काल


        
काल वह है जो सृष्टि रचने वाले प्रकृति पुरुष को भी  निष्क्रिय कर देता है , प्रलय के समय-- भागवत12/4/22 .इसी से सृष्टि,स्थिति और प्रलय हैlयह जनक की बेटी अवध की रानी को वन वन  भटका देता है.इसे आंख से देख नहीं सकते, कान से सुन नहीं सकते ,सूंघ नहीं सकते, छू नहीं सकते और ना ही चख सकते .इसमें प्रकृति के सतो- रजो- तमो गुण नहीं है. मन की तरह यह संकल्प-विकल्प नहीं करता. बुद्धि की तरह यह सोचता विचारता नहीं. यह इंद्रिय,बुद्धि, मनऔर प्रकृति की पकड़ में नहीं .l बहुत सी बातों में काल आत्मा जैसा प्रतीत होता है--- अमर अजर सर्वव्यापक अनंत अनादि अपरिच्छन्न. परंतु इसमें आत्मा के कई गुण नहीं है, यह  स्वयं प्रकाश नहीं है, यह ज्ञानस्वरूप नहीं, और यह सर्वशक्तिमान भी नहीं क्योंकि यह आत्मा की तरह पिण्ड और ब्रह्मांड को शक्ति नहीं देता.आत्मा की भांति काल चेतन नहीं है.

 काल  गणना और माप  के काम में आता है.इसका माप  त्रुटि (परमाणुओं से अणु  बनता है अणुओं से त्रस रेणु। 3 त्रसरेणु पार करने में सूर्य को जो समय लगता है उसे त्रुटि कहते हैं) से  लगाकर वर्ष ,युग ,मन्वंतर, कल्प और महाकल्प तक है.432000 वर्ष का कलियुग होता है, इससे दुगना द्वापर,तीन गुना त्रेता और चौगुना  सत्ययुग. चारों युगों का योग आता है  43  लाख  20000 वर्ष। ऐसे 71 4 /14  चतुर्युगी का एक मन्वंतर कहलाता है, जिसमें मनु ,सप्तरिषि, देवता सभी समाप्त हो जाते हैं. ऐसे 14 मन्वंतर  या एक हजार चतुर युगों का  एक कल्प होता है जोकि ब्रह्मा का एक दिन है.   दिन में सृष्टि रहती है रात को  प्रलय हो जाती हैl ब्रह्मा जी का एक दिन हमारे 4 अरब 32 करोड़  वर्षों के बराबर होता है. इतनी ही बड़ी रात होती हैl  रात और दिन का जोड़ 8 अरब 64 करोड़ वर्ष हैl ऐसे 30 दिन का उनका एक महीना होता है.  साल में 360  दिन और इतनी ही रातें  होती हैं. ब्रह्मा जी स्वयं के माप से 100वर्ष जीते हैं. उसके बाद काल उन्हें भी खा जाता है, और तब प्राकृत / महाप्रलय होती है--- श्रीमद् भागवत12 /4 /5  l   महाप्रलय के समय का वर्णन  वेदों में मिलता है. त्रिपाद्विभूति महानारायण उपनिषद् के  अनुसार ब्रह्मा जी के सौ वर्ष की सृष्टि और इतने ही वर्षों  की प्रलय  अर्थात  ब्रह्माजी के 200 वर्ष महा विष्णु के 1 दिन( ब्रह्मा जी की सृष्टि महा  विष्णु के दिवस  के बराबर हैऔर ब्रह्मा  जी की प्रलय महा विष्णु की रात्रि है ) के बराबर होता है . महा विष्णु के1 वर्ष में इस अवधि के 360  दिन होते हैं .  इस हिसाब से महा विष्णु की 100 करोड़ वर्ष स्थिति रहती है जो आदि नारायण का एक दिवस है और इतनी ही लंबी 100 करोड़ वर्ष कि उनकी प्रलय होती है जो आदि नारायण की  एक रात्रि है . इस गणना से महाविष्णु के 200 करोड़ वर्ष आदिनारायण के 1 दिन (दिवस+ रात्रि)के बराबर हैं. आदिनारायण का ऐसे 360  दिनों का उनका 1 वर्ष होता है l आदि नारायण के 100 करोड़ वर्ष में त्रिपाद्विभूति महानारायण की पलक  गिरती है यानी कि उनका एक निश बीतता  है .अब  अविद्यांड  का आवरण के साथ प्रलय  हो जाता है, मूल अविद्या अपने मूल कारण ,अव्यक्त, में प्रवेश कर जाती है और अव्यक्त ब्रह्म  में प्रवेश कर जाता है l उपाधि  का नाश होने के कारण यह ब्रह्म  का निर्विशेष रूप है जो अविद्या  से परे है अत्यंत शुद्ध है. भागवत में   शुकदेव जी परीक्षित को समझाते हुए इस तत्व को मूल भूत तत्व  बताते हैं. काल के प्रभाव से इस समय पुरुष और प्रकृति दोनों की शक्तियां क्षीण हो जाती हैं और विवश होकर अपने मूल स्वरुप में लीन हो जाती हैं-12/4/21-22  . ऐसा है काल का प्रभाव.

