महारास की लीला शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को उन्हें बिना पूछे ही सुनाई, अन्य कथाएं और लीलाएं तो उन्हें शुकदेव जी ने जिज्ञासा शांत करने हेतु सुनाई थीं l यह तो ऐसा हुआ जैसे कि कोई किसी के ऊपर बाल्टी भर के रंग डाल दे कृष्ण के रंग में रंगने हेतु l महारास चीरहरण के पश्चात होता है l मार्गशीष के महीने में गोपियों ने कात्यानी देवी का व्रत किया l व्रत का एक मात्र उद्देश कृष्णा को पति के रुप में पाना था l इस प्रकार ब्रजबालाओं की भक्ति निष्काम और अनन्य थी lवे देवी से संसारिक वस्तुओं की मांग नहीं कर रही थीं iयहाँ तक की कि वह स्वयं देवी की मांग भी नहीं कर रही थी lवह देवी से श्री कृष्ण को पति के रुप में मांग रही थीं l संतो का मत है कि यह नव युवतियाँ कृष्ण की अंतरंग शक्ति दुर्गा से ,जो कृष्ण से अभिन्न हैं, भगवान का प्रेम मांग रही थीं l पूरणमासी के दिन निवस्त्र होकर गोपियां नदी में स्नान कर रही थीlपुरानी प्रथा यही थी। स्त्रियां नदियों ,तालाबों, सरोवरों तथा तीर्थ स्थानों पर पृथक घाट पर स्नान करती थीं l और पुरुषों के लिए अलग स्थान होता थाl स्त्रियों के घाट पर पुरुषों का प्रवेश निषेध होता था l स्त्रियां सारे वस्त्र उतार कर डुबकी लगाकर पूर्ण स्नान करती थीं l भगवान आए , गोपियों के वस्त्र चुराए और पेड़ पर चढ़ गए l गोपियों ने अपने वस्त्र वापस मांगे , भगवान ने कहा, “ बाहर आओ और अपने- अपने कपड़े ले जाओ l’’ भगवान ने उन्हें समझाया कि नग्न स्नान करके उन्होंने देवताओं का अपमान किया है और प्रायश्चित रूप में कृष्ण को प्रणाम करें दोनों हाथ उठाकर ,जोड़कर।पहले तो गोपियों ने बहुत संकोच किया परंतु यह देखा कि वस्त्र प्राप्त करने का अन्य कोई मार्ग नहीं है तो कृष्ण प्रेम में डूबी हुई गोपियां जल के बाहर आईं अपने अंगों को हाथों से छुपाते हुए, हाथ जोड़कर कृष्णा को प्रणाम किया। इस समय वे पूर्ण नग्न थीं।एक-एक करके भगवान ने उन सब के वस्त्र लौटा दिएl कृष्ण ने उन्हें आश्वासन दिया कि कृष्ण उनके साथ इन्हीं रात्रियों में [ जो आने वाली शरद ऋतु की रात्रियां थीं और कृष्ण के सामने खड़ी थीं ] विहार करेंगे। चीर हरण की लीला कृष्ण ने एक तो गोपियों को सदाचार समझाने के लिए की __ प्राकृतिक स्थानों नदी, तालाब, समंदर आदि में नग्न होकर स्नान नहीं करना चाहिए।दूसरा यह बताने के लिए कि आत्मा अर्थात गोपियां और परमात्मा अर्थात श्री कृष्ण के बीच कोई आवरण नहीं होना चाहिए। इसलिए पूर्ण वस्त्र हीन अवस्था में अपने सामने बुलाया। इससे गोपियों की समस्त वृतियां और भी कृष्णमयी हो गईं l तीसरे भगवान यह बताना चाह रहे थे कि किसी व्रत अनुष्ठान आदि में यदि कोई कमी या त्रुटि रह जाए तो उसे भगवान ही पूरा कर सकते हैं अथवा माफ कर सकते हैं. इसलिए भगवान ने निर्वस्त्र नहाने के अपराध को स्वयं को प्रणाम करवा कर दूर किया। भगवान के इस बर्ताव को गोपियों ने बुरा नहीं माना और उनका प्रेम श्रीकृष्ण में और भी बढ़ गया l वे व घर नहीं जाना चाहती थी परंतु भगवान ने उन्हें समझा-बुझाकर घर वापस भेज दिया।.
