चलते-चलते वहां मिलेंगें


         
                                            
अनंत काल से प्रत्येक जीव प्रत्येक कर्म और प्रत्येक  चेष्टा केवल सुख प्राप्ति और दुख निवृत्ति  के लिए ही कर रहा है l हर कोई अपनी  स्वार्थ सिद्धि चाहता है lअपने प्रयोजन के लिए ही पति, पत्नी, पुत्र ,धन सब प्राणी प्रिय होते हैं ,सब के प्रयोजन के लिए सब प्रिय नहीं होते--वृहद.उप  2/4/5 lअसंख्य जन्मों की खोज से  ना दुख कम हुआ और ना आनंद ही आया l कारण संसार में आनंद की खोज की  जा रही है जहां वह है ही नहीं--अंधेरे कमरे में एक ऐसी काली बिल्ली को खोजा जा रहा है जो वहां पर है ही नहीं ,ना कभी थी ना कभी होगी lजो लोग अपनी बुद्धि और कर्म से सुख पाने का घमंड करते हैं उनका यह अभिमान व्यर्थ है, कृष्ण ने उद्धव को समझाया है--11/10/18 l अब हम भागवत का संदेश जान चुके  हैं  l इसका सार  हम समझ  चुके हैं कि हम शरीर से अलग जीव हैं, इस कारण  से  यह संसार हमारे लिए नहीं है l हमें  बार-बार पृथक-पृथक ढंग से समझाया गया है कि इस परिवर्तनशील अनित्य  संसार की  कोई भी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति हमारे लिये  नहीं है l  यहां तक कि यह शरीर भी हमारा नहीं है l हो सकता भी नहीं l  हमने ही संसार को अपना मान रखा --यह जड़, हम चेतन l इससे हमारा नाता है ही नहीं क्योंकि संबंध सजातीय के मध्य ही स्थापित हो सकते हैं।  इस माने हुए नाते के कारण हम बद्ध  है l  एक दिन यह शरीर हमसे बलात  छीन लिया जाएगा; परन्तु  जब तक संसार से संबंध है,कर्मों में आसक्ति है और कामनाएं है तब तक कर्म-बंधन के कारण  बार बार विभिन्न योनियों में  जन्म लेना पड़ेगा और बार-बार मरना पड़ेगा  l  दूसरी ओर भगवान से हमारा नित्य संबंध है जो कभी टूट नहीं सकता क्योंकि हम भगवान के अंश हैं, उनका ही स्वरूप हैं---1/3/32 ,11/11/4  7/5 तथा 15/7 गीता l अंश-अंशी का संबंध भला कभी टूट सकता है क्या?  इस संबंध को जानकर, सबके परमगुरु अपने आत्मस्वरुप श्री भगवान के  स्वरुप को जानना है (नारदजी ने प्राचीनबर्हि को समझाया है --4/29/26), यह करके  हम प्रकृति के गुणों के बंधन से मुक्त होकर आवागमन से छूट सकते हैं और हमेशा के लिए भगवान के पास उनके धाम में रह सकते हैं l यदि हमने ऐसा नहीं किया ---इस जन्म में  भगवत-प्राप्ति नहीं की --तो हमें बार-बार जन्म लेना पड़ेगा और अलग-अलग लोकों  में योनियों में दुख भोगना पड़ेगा,जो असंख्य जन्मों से हम कर ही रहे हैं  (‘मुक्तितथालोक परलोकके प्रसंग में यह बात विस्तार से समझाए गई है) l भगवत्प्राप्ति के अनेक मार्ग भागवत में बताये गये है,जिन  में शरीर को इस प्रकार तप  द्वारा सुखाना भी  बताया गया है कि हड्डी हड्डी नजर आएं और नसें उभरी हुई दिखे(11/18/10), पर सबसे सुगम उपाय है भागवत को पढ़ना,भागवत को सुनना, भागवत को सुनाना  और पढ़े-सुने  हुए का मनन करना   निदिध्यासन करना जैसा की धुंधुकारी ने किया था (माहा /5 /71-77 ) तथा भगवान कृष्ण  नाम का सुमिरन-कीर्तन  करना ---1 /7 /23 l बाइबिल का संदेश भी यही है कि भगवान को हम तभी प्राप्त कर सकते हैं जब उसे अपने साफ़ मन से, पूरी ताकत से और पूरे दिल से खोजें--Jeremiah29/12-13,Deuter.4/29,1Chron.,28/9 l बस इससे  ही कर्म-बंधन छूट जाएगें ,  कामनाओं से नाता टूट जायेगा  जिससे संसार से हमारा  (आत्मा  का) माना  हुआ संबंध विच्छेद हो  जाएगा  और हमें भगवत प्राप्ति हो जाएगीIअन्य किसी साधन की आवश्यकता नहीं l यह भी नहीं करने वाले को क्या कहा जाएगा !  वह स्वयं ही समझ सकता है कि वह अपनी  कितनी  बड़ा हानि  कर रहा है l  यह देव दुर्लभ मानव शरीर पुनः  ना जाने कितने सर्गों  बाद प्राप्त हो ! एक  सर्ग 4 अरब और 32 करोड़ वर्षों का होता है I परीक्षित के  पास तो सात दिन थे। क्या आप के पास इतना समय भी है ? इससे कम समय हो  तो भी घबराना नहीं चाहिए। राजा खट्वांग ने दो घड़ी में सब कुछ त्याग कर भगवत प्राप्ति कर ली थी--2/1/13 9/9/40-49 l

भगवत्प्राप्ति में लग जाओ ! मानव -जन्म बार -बार नहीं मिलता ! दत्तात्रेय जी  के अनुसार मानव शरीर  अनित्य है ;परंतु भगवत प्राप्ति  इसी शरीर  से हो सकती है l  शरीर को विषय भोग में नहीं लगाना चाहिए मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए-- 11/9/29 l
भगवतधाम में मिलेंगे !


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