पौराणिक भारत 1 : भाग ख


पतिव्रत धर्म में अपने आप को अच्छे-अच्छे वस्त्राभूषणों  से अलंकृत रखना भी शामिल था---7/11/25-29. पतित से अभिप्राय है गिरा हुआ तथा,शास्त्र अनुसार आचरण नहीं करने वाला क्योँकि  क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इसमें कृष्ण ने शास्त्र को  प्रमाण  बताया है---गीता 16/24. भक्ति करके भक्त भगवत- धाम या मोक्ष प्राप्त करता है. परंतु पतिव्रता साधारण भक्तों से ऊंची है. यह स्वयं तो भगवत धाम जाती  ही है, अपनी भक्ति के,  पतिव्रत  धर्म के, प्रभाव से अपने पति को भी अपने साथ ही भगवान के धाम में ले जाती है. इसलिए पौराणिक  भारत में पतिव्रता का गुणगान किया गया है.यह आज भी सम्भव  है.  कोई करके  तो देखे ! स्कंद पुराण में भी पतिव्रता/सति  की महिमा का वर्णन आता है. एक बार देवताओं को लेकर देव-गुरु बृहस्पति  मुनि अगस्त्य के आश्रम पर गए.वहां उन्होंने सती लोपामुद्रा की प्रशंसा की. “ यह लोपामुद्रा अरुणधती, सावित्री, अनुसूया,सती ,लक्ष्मी, शतरूपा, मेनका, सुनीति, संज्ञा और स्वाहा  आदि सतिओं में सबसे श्रेष्ठ समझी जाती हैं. यह आपके(अगस्त्यके) भोजन करने के पश्चात भोजन करती हैं, और आप के सोने के बाद सोती हैं और आप से पहले उठती हैं ... आपके बिना कहे ही  पूजा की सामग्री इकट्टी कर लेती हैं. आपकी आज्ञा के बिना किसी को कुछ नहीं देतीं. आपको जिस वस्तु  की भी आवश्यकता होती है वह बड़ी प्रसन्नता के साथ उसे तैयार रखती हैं. आप के जूठे अन्न और फलका सेवन करती हैं. आप की दी हुई चीजों को महाप्रसाद समझकर ग्रहण करती हैं ... आपके बिना तीर्थ यात्रा नहीं करतीं  और किसी विवाह शादी को देखने नहीं जातीं , पति से द्वेष रखने वाली स्त्रियों से बात तक नहीं करतीं  ,जिन कामों में आपकी रुचि होती है और जो आपको भले लगते हैं वह भी उन्हीं को सदा अच्छा समझती हैं.’’  सीता माता को वनवास नहीं हुआ था फिर भी पति के साथ वनागमन किया . यमदूत कहते हैं कि वह सती से जितना डरते हैं उतना अग्नि और बिजली से भी नहीं डरते. यहां स्त्री धर्म का  आगे और  वर्णन मिलता है.”पति के वचनों को  ना  टालना ही पतिव्रत ,परम धर्म और देव पूजा है. पति की प्रतिकूलता स्त्री को नहीं करनी चाहिए. तीर्थ नहाने की इच्छा हो तो  पति के चरण धो कर पी ले. स्त्री को बिना मतलब पराए घरों में नहीं जाना चाहिए. ..पति की सेवा करने वाली स्त्री तीनों लोकों में वंदनीय होती है .जो स्त्री पति के मरने पर उसके साथ अपने प्राण त्याग ना कर सके उसे पवित्र भाव से अपने शील  की रक्षा करनी चाहिए।कभी उपटन तेल नहीं लगाना चाहिए। पति के मनभाने वाली वस्तुएँ  दान देनी चाहिए...रंगीन कपड़े नहीं पहनने चाहिए. ऐसे कपड़े पहनने चाहिए जिससे सारा बदन  ढका रहे. विधवा स्त्रियों को बैल आदि   की सवारी नहीं करनी चाहिए. बाल खुले रखने चाहिए क्योंकि बाल बांधने से परलोक में पति का बंधन होता है... ऐसा धर्म रखने वाली स्त्रियां अंत में पति के लोक में जाती हैं. पुराणों में पति व्रता को गंगा के समान बताया गया है, साक्षात गौरी से उसकी तुलना की गई है और पंडितों को आदेश दिया गया है कि वह सदा ऐसी स्त्री  की पूजा किया करें.   पतिव्रता ब्राह्मणी की चर्चा के बिना इस प्रसंग को विश्राम नहीं दिया जा सकता. मार्कंडेय पुराण  में  वर्णन आता है कि एक ब्राह्मणी अपने कोड़ी और क्रोधी पति को कंधे पर चढ़ा कर उसकी आज्ञा अनुसार एक वेश्या के घर ले जा रही थी. अंधेरा था, रास्ते में एक ब्राह्मण सूली पर चढ़ा हुआ था, वह दिखा नहीं और उसके पति के पांव की ठोकर से सूली हिल गई जिससे उस पर चढ़े हुए व्यक्ति को बहुत कष्ट हुआ. उसने शॉप  दिया की उसे कष्ट देने वाले का सूर्य उगने के पश्चात अन्त  हो जाए. पतिव्रता ने कहा मैं   सूर्य को उगने ही नहीं दूंगी.’’ सूर्य उगा नहीं , समस्त संसार में त्राहि-त्राहि मच गई. देवता लोग ब्रह्माजी के आदेश अनुसार अनसूया जी के पास गए. आत्रेय-पत्नीअनसूया ने ब्राह्मण पत्नी को आश्वासन दिया कि वे  उसके पति को जीवित कर देंगीं . तब जाकर सूर्य को उदय होने की इजाजत दी गई. सूर्य उदय होने पर ब्राह्मण की मृत्यु हो गई. अनसूया  जी ने संकल्प किया कि ब्राह्मण रोग से मुक्त हो, फिर से तरुण हो जाए और अपनी स्त्री के साथ  सौ  वर्ष तक जीवित रहे. ऐसा करते ही ब्राह्मण जीवित हो गया. देवताओं ने उनसे अनुरोध किया कि  वे वर् मांगे तो उन्होंने यही वर मांगा कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों महान देवता उनके पुत्र रूप में प्रकट हो, ऐसा ही हुआ. ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा ,विष्णु के अंश से दत्तात्रेय और रुद्र के अंश से दुर्वासा जी पैदा हुए. ऐसा पतिव्रता  का बल था.परंतु ऐसा एक पक्षीय  नहीं था.पति का दायित्व था कि वह पत्नी को पूरा संरक्षण दे. उत्तम के पुत्र औत्तम  का चरित्र आता है.  इनकी पत्नी इन की समस्त आज्ञाएं मानती थी,  परंतु एक बार उसने सब के सामने राजा औतम की आज्ञा मानने से इनकार कर दिया. राजा ने उसका त्याग कर दिया और घर से निकाल दिया. इस कृत्य के कारण वे  पाप  में गिर गए और उन्हें मुनियों से अर्क प्राप्त करने का हक समाप्त हो गया. राजा को सीख दी गई थी वह अपनी पत्नी का पालन करें .जैसे स्त्री के लिए पति का त्याग अनुचित है उसी प्रकार पुरुषों के लिए स्त्री का त्याग भी उचित नहीं है. कश्यपजी के अनुसार कोई किसी भी देवता की पूजा करे वास्तव में उपासना भगवान की ही है;वैसे ही स्त्रियों के लिए भगवान ने पति का रूप धारण किया है,पति -आराधना  भगवत-आराधना है ----6/18/34-35l .

पिता कन्या का दान करता था. पार्वती जी ने शिव जी को प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की . और जब शिवजी उनके सामने साक्षात खड़े हो गए तब पार्वती जी ने उन्हें यही समझाया कि पार्वती के पिता ही उनका दान शिव जी को करेंगे .इससे यह समझना चाहिए कि यदि कन्या अपना मनपसंद पति चाहती थी तो भी उसके पिता ही उस को उस पुरुष को दान करते थे . इसी को आदर्श और ब्रह्म विवाह कहा गया है. राम और सीता के विवाह को ही देख लें .  धनुष  तोड़ने के पश्चात जब दशरथ जी पधारे तब जाकर के राम और सीता का विवाह हुआ . इससे यह बात स्पष्ट  है कि पिता की आज्ञा से ही ब्रह्म विवाह हुआ करता था. वैसे तो गंधर्व और राक्षस विवाह भी हुआ करते थे, कन्याओं का हरण भी होता था; परंतु सबसे उत्तम विवाह वह था जिसमें पिता कन्या का दान करता था अर्थात ब्रह्म विवाह .राज पुत्रियों के स्वयंवर भी हुआ करते थे .शर्त  पूरी करने वाले के साथ राजकुमारी का विवाह किया जाता था( अर्जुनका मछली भेदन) , या कन्या जिसे  पसंद कर लेती थी उसके साथ विवाह  किया जाता था(राजा मांधाता की 50 कन्याओं ने मुनि सौभरि को पसंद किया), पिता  द्वारा . देवी भागवत में केरल के  राजा सुबाहु  की पुत्री शशीकला का वर्णन आता है जिसने मन-ही-मन कौशल देश के राजकुमार सुदर्शन का वर्णन कर लिया था  और पिता स्वयंवर इसलिए करवाना चाहता था कि राजा लोग जो उपस्थित हुए थे आपस में लड़े नहीं, मारकाट नहीं हो और पुत्री को मनचाहा वर  भी मिल जाए . इसने स्वयंवर को स्त्री के लिए शास्त्रों के अनुसार उचित नहीं माना है . वह अपने पिता को कहती है:   “ स्त्री को एक पति पर ही अपनी दृष्टि  डालनी चाहिए .जिस प्रकार वेश्या हॉट में जाकर वहां के पुरुषों को देखने के पश्चात उनके गुण दोषों पर मन में विचार करने लगती है और जैसे उसके मन में तरह-तरह के भाव उठते हैं; निष्प्रयोजन भी वासना युक्त भाव  से  पुरुष को देखना उसका स्वभाव बन जाता है, क्या वैसे ही मैं भी स्वयंबर में जाकर वेश्यावृत्ति अपना लूँ ?    स्वयंवर स्त्री का धर्म नहीं है .’’
