हम कौन हैं -जीव, आत्मा, पुरुष, क्षेत्रज्ञ या शरीरी..? भागवत: सत् संधान-7

Hum kaun hein…?
 गत से आगे ->
मंदिर माधोबिहरीजी, जयपुर 
हम यह शरीर नहीं. हम शरीर में रहने वाले शरीरी हैं. हमारे  अन्य नाम आत्मा,  जीव, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, दृष्टा आदि भी हैं. जीव नित्य है. अविनाशीजन्म- मृत्यु रहित, सबका आश्रय  और स्वयं प्रकाश है. प्रह्लाद ने, नारदजी से सीखे ,आत्मा के बारह गुण बताए हैं --नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक, क्षेत्रज्ञ, आश्रय, निर्विकार, स्वयंप्रकाश,सब का कारण, व्यापक, असंग व आवरणरहित--7.7.19.    तुलसीदास जी ने थोड़े शब्दों में ही सब कुछ कह दिया है जीव (हमारे वास्तविक स्वरुप) के विषय में -ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि| ’’ यदि जीव परमात्मा का अंश है, तो इस पर माया हावी कैसे हैं? माया अंधकार है,  परमात्मा सूर्य है. सूर्य के प्रकाश के आगे अंधकार टिक नहीं सकता. फिर जीव  पर  माया क्यों हावी? उत्तर है, जीव परमात्मा की जीव-शक्ति विशिष्ट का अंश है, चित् शक्ति का नहीं, इसलिए माया हावी है. परमात्मा का अंश होने से यह आत्मा कहलाता है. जब यह माया से संबंध जोड़ लेता है, तब यह जीवात्मा कहलाता है. यह स्वयं तो चेतन है ही, जिस शरीर में रहता है उसमें चेतना इसी के कारण होती है. जब यह शरीर से निकल जाता है, शरीर को मरा हुआ मिट्टी समान माना जाता है. शरीर में जो भी जीवन है वह आत्मा की वजह से ही है. इसके ना रहने पर जड़ता ही शेष बचती है. यह कार्य-कारण का साक्षी और स्वतंत्र है, उदासीन भाव से स्थित रहता है.. 6.16.8-11.भागवत ने जीव को 16 तत्व से विकसित और पञ्च तन्मात्रा से बना हुआ त्रिगुणमय संघात बताया है, यह संघात लिंग शरीर है. चेतना संयुक्त होने पर यह जीव कहलाता है...4.29.74.लिंग शरीर को मन प्रधान बताया गया है. ऐसा भी कहा जाता है कि स्थूल रूप से परे भगवान का एक अव्यक्त सूक्ष्म रूप है, जो देखने और सुनने में नहीं आ सकता। आत्मा का प्रवेश होने से यही जीव कहलाता है...1.3.32-35. आत्मा में, ईश्वर स्वरूप होने के कारण, भगवान का अंश होने के कारण (15.7,13.31,7/5 गीता), स्वाभाविक रूप से ही भगवान के सारे गुण विद्यमान हैं. परंतु, अल्प मात्रा में हैं, इसलिए भेद भी प्रतीत होते हैं. भगवान विभु हैं, बहुत बड़े हैं, सर्वशक्तिमान है परंतु आत्मा  इसके विपरीत अणु है, अल्प शक्तिमान है, अल्पज्ञ है.  वेदों (श्वेताश्वतर उपनिषद 5. 9)  के अनुसार जीवात्मा बाल के अग्रभाग के दस हज़ार वें हिस्से से तुल्य है. जिस शरीर में जाती है, उसी शरीर को प्रकाशित करती है, दीपक जैसे पूरे कमरे को. परमात्मा सर्वव्यापी हैं, जीव एक स्थान पर रहता है; परमात्मा सर्व शरीरों में हैं, जीव एक समय में एक ही शरीर में रहता है; परमात्मा अपने स्वरूप को कभी नहीं भूलते, जीव अपना स्वरूप भूले हुए है, और जिस शरीर में रहता है उसेमैंमान लेता है. जीवात्मा सर्वभेद शून्य है. यह स्त्री पुरुष या नपुंसक नहीं है. जैसे प्रकाश पर कभी भी अंधकार हावी नहीं हो सकता, ऐसे ही परमात्मा पर कभी भी माया हावी नहीं हो सकती. परंतु जीव परमात्मा का बहुत ही छोटा अंश, जीव शक्ति का, है. इसलिए इस पर माया हावी है--जैसे एक छोटी-सी सूर्य- किरण घोर अंधेरे का भेदन नहीं कर सकती ऐसे ही अकेला जीव माया से दब जाता है. यह मायाबद्ध है. श्रुतियाँ  श्रीमद्भागवत में  भगवान की स्तुति करते हुए कहती है कि जीव भगवान का स्वरूप है, स्वरूप होने के कारण अंश ना होने पर भी उसे अंश कहते हैं और निर्मित ना होने पर भी निर्मित कहते हैं---10/87/20. नारद पंचरात्र के अनुसार भगवान की तटस्था शक्ति स्वाभाविक रूप से आध्यात्मिक शक्ति है, यह स्व-सचेत संवित शक्ति से पैदा होती है, यह भौतिक गुणों में आसक्त होकर मैली हो जाती है, तब यह जीव कहलाती है. महावराहपुराण के अनुसार जीव भगवान का विभिन्न अंश है और इसमें भगवान की अल्प शक्ति ही है. इसके विपरीत  भगवान के स्वांश में और भगवान में कोई भेद नहीं होता, शक्तियाँ भी पूर्ण ही होती है. कोई दर्शन जीव और भगवान में अभिन्नता मानता है l अन्य दर्शन भिन्नता मानते हैं l पहली विचारधारा वाले छांदोग्य उपनिषद 6 /2 /1  का हवाला देते हुए समझाते हैं कि पूर्व में केवल एक सत्य ही था, उसने संकल्प कियामैं बहुत हो जाऊँइसी से संसार की सृष्टि हुई. वृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार जो ब्रहम  में नाना तत्व देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है. इसमें  कुछ भी नाना तत्व नहीं है, उसे एक ही मानना चाहिए---4 /4 /19  l  दूसरे दर्शन वाले मुंडक उपनिषद् का निम्न मंत्र प्रस्तुत करते हैं -द्वा सुपर्णा ----अभिचाक शीति l’’ अर्थात दो पंछी एक साथ रहते हैं l कृपालुजी ब्रह्म और जीव को-भिन्न -भिन्न  मानते हैं, अद्वैतवादी शंकराचार्य अभिन्नl  