श्रीकृष्ण ने गोपियों को आश्वासन दिया था कि वह गोपियों के साथ शरद की रात्रियों में विहार करेंगे-- 10/22/27 l गोपियों ने इसी उद्देश्य से देवी कात्यायनी की पूजा की थी lगोपियों की इच्छा पूर्ति हेतु भगवान ने मन बनाया, मन को स्वीकार किया। क्या भगवान के पास मन नहीं था ? भगवान के मन ,बुद्धि ,इन्द्रीय ,शरीरादि पृथक -पृथक नहीं होतेl सब कुछ भगवान ही हैं, पूर्व में बताया जा चुका है कि उनकी आंख ही देखने के अलावा सुनने का बोलने का सूँघने का छूने आदि का कार्य कर सकती हैl ऐसा ही अन्य अंगों के बारे में समझें l दूसरा इसे कुछ आचार्य ऐसे भी समझाते हैं कि उनका मन राधा जी ने चुरा रखा था, इसलिए भगवान के पास नहीं था। यह मत धारणा भी है कि राधा रानी की आज्ञा के बिना रासलीला नहीं हो सकती l ऐसी भी सोच है कि वह मन जिससे कृष्ण प्रेम रस बांटते हैं लुटाते हैं उस मन को भगवान ने स्रजित किया l यूँ भी कह सकते है कि भगवान सब की इच्छाएँ ,मनोरथ व ,कामनाऍ पूर्ण करते हैं ,ऐसा उन्होंने प्रह्लाद को कहा है ,ऋषियों ने राजा अंग को बताया है ,गीता में कहा है ,उपनिषदों में है --7/9/52-54, 4/13/34,गीता 4/11 व मुद्गल उप ,3/2,3 .गोपियों की इच्छा-पूर्ती हेतु मन बनाया l इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि भगवान ने मन बनाया l शरद की उन रात्रियों को(जिनमें चीरहरण के पश्चात गोपियों के साथ विहार करने की बात कही थी) भगवान ने दिव्य बनाकर एक ही रात्रि के रूप में परिवर्तित कर दिया जो कि ब्रह्मा जी की रात्रि के बराबर बड़ी थी, मनुष्य के चार अरब बत्तीस करोड़ वर्षों के बराबर थीl पूर्णिमा की रात्रि को भगवान ने अति सुंदर बना दिया और ऐसा ही सौंदर्य वन को और चंद्रमा को प्रदान किया।सारी ऋतुएँ एक साथ थी, सब प्रकार के फूल एक साथ खिले थेl श्रीकृष्ण ने बांसुरी पर काम बीज “क्लीं ’’ की तान छेड़ी।इसे सुनते ही गोपियां अपनी सुध-बुध खो बैठीं । मन को तो पहले से ही कृष्ण ने चुरा रखा था, अब लज्जा और भय भी हर लिएl वह बेचारी जो कुछ भी कर रही थीं वह वह काम छोड़ कर अंधा धुंध वंशी के स्वर की ओर भागीं । देवी का व्रत तो सब ने साथ- साथ किया था, स्नान पूजा आदि के लिए जाते समय एक-दूसरे को साथ लेकर जाती थी, बुलाती थी; परंतु यहां अकेली निकल पड़ी, इतना सोचने का भी अवकाश नहीं था, समय नहीं था कि अपनी दूसरी सहेलियों को भी बुला लिया जाए lकारण, गोलोक वासी जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु महाराज समझाते हैं, “गोपियाँ समाधि की स्थिति में थी l सबकी समाधि अलग अलग थी.’’ कोई दूध चूल्हे पर गरम कर रही थी, वह दूध छोड़कर भागी। कोई चोटी गूँथ रही थी, गूँथना बीच में छोड़कर भाग पड़ी। कोई आंखों में काजल लगा रही थी, अधूरा काजल लगाए ही चल पड़ी। पूरा करने की भी नहीं सोच पाई। कोई श्रृंगार कर रही थी, श्रृंगार बीच में ही छोड़ कर चल पड़ी बंसी की ओर l परंतु एक बात विलक्षण थी-- बंसी की ध्वनि विष्णु लोक पहुंची, शिवलोक पहुंची; परंतु गोकुल में गोपियों के अलावा इसे अन्य कोई नहीं सुन सका l केवल अधिकारी लोग, जो गोपियां थीं , ही इस ध्वनि को सुन सके l अाध्यात्म जगत में प्रायः ऐसा ही होता हैl ईसा मसीह भी प्रवचन देते समय कहते थे कि जिनके कान हैं वही उनकी बात सुन सकते हैं l इस पर सब लोग आश्चर्य करते थे क्योंकि कान तो सभी के थेl उनका अभिप्राय अंतःकरण की सफाई से था lसाफ अंतः करण वाला ही ईसा मसीह की बातें समझ सकता था, दुनियादारी में फंसा हुआ मनुष्य नहीं। बगल में सोए हुए पति, उसी मकान में सोए हुए सास-ससुर, बच्चे आदि बंसी की ध्वनि नहीं सुन पाए