मन रे तू काहे ना धीर धरे !


हम सुनते हैं कि मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है। यही हमें आवागमन के चक्र में घुमा रहा है। क्या है मन? आइए, इस संबंध में वेदों से पुराणों से और भगवत प्राप्त महापुरुषों से पूछें। महोपनिषद हमें बताता है कि जो विषयों का भान होना है, वही मन कहलाता है। संकल्प करना ही मन का लक्षण है। मन संकल्प रूप में रहता है, इसलिए जो संकल्प है, वही मन है...संसार में सारा इंद्रजाल मन के द्वारा ही फैलाया हुआ है; जब तक मन की कल्पना चलती रहती है तब तक मोक्ष नहीं हो सकता, यह सारा विश्व ही ब्रह्मा की मानसिक सृष्टि है।

हमारा यह शरीर मूल प्रकृति, पंच महाभूत- मन, बुद्धि, अहंकार आदि 24 तत्वों से बना हुआ है। मन पंच महाभूतों से पैदा होता है और स्वयं किसी का कारण नहीं है, इसलिए यह विकृति कहलाता है। यह इंद्रियों पर राज करता है। इसके बिना इंद्रियाँ विषय भोग नहीं कर सकती। यही इंद्रियों से कर्म करवाता है।

राजा परीक्षित को समझाते हुए परमहंस शुकदेव जी कहते हैं कि मन सेकभी मित्रता नहीं करनी चाहिए, जैसेकि चालाक शिकारी पकड़े हुए पशुका विश्वास नहीं करते। इस प्रकार योगी को भी मन पर विश्वास नहीं करना चाहिए अन्यथा मन काम, क्रोध आदि शत्रुओं को आक्रमण करने का अवसर देकर योगी को नष्ट भ्रष्ट कर सकता है…5.6.1-5। भागवत में ही जड़ भरतजी राजा रहूगण को समझाते हैं कि मन देही, जो अपने आपको देह समझता है, से मिलकर दुख-सुख की अनुभूति करवाता है। जब तक मन है, तब तक जागृत और स्वप्न अवस्था का व्यवहार दृश्य रूप में जीव के सामने आता है इसीलिए मन मोक्ष और बंधन का कारण बताया गया है… 5.11.7. राजा को आगे समझाते हैं कि मन मिथ्या होते हुए भी आत्मस्वरूप को ढक लेता है। मन को भगवान की  और गुरु की उपासना सेही मारा जा सकता है। उज्जैन निवासी ब्राह्मण के संबंध में श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं कि उस ब्राह्मण नेजान लिया कि उसके सुख और दुख का कारण न मनुष्य हैं न देवता न शरीर परंतु मन ही इसका परम कारण है। मन ही सारे संसार चक्र को चला रहा है। यही विषयों से संबंध जोड़ता है और वृत्तियों  की रचना करता है। हालांकि आत्मा निष्क्रिय है परंतु मन ही सारी चेष्टा करता है। जब जीव मन को स्वीकार करके उसके द्वारा विषयों का भोक्ता बन बैठता है, तब कर्मों के साथ आसक्ति होने के कारण वह उनसे बंध  जाता है (इसलिए एकबार और समझ लीजिए कि सुख और दुख का कारण न मनुष्य है, न देवता, न शरीर न ग्रह, केवल  मन ही  है)..11.23.43-45

मन को ब्रहम भी बताया गया है। ...छांदोग्य-उपनिषद। … 3.18.1

मन को अन्नमय छांदोग्य उपनिषद ही आगे बताता है। … 6.7.4,5.

बृहदारण्यक उपनिषद कहता है कि मन ही आनंद है और ब्रह्म  है। … 4.1   

महोपनिषद के अनुसार बंधन और मोक्ष के दो ही कारण बनते हैं ममता और ममता शून्यता. मैं ब्रह्म नहीं हूँ ’’ इस संकल्प के सुदृढ़ हो जाने से मन बंधन में पड़ता है। सब कुछ ब्रह्म ही  है’’ इस संकल्प के दृढ़ होने पर मन को मुक्ति मिल जाती है। मन से शरीर की भावना करने पर आत्मा शरीर बनता है। मन कल्प को क्षण  बना देता है और क्षण में कल्प जैसे बड़े समय का भान  करवाता है-- यह संसार केवल मन का विलास मात्र है। मन नेत्र, त्वक, शब्द आदि से ज्यादा शक्ति संपन्न है। यह सर्वत्र गमन करता है। यह वहाँ भी चला जाता है, जहाँ इन्द्रियाँ नहीं जा सकती, ना ही इंद्रियों के विषय जा सकते। परंतु, है यह मायिक ही, इसलिए परमतत्व को नहीं जान सकता - कठ रुद्र उपनिषद.

