पौराणिक भारत 1 में विज्ञान तकनीक सभ्यता और धर्म
प्राचीन भारत में विज्ञान और तकनीकअत्यधिक विकसित थे.(इसे हम युगों में नहीं नाप सकते,क्योंकि यह पुराण पिछले सभी मन्वंतरों की बातें बताता है और आगे आने वाले मन्वन्तरों के बारे में भी कहता है. अस्तु पूरे कल्प को लेकर चलें जो ब्रह्मा जी का 1 दिन होता है और हमारे 4 अरब और 32 करोड़ वर्ष) सोने की खाने हुआ करती थी, मैंटलअर्जी(metallurgy)विकसित थी. खानों में पत्थर से मिले हुए स्वर्ण को प्रथक किया जाता था अर्थात निकाला जाता था. यह विकसित तकनीक के बिना संभव नहीं था. इसी प्रकार लोहा और चांदी की तकनीक भी थी. यह हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि स्वर्ण के आभूषण , लोहे के हथियार और चांदी के बर्तन और ज़ेवर तब हुआ करते थे.
मृतक शरीर से नया मनुष्य बना लिया जाता था. वेन नाम के दुराचारी राजा को ऋषि गण ने मार डाला.बाद में जब प्रजा राजा विहीन हो गई और चारों और अराजकता फैल गई तब ऋषिगण ने राजा वेन के शरीर को, जिसे उसकी माता सुनीता ने मंत्रों और रसायनों के जरिए सुरक्षित रख रखा था, मथ कर एक पुरुष बनाया जो काले रंग का था. यह निषाद कहलाया. इसने राजा वेन के सारे पाप अपने ऊपर ले लिए.इसके वंशधर नेषाद कहलाए. फिर ऋषिओंने वेनकी भुजाओं को मथ कर एक पुरुष और एक स्त्री का जोड़ा बनाया. यह राजा पुरु और उनकी रानी अर्चि हैं जो कि विष्णु और लक्ष्मी के अंश हैं , प्रभुपाद जी व अन्य विद्वानों ने’ इन्हें आवेश अवतार कहा है---.श्रीमद्भागवत के स्कंध 4अध्याय 14,15 व 23..आधुनिक युग में क्लोन clones की तकनीक कुछ वर्ष पहले ही आई है और विशेष विकसित भी नहीं हुई है. इस प्रकार ही राजा निमि के शरीरसे राजा जनक को उत्पन्न किया जिन्होंने मिथिला नगरी बसाई-- श्रीमद्भागवत9/13/12-13.गणेश जी को पार्वती जी ने भी अपने मैल से कुछ इसी प्रकार प्रकट किया था. पौराणिक काल में चाहे मंत्रों का ज्यादा विकास था या तकनीक का, जो कुछ भी रहा हो विज्ञान और तकनीक आज से कहीं ज्यादा विकसित थे. गर्भ को भी एक स्त्री से दूसरी स्त्री में स्थांतरण करने के कई वर्णन आए हैं. सबसे बड़ा वर्णन है देवकी के गर्भ से बलराम जी का रोहिणी के गर्भ में प्रवेश कराना भगवान के आदेश पर योगमाया द्वारा---- श्रीमद्भागवत10/2तथा हरिवंश. शिशु की गर्भ में क्या स्थिति होती है यह भी कपिलजी ,भगवानके अवतार ,ने समझाया है. यह सब या तो सूक्ष्मदर्शी माइक्रोस्कोप के जरिए हुआ या किसी और शक्ति द्वारा जाना गया. जो कुछ भी रहा हो वे हमसे ज्यादा विकसित थे.-- श्रीमद्भागवत3/31
.