l भागती हुई, हाँफती हुईं,लोक लाज तजति हुईं , जब गोपियां कृष्ण के पास पहुंची तो कृष्ण ने उनका स्वागत किया और उन्हें नाटक करते हुए भाषण देते हुए कहा कि स्त्रियों का धर्म है कि अपनी मां-बाप की, पति की सेवा करें, बाल बच्चों को पाले पोसे और स्त्रियों के लिए जार पुरुष की सेवा सब तरह से निंदनीय है। कृष्ण ने उन्हें घर लौटने के लिए कहा l कृष्ण तो कृष्ण ही है:- पहले अपने संग का वादा किया चीरहरण के पश्चात, फिर बंसी बजा कर उन्हें बुलाया और जब आ गईं तब नाटक करने लगे l यह सुनकर गोपियों का मन खिन्न हो गया वे उदास हो गईं l श्री कृष्ण से बोली, “आप घट घट व्यापी हो-- सब धर्मों का रहस्य जानने वाले हो--- तुम्हारे उपदेश के अनुसार तो हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिए क्योंकि समस्त धर्मों के चरम लक्ष्य तुम ही हो--- मिलन की अग्नि से हमारा हृदय जल रहा है l तुम अपनी इन दासियों के वक्ष और सिर परअपने कोमल कर- कमल रखकर इन्हें अपना लो; हमें जीवन दान दो.’’-- 10 /29 /31 -41 गोपियों की ऐसी दशा देखकर भगवान का हृदय दया से भर गया और उन्होंने अपनी सारी चेष्टाएं गोपियों के अनुकूल कर दीं। यमुना में उनके साथ स्नान किया -- हाथ फैलाना, हाथ दबाना, चोटी , जांघ, नीवी,स्तन आदि का स्पर्श करना, नाखून चुभाना , मुस्कुराना ,कपोल से कपोल मिलाना, चबाया हुआ पान गोपी के मुंह में डालना आदि लीलाएं की l यह सब भगवान ने गोपियों की खुशी के लिए किया; क्योंकि स्वयं तो भगवान आत्माराम है ,अपने में ही रमण करते हैं l उन्हें अपने सिवाय अंय किसी की आवश्यकता नहीं, अपेक्षा नहीं। भगवान से प्रेम पाकर अपने सौभाग्य पर गोपियां मानवती हो गई l उनके मन में आया कि वह संसार में सबसे ज्यादा अधिक सौभाग्यशालिनी हैं l अचानक भगवान अंतर्ध्यान हो गए और गोपियां अकेली रह गई l एक बार दर्शन देकर अंतर्ध्यान होना भगवान का पुरातन स्वभाव है--केन उप. 4/4 l नारद जी के साथ भी भगवान ने ऐसा ही किया था, झलक दिखाकर अंतरध्यान हो गए थे --1/6/23 भगवान समझाते हैं कि वह ऐसा इसलिए करते हैं कि जीव में उनके प्रति और प्रेम बढे--- 10 /32 /20.
भगवान के इस प्रकार विलोपित होने से गोपियों की हालत पागलों जैसी होगी हो गई l राम अवतार के समय जैसे रामजी लताओं और वृक्षों से लिपट लिपट कर रो रहे थे और सीता का पता पूछ रहे थे, ऐसा ही गोपियां करने लगीं l गोपियां वृक्षों, भूमि, पशुओं आदि से भगवान का पता पूछने लगीं l कृष्ण की पूतना वध, बकासुर वध आदि की लीलाएं करने लगी lअपनी सुध-बुध खो कर गोपियां भगवान को ढूंढ रही थी l गोपियां रो रही थी और कृष्ण के गुणों का गान कर कर रही थी l “स्वामी हम तुम्हारी बिना मोल की दासियां हैं...हमें अपना अधरामृत दो ...हमारा जीवन तुम्हारे लिए है हम तुम्हारे लिए जी रही हैं ,हम तुम्हारी हैं।’’ भगवान को ढ़ूढ़नेलगीं l पैरों के चिन्ह मिले --ध्वजा,कमल,वज्र ,अंकुश और जौ की बाली से अंकित (10 /30
/25 ) l स्कंदपुराण ने चक्र भी बताया है l यह कृष्ण का दाहिना पांव है l कुछ भक्त चार स्वस्तिक,एक अष्टभुज व चार जम्बू फल और बताते हैं l बाँये में शंख,वृत्त,बिन डोरी का धनुष,चार जलपात्रों से घिरा त्रिभुज और अर्ध-चंद्र के नीचे मछली भी बताई गई हैं l राधा के पांवों में जोो की बाली , चक्र,कंगन ,कमल, ध्वजा ,फूल, अर्ध-चंद्र ,शंख ,यञवेदी ,कुंडल,भाला,पर्वत,रथ और मछली है l वैष्णव बांये में ११ और दांये में १९ चिन्ह बताते हैं l गोपियों का करुण विलाप सुनकर भगवान उनके बीच प्रकट हो गए l गोपियों को बहुत आनंद हुआ l भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों के साथ जमुना जी में विहार किया। उसके बाद इनके साथ महारास किया। कृष्ण ने करोड़ों रूप बना कर करोड़ों गोपियों के साथ एक साथ महारास किया।