ब्रहम बिंदु उपनिषद मन दो प्रकार के बताता है। एक शुद्ध मन और दूसरा अशुद्ध। वह मन जिसमें कामनाएँ अर्थात विषय भोग के संकल्प उठतेहैं, वह अशुद्ध है; दूसरा मन जिसमें कामनाओं का अभाव है वह शुद्ध मन है। विषयासक्त मन बंधन का कारण और विषयसंकल्प रहित मन मोक्ष का  कारण माना जाता है। जो मन विषयों  से  रहित हैं, विषय भोग के संकल्प उसमें नहीं है, वह मन   हृदय में लीन हो जाता हैयही ज्ञान और मोक्ष है।

शुकदेवजी को राजा जनक देवी भागवत में समझाते हैं कि सुख और दु:ख में डूबने वाला यह मन ही है। मनुष्यों को बंधन में डालने और मुक्तकरने में देह, जीवात्मा और इंद्रियाँ कोई भी कारण नहीं है। केवल मन ही निमित्त है। मन के शुद्ध हो जाने पर सभी इंद्रियों में विकारों का आभाव हो जाता है।

मन का बल बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि ना बस में होने वालों में श्रीकृष्ण ही मन है -11.16.11. 

भगवान के अवतार दत्तात्रेयजी ने तो यहाँ तक कह दिया कि यदि प्राणी मन किसी में लगा  दे तो उसे उसी वस्तुका रूप प्राप्त हो जाता है...11.9.2. (मन भगवान में लगाकर भगवान ही बन सकते हैं) आध्यात्मिक जगत में मन के महत्व को हमने वेदों, पुराणों से व महापुरुषों के उपरोक्त बताए गए वचनों से जान लिया है। आवागमन के चक्र से छूटने के लिए उसे काबू में करना आवश्यक है, यह हम जान ही चुके हैं। अब करते हैं - इसे बस में करने के उपायों पर विचार।

  अर्जुन का मत था कि मन पर नियंत्रण पाना वायु को नियंत्रित करने जैसा कठिन है। कृष्ण ने समझाया कि कठिन है, असम्भव नहीं; अभ्यास से, वैराग्य से निग्रह किया जाता है -6.38 गीता