भोग विलास के लिए कर्दम जी ने एक विमान का निर्माण किया.मनु पुत्री देवहूति के पति थे, प्रजापति थे, कर्दमजी. विमान क्या यह महल का महल था. ह्रदय को खुश करने वाली हर प्रकार की सामग्री थी. वर्त्तमान युग का इसे सैटेलाइटsatelite कह सकते हैं. इस में बैठकर पति पत्नी दोनों ने कई लोकों का विहार किया. और फिर वापस आश्रम में आ गए. आश्रम में आकर के कदम जी ने अपने आप के नौ रूप बना दिए और अपनी पत्नी के साथ लंबे समय तक विहार किया. एक ही शरीर को नौ शरीर बना डालें. आजकल इस प्रकार के योगी देखने में नहीं आते. इतना विशाल विमान जो कि इच्छा से चलता हो और किसी प्रकार का पेट्रोल ईंधन भी नहीं मांगता हो अभी तक नहीं बना है.मय दानव ने असुरों के लिए तीन विशाल विमान बनाये थे जो नगर जितने बड़े थे और उनके आने -जाने का भी पता नहीं पड़ता था --7/10/54 l दैत्यराज बलि के पास वैहायस नाम का विमान था जो चलाने वाले की जहाँ जाने की इच्छा होती थी वहीं चला जाता था ,इसमें युद्ध की सामग्री भी थी --8/10/16-17. पुष्पक विमान के संबंध में हर किसी को जानकारी है . इसका वर्णन वाल्मीकि रामायण में कई स्थानों पर है--सुंदर 8/1,2,8; 9/16, अरण्य 31/14; 48/6/.l
ऋग्वेद संहिता में ऐसी लोहे की नौका का वर्णन है जो समुद्र के अंदर और अंतरिक्ष में चलती थीयास्ते पूषन्नवो अन्तः समुद्रे ---इछ माने --6/58/3
शल्य चिकित्सा विकसित थी. यह गणेश जी के सिर पर हाथी का सिर लगाने से प्रतीत होता है . ऐसा ही दक्ष प्रजापति के साथ भी किया गया. उनका मस्तिष्क जल जाने पर बकरे का सिर लगाया गया. “सिर जुड़ जाने पर रुद्र- देव की दृष्टि पडते ही दक्ष सो कर जागने के समान जी उठे और अपने सामने भगवान शिव भगवान शिव को देखा’’---4/7/3,7,8.
लोकांतर यात्राएं हुआ करती थी, ऐसा राजा खट्वांग9/9/41-49और राजा मुचुकुंद 10/51/14-2 के स्वर्ग में जाने से प्रतीत होता है. अनर्त देश के राजा रेवत के पुत्र ककुद्मी अपनी पुत्री रेवती के लिए योग्य वर पूछने के लिए ब्रह्मलोक में ब्रह्माजी के पास गए थे ,काल की गति धरती और ब्रह्म लोक में अलग अलग है ;वहां के कुछ क्षण हमारे २७ चतुर्युगी के बराबर हैं --9/3/29-36. ऐसे ही राजा दशरथ देवताओं की ओर से लड़े थे युद्ध में. अर्जुन भी स्वर्ग में गया था नृत्य विद्या सीखने. नारद ,आङ्गिरस व सनकादिक तो एक लोक से दूसरे लोक में जाते ही रहते थे . दुर्वासा के पीछे भक्त राजा अमरीष का अहित चाहने पर जब सुदर्शन चक्र पड़ा तो वह भी कई लोकों में भागते फिरे.क्या यह लोग विमानों से जाते होंगे, या इससे भी ज्यादा कोई विकसित विद्या होगी?भरद्वाज के वृहद विमान शास्त्र में सौर, वायु ,अग्नि और आकाश ऊर्जा का वर्णन है . नारदजी आदि ने तो निश्चित तौर पर विमानों का प्रयोग नहीं किया.अपने आप ही प्रकट होते थे जहां चाहें वहां. अलग-अलग लोकों में समय की गति अलग -अलग हुआ करती करती है, हमें भागवत तथा अंय ग्रन्थों से मालूम पड़ता है. ब्रह्मा जी ने गायों के बछड़े और ग्वालबालों को चुरा लिया .पूरे एक वर्ष तक छिपा कर रखा. ब्रह्माजी के मान से देखा जाए तो यह केवल इतना समय था जितने में सुई से कमल के पत्ते को छेदा जाय …. 8 /13 /40
उस काल में राजा का राज(monarchy) होता था. प्रजातंत्र नहीं था परंतु राजा प्रजा के हित को दृष्टिगत रखते हुए राज्य करता था.राजा को जनता से वोटों की आवश्यकता नहीं थी. ना ही उसकी नीतियों का विरोध करने वाला कोई विपक्ष होता था. यदि राजा धर्म अनुसार चलता था तो उसे ऐसा करने में कोई व्यवधान नहीं होता और वह प्रजा का वास्तविक हित कर सकता था. राजा को विष्णु रूप माना जाता था. भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है की वे नरों में राजा हैं . राजा को पिता समान समझा जाता था. प्रजा की रक्षा का, विशेषकर ब्राह्मणों की और गाय की रक्षा का,भार राजा पर होता था.राजा प्रजा को प्रसन्न करने वाला, धर्म की मूर्ति तथा दीप्तिमान होता था, यही राजा का लक्षण माना जाता था पौराणिक भारत में. मत्स्यपुराण के 215 वें अध्याय में राजा के कर्तव्यों का वर्णन है . उन कर्तव्यों में राजा का मुख्य कर्तव्य था धर्म की रक्षा करना . राजा कर प्रजा की समृद्धि के लिए ही लेते थे.--- रघुवंश 1 /`1 8 . ज्यादातर राजाओं की आमदनी और खर्चा बराबर का ही होता था. ऐसा प्रतीत होता है कि फिजूल कर नहीं लिया जाता था. महाभारत के वनपर्व में अगस्त्य ऋषि और उनकी पत्नी लोपा मुद्रा का आख्यान मिलता है. ऋषि दान लेने कई राजाओं के पास गए,पर किसी भी राजा की आय व्यय से ज्यादा नहीं थी. ऐसे लोगों को कर्जदार ही समझना चाहिए और यह दान देने के योग्य नहीं है... गौतम धर्मसूत्र 5/2 .अंत में ऋषि ने इल्वल नामक दैत्य से दान लिया , पत्नी के आभूषणों के लिए. इसकी आय ज्यादा थी और खर्चा कम.इस कारण से यह दान देने के लिए समर्थ था.