जीव एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता..गीता3.5. प्रकृति के गुण इससे हर क्षण कर्म करवाते हैं. पर, जीव अपने को कर्त्ता मानता है --3 /27 . यह हर कर्म दुख- निवृत्ति और सुख- प्राप्ति के लिए करता है--3.5.2, 6.1.44, 7.7.42. क्यों? इसलिए कि वह आनंद का अंश है और अपने अंशी अर्थात आनंद को खोज रहा है. प्रत्येक अंश अपनी अंशी  की ओर स्वाभाविक रूप से आकर्षित है. पत्थर कितना ही ऊपर  फेंको, नीचे अपने अंशी धरती के पास ही आता है. धुआँ, वायु की ओर जाता  है--और जीव आनंदस्वरूप भगवान की ओर. माया ईश्वर की शक्ति है. लिहाजा ईश्वर जितनी ही बलवती है.भगवान माया और जीव दोनों के नियामक हैं. दोनों के ही ईश्वर है..7.15.27. और जीव ईश्वर की शरण में जाकर ही माया से छूट सकता है अन्यथा नहीं(गीता 7.14). आत्मा  द्वारा जन्म लेना और मरना प्रतीत भर होता है, वास्तविक नहीं है. यह जब अपने को लिंग शरीर समझ बैठता है, तब उसे अपना आना-जाना प्रतीत होता है. जीव अपने आप को शरीर मान बैठता है और आसक्ति वश कर्म करता है; इन कर्मों के बंधन में फंस कर के वह ऊँचे-नीचे लोकों में भिन्न भिन्न शरीरों में आता-जाता रहता है (गीता18/12/, 13/21) . वास्तव में जीव नित्य शुद्ध मुक्त स्वभाव ही है.

जीव दो प्रकार के होते हैं-  बध्य जीव और मुक्त जीव. जब जीव को आत्मज्ञान हो जाता है, वह अपने स्वरूप को पूर्णरूप से पहचान जाता है, तब उसे मुक्त कहते हैं; जब तक आत्मा का ज्ञान नहीं है, तब तक जीव बध्य कहलाता है. अविद्या के कारण जीव नित्य बध्य है. मुक्त जीव वो हैं जिनके प्राण, मन, इंद्रीय व  बुद्धि की सारी चेष्टाएँ  बिना संकल्प के होती हैं, ऐसे पुरुष शरीर में रहते हुए भी गुणों से मुक्त हैं. ऐसे जीवन मुक्त मनुष्य भला बुरा काम न करते हैं, न सोचते हैं. वह समता  में रहते हैं, और जड़ के समान, मानो कोई मूर्ख हों, ऐसे प्रतीत होते हैं...11.11.17. ऐसे लोग स्वयं को कर्ता नहीं  मानते, प्रकृति के गुणों को कर्ता मानते हैं. उठने- बैठने, सोने-जागने,  खाने- पीने,  घूमने-फिरने,  नहाने- देखने, छूने- सूंघने सब क्रियाओ में प्रकृति को ही कर्ता समझते हैं. यह लोग कर्म, वासना और उसके फलों से नहीं बंधते.   यह जगत में रहते हुए भी असंग रहते हैं... 11.11.11-13. गीता ने भी लगभग यही बातें बताई हैं--5.7-9,3.27,28.गीता ने इन्हें गुणातीत बताया है. इनके लिए मिट्टी, पत्थर, सोना सब समान है. ऐसे लोग गुणों (सतो ,रजो तमो ) द्वारा विचलित नहीं किए जा सकते --14.22-25 . इन्हें स्थिर बुद्धि वाला भी कहा गया है, कृष्ण के द्वारा गीता में ही--2.68। ये राग, भय और क्रोध से रहित और कृष्ण में तल्लीन हैं. . .4.10 -  इसके विपरीत बध्य जीव शरीर से और जगत से अपना संबंध मानते हैं, आसक्ति पूर्वक कर्म करते हैं, कर्म के फल की इच्छा रखते हैं. जीव असंख्य हैं जबकि परमात्मा एक है. परमात्मा ने जीव को नहीं बनाया है, इसे समाप्त भी नहीं कर सकते।


निष्कर्तः जीव यदि  विषयों में आसक्त तो बध्य ,अनासक्त तो मुक्त.  जीव चाहे तो भगवान की शरण में जाकर वापस अपने घर, भगवान के धाम, में जा सकता है जहाँ आनंद ही आनंद है, अनंत मात्रा का; प्रतिक्षण वर्धमान और अनंत समय के लिए. 
लगातार .... 8 

No comments:

Post a Comment