विश्व के सारे धर्मों में मन को बस में करने के साधन समझाए गए हैं। इनमें से मुख्य हैं:-
1. नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखना ।
2. प्राणायाम - भागवत में श्रीकृष्ण उद्धव को समझाते हैं कि प्राणायाम से प्रभु में मन लग जाता है, और प्राणायाम को किसी योग गुरु के सानिध्य में ही सीखना चाहिए...11.13.13 । फिर 14वें अध्याय में, इस ही 11वें स्कंद के, श्रीकृष्ण ने विस्तार से ध्यान की विधि समझाई है। प्राणों का और मन का गहरा संबंध है। जब मन कहीं पर स्थिर होता है, तब श्वाँस गहरी चल रही होती है। इसी प्रकार जब श्वाँस गहरी चल रहीहोती है, तब मन को किसी स्थान पर स्थिर करना सुगम होता है। यह देखकर हमारे ऋषियों ने प्राणायाम की खोज की (या अनुसंधान किया?) उन्होंने पाया कि ज्यों-ज्यों प्राण काबू में आते हैं त्यों-त्यों मन भी काबू में आना शुरू हो जाता है। और, धीरे-धीरे इसे पूरी तरह काबू में करना सरल हो जाता है। ऋषि पतंजलि ने भी अपने योग सूत्र में साँसों पर ध्यान करने के लिए कहा है, आती-जाती साँस से जप करने के निर्देश दिए हैं- साधना पाद, सूत्र 51; और साँस को स्तंभित करना भी बताया है, अर्थात् कुंभक पर जोर दिया है...पतंजलि योग प्रदीप समाधिपाद सूत्र 34.
3.  भगवान के इष्ट देव के या गुरुदेव के चित्र या मूर्ति पर ध्यान जमाना।
4.  हृदय की धड़कनों के साथ जप करना, सांसो के साथ भगवान का जप करना,आती जाती साँस को देखते रहना और उसके साथ ही अपने इष्ट देव के नाम का जप करना।
5. सामदामदंड-भेद नीति से मन को समझाना, स्वामी रामसुखदासजी ने सिखाया है। बुद्धि मन से परे है, इसलिए बुद्धि मन को समझा सकती है। सबसे उत्तम यह है कि साधक अपने हृदय में अपने मन, बुद्धि और स्वयं में यह बात अच्छी तरह जमा लें कि यह संसार मेरे लिए नहीं है, इस संसार में मेरे लिए सुख नहीं है। ऐसा करके मन को संसार से विमुख करें। दूसरी ओर, संकल्प करें कि मेरे केवल भगवान हैं, ऐसा सोचकर भगवान के सम्मुख हो जाए। अपने सर्वस्य को, अपने होनेपन को भी भगवान में लगा दे। ऐसा करने से मन भगवान की ओर आसानी से जाएगा और जब-जब संसार की ओर जाएगा, हमें तब-तब आत्मग्लानि  होगी और वापस हम स्वमेव मन को भगवान की ओर ले जाएँगे।
6. मुक्ति उपनिषद के अनुसार जैसे हाथी अंकुश के बिना वश में नहीं होता, ऐसे ही मन बिना आध्यात्मिक विद्या का  ज्ञान, सत्संग, वासनाओं का त्याग और प्राणायाम द्वारा वश में नहीं किया जा सकता अर्थात् इन चारों के एक साथ प्रयोग द्वारा ही वश में किया जा सकता है। बलपूर्वक मन को वश में करने का प्रयत्न करनाऐसे है जैसे कि दीपक के प्रकाश को छोड़कर अंधकार में जाना। 2.42.
7. जगत गुरुत्तम कृपालु जी कहते हैं कि जब-जब मन संसार में जाए तो जिस व्यक्ति, पदार्थ और परिस्थिति में जाए उसमें श्यामसुंदर को खड़ा कर दें ऐसा करने से ध्यान भगवान का ही होगा, मन भगवान में ही रहेगा, अंतःकरण शुद्ध हो जाएगा। कितना ही चंचल हो मन एक समय में एक ही जगह रह सकता है। जगह दो ही हैं - या संसार या भगवान। संसार काकाम इंद्रियों से करते रहें और मन भगवान में रखें... 8.7 गीता   मन भगवान में रखने से भगवान की ही प्राप्ति होगीगीता 18.65 । इस हेतु भगवान, उनका नाम, रूप, कथा, लीला, धाम, परिकर और जन, बस इतनों का ही कीर्तन श्रवण और सुमिरन करें।
8. दृष्टा की तरह विचारों को देखें। विचार कहाँ से आते हैं, देखें l मुक्तानन्दजी के अनुसार इससे दृष्टा भाव आता है l आत्मज्ञान हो जाता है l
9. चौथा प्राणायाम (51वाँ सूत्र साधनपाद पातञ्जल योग प्रदीप) से मन स्थिर होता हैl इसमें केवल रेचक और पूरक ही होता है l कुम्भक नहीं होता हैl
10. भागवत आदि पुराण व अन्य ग्रंथों में बहुत सी कथाएँ आती हैं; यह कथाएँ भी मन भगवान में लगाने के लिए ही बताई गई हैंl इन कथाओं के अंत में प्रायः ऐसा लिखा होता है, जो इन्हें पढ़ेगा, सुनेग,सुनाएगा अथवा इनका प्रचार आदि करेगा उसे मनचाही वस्तु, स्वर्गादि लोक व भगवान की प्राप्ति हो जाएगी अथवा भगवान की पराभक्ति मिल जाएगीl यह इसलिए है कि भगवान के संबंधित कथाएँ सुनने और सुनाने से  मन  भगवान में लगता है, जिससे भगवान की प्राप्ति होती हैlयही बातें भगवान ने गीता में समझाई हैं, “तू मेरा भक्त हो जा, मुझ में मन वाला हो जा, मेरा पूजन करने वालाहो जा और मुझे नमस्कार करl ऐसा करने से तू मुझ को ही प्राप्त हो जाएगा- यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय हैl ’’18/65 .

मन को मित्र माने और भगवत-प्राप्ति में एक साधन के रूप में इसका प्रयोग करें। इस पर लगाम बुद्धि की  डालें। बुद्धि एक-निश्चयात्मक रखें भगवतप्राप्ति के लिए। यदि बुद्धि बहुशाखा वाली हुई तो मन जगह-जगह भटकेगा, एक  स्थान पर स्थिर नहीं रह सकता। इसलिए मन को भगवान में लगाने के लिए भगवत प्राप्ति की एक निश्चयात्मक बुद्धि आवश्यक है। ऐसी  बुद्धि ना होने पर मन संसार में ही भटकता है क्योंकि उसे संसार के विषय भोगों का अनंत काल से अभ्यास है। विषयों के भोग से बंधन है, और त्याग से मोक्ष का मार्ग खुलता है।

मन को लघु न समझें । यह एक साथ समस्त विश्व का भान करा सकता है। कैसे? भगवान का चिन्तन करते हुए मन विशुद्ध सत्व में स्थित हो जाये तब!...4/29/69





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