आदर्श राज्य रामराज्य को बताया गया है-- जहां दैहिक, दैविक और भौतिक किसी भी प्रकार का ताप नहीं था.जो राजा अत्याचारी होते थे, धर्म अनुकूल नहीं होते थे, उन्हें ऋषि लोग हटा देते थे. राजा वेन का उदाहरण ऊपर हम देख चुके है. यदि कोई अकाल पड़ता या कोई अन्य प्राकृतिक विपदा आ जाती तो यही समझा जाता था कि उस देश का राजा पापात्मा है और धर्म के अनुसार नही चल रहा है. कई बार तो राजा को तप भी करना पड़ता था इन विपदाओं से छूटने के लिए. अधिकतर वंश परंपरा से ही राजा बना जाता था. राजा अपना वैभव और शक्ति दिखाने के लिए और प्रकृति के संतुलन के लिए यज्ञ किया करते थे.गीता 3.9-16. यज्ञ में अश्वमेध, वाजपेई आदि यज्ञ मुख्य थे. इनमे बहुत दान दिया जाता था. राजा रघु ने अपना सर्वस्य दान में दे दिया था. किसी किसी यज्ञ में पशु बलि व मदिरा-प्रयोग भी होता था , परंतु हेय दृष्टि से देखा जात था .. 4.25.7, 1 /8 /52 . नरबलि के उदाहरण भी देखने में आते हैं, जो ज्यादा प्रचलित नहीं थे और अच्छे नहीं समझे जाते थे.--9/7/8-23 व 9/16/31-32 . विश्वामित्र जी ने शुनः शेप को पशु बंध से छुड़ाया था.( यज्ञ से संबंधित लेखक का www. primelements . com साइट पर अंग्रेजी में एक लेखyagya:through fire to god है जिस में विस्तार से सब कुछ समझाया गया है ).राजा पृथु ने 99 यज्ञ पूरे किए, परंतु सौ वें यज्ञ में इंद्र ने बाधा डाली थी.राजा पृथु के प्रसंग में ,लेख ‘अवतार ’में, विस्तार से वर्णन किया गया है.यज्ञ स्वर्ग व अन्य उच्च लोकों की प्राप्ति के लिए भी किए जाते थे.यज्ञ में बहुत सी बातों पर ध्यान दिया जाता था. मुहूर्त शुभ होना आवश्यक है, यज्ञ का स्थान सही होना चाहिए, सामग्री शुद्ध होनी चाहिए और वेद मे बताए गए तरीको से हासिल होनी चाहिए, दुराचार का पैसा नहीं होना चाहिए, यज्ञ करवाने वाले ऋत्विकों में वेदों में बताए गए 12 गुण होने चाहिए, मंत्र का उच्चारण सही होना चाहिएऔर यजमान को यज्ञ में विश्वास होना आवश्यक है. छोटी सी गलती भी बहुत भारी पड़ सकती है . वृत्तासुर के प्रसंग में बताया गया है कि यज्ञ में की हुई जरा सी गलती के कारण इंद्र नहीं मारा बल्कि वृत्तासुर की मौत हुई . होता के गलत संकल्प के कारण पुत्र ना होकर वैवस्वत मनु के यहां इला नाम की लड़की पैदा हुई---श्रीमद भागवत 9/1/20 . देवी भागवत के अनुसार पांडवों ने बहुत दुख झेले क्योंकि यज्ञ में उन द्वारा ऐसे द्रव का इस्तेमाल किया गया था जो वेदों में बताए गए नियमों के अनुसार अरजित नहीं था---3/12 . देवी भागवत मानसिक यज्ञ की अनुशंषा करती है क्योंकि इसमें द्रव्य का खराब होना हो ही नहीं सकता क्योंकि हर कुछ मन से मन में किया जाता है l ऐसे यज्ञ केवल भगवान के लिए ही हुआ करते हैं . इनमें सकामता नहीं होती .इसके अलावा चार महायज्ञ भी हुआ करते थे जो सभी किया करते थे--- ऋषियों की तृप्ति के लिए ब्रह्मयज्ञ, देवताओं को प्रसन्न करने के लिए देव यज्ञ, पितृगण की तृप्ति के लिए पितृ यज्ञ व समस्त योनियों के मंगल के लिए भूत यज्ञ .
