी के पास जाकर भागवत की कथा सुनी, समझी व औरों को सुनाई । धनुष यज्ञ में,  सीता स्वयंवर के समय जनक राम को देखकर, लक्ष्मण को देखकर अपना ब्रह्मानंद भूल बैठे और उनके सौंदर्य में डूब गए। यही हाल दंडकारण्य के ऋषियों का हुआ था, राम-लक्ष्मण को देखकर। ध्रुव ने भगवान को जीव का मित्र बताया है। लोग कहते हैं कि भगवान हमारी कामनापूर्ति करते हैं और संसार भय से रक्षा करते हैं जैसे गाय बछड़े की रक्षा करती है…4.9  ।
शंकर जी के अनुसार भगवान भक्तों को मुक्त करने वाले, अनंत, अव्यक्त मूर्ति हैं। भगवान ही  जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय के कारण हैं …..5.18 ।  पार्वती जी को समझाते हुए शंकर जी कहते हैं कि भगवान सभी प्राणियों की आत्मा है, भगवान के शरणागत भक्त किसी से नहीं डरते….6.17।  कृष्ण  की गर्भस्तुति करते हुए शंकरजी कहते हैं कि भगवान सत्य-संकल्प है। सृष्टि से पूर्व  प्रलय के बाद और संसार की स्थिति के समय रहनेवाले सत्य, सब में अंतर्यामी रूप से विराजमान हैं। ज्ञानी  का पतन हो सकता है;  भक्तों का पतन नहीं होता क्योंकि भगवान भक्तों के रक्षक है। भगवान के नाम रूप का श्रवण, कीर्तन, स्मरण और ध्यान करके भवसागर पार हो जाता है….10.2 ।
नारदजी भगवान को चतुर्व्यूह  बताते हैं। वासुदेव, प्रद्युमन, अनिरुद्ध व  संकर्षण जो कि क्रमशः  चित्त, बुद्धि, मन व अहंकार के अधिष्ठाता हैं । भगवान स्वयं में ही मगन रहते हैं और परम शांत है। जैसे मिट्टी की बनी हुई वस्तुओं में मिट्टी विराजमान है ऐसे भगवान सब में ओतप्रोत हैं …6.16 ।  इसी को भगवान गीता में सूत की मणि सूत के धागे में होना बताते हैं…..7.7 गीता। नारद जी के अनुसार भगवान मन और वाणी का विषय नहीं है, जैसे अग्नि लकड़ियों में है ऐसे ही भगवान सब प्राणियों में है, भगवान सबके नियंता और साक्षी है,  “आप के स्वरूप में और किसी का अस्तित्व नहीं। आपकी माया से ही जगत की कल्पना है…।’’ 10.37 ।  “आप कब क्या करना चाहते हैं कोई नहीं जान सकता।….. आपकी माया को कोई नहीं जान सकता…’’
पुरुष, प्रकृति, महतत्व, अहंकार, मन, दस इंद्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ और पाँच महाभूत--- भगवान के चारों ओर खड़े रहते हैं। समस्त ऐश्वर्य, धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्य, यह भगवान में छः शक्तियाँ स्वाभाविक रूप से रहती है …2.9 ।  ऋषभदेव जी, जो कि भगवान के अवतार हैं, हमें समझाते हैं, “सभी चराचर भूतों को मेरा शरीर समझो…… उनकी सेवा करो …….  यही मेरी सेवा है यही मेरी पूजा है … ”  5.5 ।  ब्रह्म और आत्मा को एक भी बताया गया है…… 6.16.63 ।
भगवान की आराधना से भगवान की समानता प्राप्त हो जाती है …..6.18.66 । पारस के पास जाने से लोहा सोना बन जाता है। पारस लोहे को पारस नहीं बनाता सोना ही बनाता है जबकि भगवान में यह बात नहीं है, वे अपनी आराधना करने वालों को अपने जैसा ही बना देते हैं। प्रहलादजी का मत है कि भगवान की भावना से हृदय तद्रूप हो जाता है। भगवान अविनाशी और शीघ्र प्रसन्न होने वाले हैं, सब प्राणियों के प्रेमी व आत्मा है, कार्य-कारण सब कुछ भगवान ही है।  प्रहलादजी को संबोधित करते हुए भगवान नरसिंह ने अपने बारे में बताया है कि भगवान जीवों  की इच्छा पूर्ण करने वाले हैं …..7.6   ।
गजेंद्र ने भगवान की स्तुति करते हुए भगवान को विश्वरहित होते हुए भी विश्व की रचना करने वाला और विश्व रूप बताया है।  “आपकी माया से आत्मा का स्वरूप  ढक  जाता है इसलिए जीव अपने स्वरूप को नहीं जानता। “राजा मुचुकुंद कहते हैं कि भगवान की सेवा छोड़कर, भगवान से सांसारिक वस्तु माँगना बुद्धिमानी नहीं है। उद्धवजी भगवान को गुणहीन  बताते हैं और कहते हैं कि लीला के लिए गुण स्वीकार करते हैं। अक्रूरजी भगवान को प्रकृति आदि समस्त कारणों के कारण, अविनाशी, विश्वरूप और समस्त जीवों  का आश्रय कहते हैं