पुत्रिका धर्म की भी रिवाज थी.  इस प्रथा के अनुसार पुत्री का प्रथम पुत्र पिता को मिलता था.---4 /1/2.उस पुत्र से पिता का वंश चलता था.
 सती प्रथा  थी, पति की मृत्यु के बाद पत्नी पति के साथ चिता में जल जाती थी. शिव-पत्नी सती अपने पति की निंदा सहन नहीं कर सकीं  और योगाग्नि में जल गईं . इसे बहुत महिमामंडित किया गया. यह सती आग में नहीं जली थीं ! उन्होंने अपने शरीर से योगबल के द्वारा  आग उत्पन्न कर के शरीर को राख कर दिया था, जलाकर के---श्रीमद्भागवत4/4/24-27  .  इस प्रकार सती अपने आप को भुलाकर पति के चरणों का ध्यान करते हुए जल गईं .’’ इसके बाद  प्रथा चल गई, पति की चिता में जलने की. पत्नी पति से अत्यधिक प्रेम रखती थी, अपना सर्वस्व पति को ही मानती थी,इस कारण से उसी मृत शरीर के साथ अपने शरीर को भस्म कर देती थी. राजा पृथु की रानी अर्चि  ने भी ऐसा ही किया--4./23/19-24 .भागवत से यह बात स्पष्ट है की रानी अर्चि  के सती होने को देवताओं ने भी बहुत शुभ माना था.सौभरि मुनि की  पत्नियां उनके प्रभाव से सती हो गई--- जैसे ज्वालाएं शान्त अग्नि में लीन हो जाती हैं वैसे ही सौभरि मुनि की  50 पत्नियां उनके प्रभाव से सती होकर उन्हीं में लीन हो गई, उन्हीं की गति को प्राप्त हुई-- 9/6/54-55.  कालिया नाग की पत्नियां  ज्ञानी थीं. भगवान की स्तुति करते हुए उन्होंने कहा कि भक्तजन भगवान से पृथ्वी का या स्वर्ग का राज्य  नहीं चाहते, वह रसातल का राज्य  या ब्रह्मा  का पद भी नहीं चाहते.गरिमा- अणिमा आदि सिद्धिया नहीं चाहते. यह मोक्ष की इच्छा भी नहीं रखते.ऐसी बड़ी-बड़ी बातें करने वाली पत्नियों ने भी भगवान से भक्ति माँग  करके अपने पति की जिंदगी मांगी. इससे पता चलता है कि पतिव्रत धर्म  मनुष्यों में ही नहीं वरन  नागों में भी था.इसका वर्णन श्रीमद्भागवत में दसवें स्कंध के 16 वें अध्याय में है. बाद में बलपूर्वक स्त्रियों को उनके पति की चिता में जलाने लगे. आध्यात्मिक प्रथा  कुप्रथा बन गई. और राजा राममोहन राय जैसे लोगों के प्रयासों से विदेशी शासकों ने इस प्रथा  को,आध्यात्मिक सकारात्मक पहलुओं को नज़रअंदाज़ करते हुए ,  कानून बनाकर समाप्त किया.आज के भारत में सति  वैधानिक नहीं है.बाल-विवाह भी इसी श्रेणी में आता है ; वैधानिक नहीं ,पर होता है .लोगों ने इन्हें पूर्णतः त्यागा नहीं . राजमत में सही ना होते हुए लोकमत में सही हैं . सतियों के मंदिर अब भी हैं ,सतियों को आदर से देखा जाता है ....(क्रमशः)


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