 वैकुंठ आदि नित्य लोक,  प्रकृति और काल से परे हैं .

काल चक्र है--पुनरावर्तन।  इसे गति की आवश्यकता है। कालचक्र का दूसरा नाम कालगति हैl  यह गति ही सब पदार्थों को, जीवो को तत्वों को, उनसे युक्त होकर उन सब को गति प्रदान करती है. साँस  से युक्त होने पर साँस के आने जाने की गति,रक्त से युक्त होने पर रक्त गति,  मनसे युक्त होने पर मन की गति, बुद्धि से युक्त होने पर बुद्धि की गति ,अनेक संज्ञा हैं. भगवान को महाकाल कहते हैं--- श्रीमद्भगवद्गीता 10/33  . महाकाल ही अक्षर हैं.इस प्रकार काल भगवान की एक शक्ति है, एक विभूति है.यह भगवान पर कोई प्रभुता नहीं रखता, देह  अभिमान रखने वाले जीवो पर ही शासन करता है-- श्रीमद् भागवत3.11.38. आगे भागवत की हमें बताती है कि कालचक्र साक्षात भगवान का आयुध है. यह ब्रह्मा से लेकर तिनके तक, सब का संहार करता है---5/14/29.स्वं ब्रह्मा कहते हैं : “ सतलोक का स्वामी हूँ पर आपके कालरूप से डरता हूँ .’’ ---3 /9 /18 . काल ईश्वर की वह शक्ति है जो सृष्टि के प्रारंभ में प्रकृति के गुणों में  क्षोभ  पैदा करती है--11/22/13.  कोई-कोई काल को  पचीसवाँ  तत्व भी बताते हैं.यह भगवान की वह शक्ति है जो प्रकृति में गति उत्पन्न करती है-- श्रीमद्भागवत-/२६/ १७ ,१८. जो लोग यह नहीं जानते कि काल भगवान का ही रूप है, वह काल से भयभीत रहते हैं. यह नाना प्रकार के कर्मों का मूल अदृष्ट है. प्राणियों के अंदर प्रविष्ट करके भूतों द्वारा ही उनका संहार करता है. भगवान काल ही विष्णु है.कृष्ण ने अपने को काल रूप परमेश्वर कहा है --10 /27 /16 .  इसके भय  से सूर्य तपता है और इंद्र वर्षा करता है,तारे चमकते हैं. इस के डर से नदियां बहती हैं, अग्नि जलती है और पर्वतों के साथ-साथ पृथ्वी भी जल में डूब जाती है. इसी के शासन से इंसान की सांसे चलती हैं. यह अविनाशी है परंतु सबका नाश करने वाला है. काल की प्रेरणा से ही जीव विभिन्न योनियों में भ्रमण करता है. जिस जिस जिस वस्तु को कष्ट सहकर प्राप्त करता है काल उसी को नष्ट कर देता है, जीव  उन वस्तुओं के लिए बहुत शोक करता है. काल के संबंध में श्रीमद्भागवत में तृतीय स्कंध के 29 में और 30 में अध्याय में वर्णन मिलता है .
लेखकाल विवेचनमें श्री गोपीनाथ कविराज ने काल की गति को आवर्तन शील बताया है. इस आवर्तन  में सारा संसार आवर्तित  होता रहता है. कालकी सरल गति भी होती है. इसमें तीनों काल--भूत वर्तमान भविष्य--वर्तमान रूप में प्रकाशित होते हैं. माया को पार करने  पर सरल गति होती है.हमने  देखा है पूर्व में कि माया और जीव भी भगवान की शक्ति है. जीव है हम. माया से और काल से  अतीत होना है. उपाय क्या अपनाने हैं?यह  हम भक्ति , मुक्ति तथा लोक- परलोक के प्रकरण में बता आए हैं.
विभिन्न लोकों  में काल की गति एक समान नहीं है,  कहीं तेज  है कहीं धीरे है. देवी भागवत में सातवें स्कंध में  प्रसंग आता है कि राजा   रेवत  उनकी कन्या रेवती  के लिए  सुयोग्य  वर पूछने ब्रह्मा जी के पास ब्रह्मलोक गए. वहां थोड़ी देर रुके , ब्रह्मलोक में तो बहुत कम समय बीता ,परंतु धरती पर बहुत लंबा समय निकल गया,108  युग बीत गए.यही वर्णन भागवत में भी है -- 9/3/27-36.ऐसा ही वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण में आता है. धरती जब  असुरोंके भार से  दबी जा रही थी, ब्रह्मा जी और अन्य देवता भगवत धाम में गए भगवान से प्रार्थना करने अवतार लेने की. तब वहां पर बहुत कम समय  बीता ; परंतु धरती पर बहुत लंबा समय  बीत गया.विज्ञान भी यही कहता है, आइंस्टीन Einstein की काल और स्थान  कीसामान्यथियोरीमें(general theory of relativity ). 


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