स्वयं भगवान अपने बारे में क्या कहते हैं? श्री कृष्ण गोपियों को उद्धव के  माध्यम से कहलवा कर भेजते हैं।  “मैं सबका उपादान कारण होने से आत्मा हूँ । इसलिए किसी का भी मुझसे वियोग नहीं हो सकता। जैसे सारी नदियाँ  घूम-फिर कर अंत में सागर में ही समाती हैं, इस तरह वेद,धर्म, युद्ध, अभ्यास, त्याग व  तपस्या सब भगवान में ही आकर समाप्त होते हैं। सबका सच्चा फल है भगवान को जानना। भक्त का प्रेम बढ़ाने के लिए भगवान भक्त से दूर हो जाते हैं।  “भगवान कृष्ण राजा मुचुकुंद को समझाते हैं कि उनके जन्म, कर्म व नाम अनंत होने से भगवान भी उनकी गिनती नहीं कर सकते। भगवान बताते हैं कि उनके अतिरिक्त कोई भी पदार्थ कहीं भी नहीं है…..11.16.38-  गीता 7.19 ।
स्तुति करते हुए सहदेव जी ने भगवान को एकरस ब्रह्म कहा है, जिसमें सजातीय, विजातीय या स्वगत आदि कोई भेद नहीं है और जो संकल्प मात्र से सब कार्य करते हैं ….10.74 ।   मुनि लोग स्तुति करते हुए भगवान के संबंध में कहते हैं - “वेद आपका विश्व हृदय हैं; तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा उसी में आपके साकार-निराकार रूप और दोनों के अधिष्ठान स्वरूप परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार होता है। परमात्मा हमारे वेदों के आधारभूत आपके स्वरूप की उपलब्धि के स्थान हैं; इसीसे आप ब्राह्मणों का सम्मान करते हैं और इसीसे आप ब्राह्मण भक्तों में अग्रणी भी हैं। आप सर्वविद कल्याण साधनों की चरमसीमा हैं और सत्पुरुषों की एकमात्र गति हैं…. वास्तव में सबके परम फल आप ही हैं…।’’ मां देवकी  कहती हैं- “तुम्हारी शक्ति शक्तिमान और वाणी के परे है। श्रीकृष्ण तुम योगेश्वरो के भी ईश्वर हो…। भूमि के भागवत उन राजाओं का नाश करने के लिए ही तुम दोनों [ बलराम और श्रीकृष्ण] मेरे  गर्भ  से अब  अवतीर्ण हुए हो।”
भगवान ही परम पुरुष है। पृथ्वी चरण हैं , स्वर्ग मस्तिष्क है, अंतरिक्ष नाभि  है, सूर्य नेत्र है, वायु नासिका है और दिशाएँ  कान हैं। प्रजापति लिंग है, मृत्यु गुदा है, लोकपाल गण भुजाएँ हैं, चंद्रमा मन है और यमराज भौहें हैं । चंद्रमा चाँदनी दंतावली है…। अष्ट सिद्धियाँ  द्वारपाल हैं … समस्त प्राणियों की आत्मा भगवान विष्णु ही हैं…। वह एक ही हैं परंतु ऋषियों  ने उनका बहुत रूपों में वर्णन किया है। वही समस्त वैदिक क्रियाओं के मूल है--- श्रीमद् भागवत: बारहवें स्कंध  का ग्यारहवां अध्याय  ।
ब्रह्म ,परमात्मा या भगवान एक ही के तीन रूप है---  एक गुणों  से परे, जो सच्चिदानंद कहलाता है रसो-  वै सः (तै.2.1)आनन्दो ब्रहेति( तै.3.6)।अन्य  को सगुण ब्रह्म कहते हैं। परमात्मा के जिस अंश में प्रकृति के तीनों गुण हैं उसे सगुण ब्रह्म कहते हैं और जिसमें इन गुणों का अभाव है उसे निर्गुण ब्रह्म कहते हैं।  यह उसे कहते हैं जो स्वयं अनंत मात्रा का बड़ा हो और जीव को भी अनंत मात्रा  का बड़ा कर सके। इन तीनों को जीव गोस्वामी ने बहुत सुंदर ढंग से समझाया है। एक बार द्वारिका में श्रीकृष्ण ने आकाश में एक तेजपुंज देखा, वह थोड़ा और पास आया जब ऐसा लगा कि कोई मनुष्य आकृति है, जब बिल्कुल श्रीकृष्ण के समीप आ गया जब मालूम पड़ा कि यह नारदजी हैं। तेजपुंज को हम निर्विशेष ब्रह्म मान सकते हैं, मनुष्य आकृति को परमात्मा और नारद जी के रूप को भगवान और सभी का आश्रय श्री कृष्ण हैं-- गीता 14 वें अध्याय का 27वाँ  श्लोक

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि सब कुछ भगवान ही है। भगवान के अलावा कुछ नहीं है। भगवान अनंत है, असीमित है। इस कारण से स्वयं भगवान भी अपनी विभूतियों को पूरी तरह से नहीं गिन सकते। सब का निचोड़ यही है कि भगवान भक्त-वात्सल्य हैं। जब सुदर्शन चक्र दुर्वासा के पीछे पड़ गया था [क्योंकि उन्होंने भगवान के भक्त राजा अमरीश को कृत्या से मारने का प्रयास किया था], तब भगवान ने उन्हें समझाया था कि मैं भक्तों के अधीन हूँ । बस हमें  ज्यादा कुछ नहीं करना। केवल भगवान की इस निर्बलता (?) का फायदा उठाना है। उनकी भक्ति करनी है। उन्हें खुश करना है।

क्रमशः  भागवत : सत् संधान -6 ......

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