मनुष्यों को बेचा और खरीदा भी जाता था. दास प्रथा का प्रचलन था.नारद जी की माता दासी थीं --1/6/6 1.6.6.राजा लोग हजारों दास- दासी रखते थे. अन्य देशों में भी, भारत के अलावा, दास प्रथा थी. हजरत मूसा ने यहूदियों को मिस्त्र की दासता से मुक्त करवाया था-- एक्सोडस exodus
बहुपत्नी प्रथा थी, राजा लोग व संपन्न लोग एक से ज्यादा भी पत्नी रखते थे . अपने से उम्र थोड़ी छोटी , अपने वर्ण की या अपने से नीचे वर्ण की स्त्री से शादी की जाती थी. इसके विपरीत होता था तो ऐसे विवाह को विलोम विवाह कहते थे--- कन्या उच्च वर्ण की और लड़का नीच वर्ण का .देवयानी ,जो कि दैत्यगुरु शुक्राचार्य की बेटी थी, और राजा ययाति का विवाह भी इसी प्रकार का था. यह शास्त्रीय विधि विधान से नहीं हुआ. एक बार देवयानी को राजा की पुत्री शर्मिष्ठा ने कुएं में डाल दिया. राजा ने हाथ पकड़ करके उसे निकाला.देवयानी ने कहा, “आपने मेरा हाथ पकड़ा है, इसे कोई दूसरा ना पकडे. बृहस्पति के पुत्र कच के शॉप के कारण कोई ब्राह्मण मेरा पाणीग्रहण नहीं कर सकता.’’ ययति ने इसे शास्त्र के प्रति कूल समझा, परंतु यह मानकर कि प्रारब्ध ही ऐसा है देवयानी की बात मान ली---9/18/18-23 दासी से जो पुत्र होता था उसे दासी- पुत्र कहा जाता था.पुरुषों का अगभ्या को छोड़कर अन्य स्त्रियों से सहवास को सामान्य माना जाता था ,विशेषकर राजपुरुषों द्वारा --- 1/14/42 .
स्त्रियां पति को परमेश्वर मानती थीं . स्त्रियों के लिए पतिव्रत धर्म सबसे ऊंचा धर्म था . “अपने पति को जो साक्षात भगवान मान कर उसकी सेवा करती है उस स्त्री के प्रताप से उसका पति वैकुंठ में जाता है और उसे भगवान की सारूप्य मुक्ति मिलती है तथा वह स्त्री अपने पति के साथ वैकुंठ जाकर लक्ष्मी समान हो जाती है .”--7/11/29(इससे ऐसा प्रतीत होता है कि पत्नी की पति- भक्ति से पत्नी को तो वैकुंठ मिलता ही था, साथ में उसका पति भी वैकुंठ जाता था.अन्य साधनों से तो केवल स्वयं को ही भगवत धाम अथवा मुक्ति मिलती है ; इसी कारण चतुर पुरुष की प्रार्थना होती थी : “पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीं ,तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम --अर्गलास्त्रोतम,24 ,दुर्गासप्तशती ,मार्कण्डय पुराण ) यदि पति पतित हो तो आवश्यक नहीं था कि पत्नी उसके साथ सहवास करे.इसके अलावा अन्य किसी कारण से पति का त्याग करना निषेध था.स्त्री के लिए पतिव्रत धर्म आदर्श था तो पुरुषों के लिए एक नारी व्रत(पत्नीव्रत ) आदर्श था l श्रीराम इसके उदाहरण हैं l पति व्रता को पति की तपस्या के फल का आधा भाग बिना मांगे व पति द्वारा बिना संकल्प किए ही प्राप्त होता था I इसके विपरीत पति को अपनी पतिव्रता पत्नी के जप-तप आदि साधना का आधा भाग नहीं मिलता था बल्कि सब का सब पत्नी का ही होता था I और इसी के प्रताप से वह अपने पति को भी अपने साथ वैकुंठ ले जाती थी जैसा कि ऊपर बताया गया है I......(क्रमशः)
No comments:
Post a Comment