यह रास इस प्रकार था जैसे की एक निर्विकार शिशु अपनी ही परछाई के साथ क्रीड़ा करें।अपने अंग स्पर्श से भगवान ने गोपियों को प्रेमानंद दिया, गोपियों इंद्रिय प्रेम और आनंद से बेहाल हो गई, उनके केश बिखर गए, फूलों के हार टूट गए ,गहने अस्त-व्यस्त हो गए, वह अपने वस्त्र तक संभालने में अपने आप को असमर्थ पाने लगींl शुकदेवजी आगे कथा सुनाते हैं कि लोक और वेद की मर्यादा तोड़ने वाले भगवान ने थकान मिटाने की लिये गोपियों सहित यमुना में प्रवेश किया ,गोपियों ने जल की बौछारों और पानी उलीच-उलीच कर उन्हें खूब नहलाया l गोपियों के सौभाग्य को लक्ष्मी जी के सौभाग्य से भी बढ़कर बताया गया है l भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं स्वीकार किया है कि वे गोपियों के प्रेम के ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकते। महारास सखाओं ,माता-पिता ,दासों और रुक्मणि आदि पत्नियों तक को नहीं मिला l केवल गोपियों को ही मिला l
महारास के संबंध में भ्रांतियों को दूर करते हुए, संशयों को मिटाते हुए कहा गया है :-
चाहे जिस भाव से भगवान से जुड़ा जाए प्राप्ति भगवान की ही होती है, भगवान के लिए सारे भाव समान हैं जिस भाव से उन्हें भजा जाये उसी भाव से वे भी भजते हैं , ---
7/1/25 -30,10 /29 /14 -15 व 10 /38
/22 l
भगवान गुणातीत हैं, उन्हें गुण बांध नहीं सकते। उन्होंने गोपियों की प्रसन्नता के लिए ही रास किया। वह स्वयं आत्माराम है, किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं है l भगवान.स्वार्थ और अनर्थ से ऊपर उठे हुए हैं l गोपियां स्वकीया है; परंतु उनमें परकिया भाव है l वह निरंतर अपने प्रियतम कृष्ण का चिंतन करती हैं, उनसे मिलने की उत्कंठा रखती हैं और कृष्ण में कोई भी दोष नहीं देखतीं । भगवान के निरंतर साथ रहने के कारण और उनसे अपने संरक्षण, पालन पोषण तथा प्रेम के बदले प्रेम पाने की भावना होने के कारण रुक्मणी, सत्यभामा आदि रानियां जो भी स्वकीया कहलाती हैं, में यह भाव गौण हो जाते हैं ;परकीया में यह भाव हमेशा बने रहते हैं l इसी कारण से नारद जी आदि भक्ति के संतों ने गोपियों को कृष्ण की रानियों से ऊपर की कक्षा में माना है और इसी कारण से कृष्ण ने बार-बार कहा है कि वह गोपियों का ऋण नहीं चुका सकते l गोपियां केवल प्रेम देती ही देती थी बदले में कुछ भी कृष्ण से प्राप्त करने की आशा नहीं रखती थीं lउनकी हर क्रिया कृष्ण के सुख के लिये होती थी ,अपने सुख के लिए नहीं l
“कृष’’ शब्द सत्ता का वाचक है “ न ’’ आनंद सूचक हैl श्री कृष्ण पूर्णब्रह्म हैं “ॐकृषिर्भूवाचकह शब्दो। … गुरवे बुद्धिसाक्षीणे l ’’
--- गोपाल पूर्व तापनी उपनिषद l कृष्ण स्वयं अपने संबंध में गोपाल उत्तर तापनीउपनिषद में समझाते हैं कि वे वह हैं जिससे सब की उन्नति होती है, जिसके नाम के स्मरण से पतित भी पावन हो जाता है..... असीमित की सीमा मिल जाती है, जिसके स्मरण से व्रत हीन व्रत धारी हो जाता है, जिनके स्मरण से वेद ज्ञान से रहित पुरुष भी वेद ज्ञानी हो जाता है--- l कृष्ण सबके उद्गम हैं। महाविष्णु, जिनकी एक साँस के बराबर ब्रह्मा के सौ वर्ष होते हैं (हमारे चार अरब ३२ करोड़ वर्ष ब्रह्मा का एक दिन है ) , कृष्ण के अंश का अंश मात्र हैं …ब्रह्मसंहिता ५. १ ,४८। भगवान अच्युत और एक रस हैं ,उन्हें किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है l भगवान सत्य संकल्प हैंl यह सब उनके चिन्मय संकल्प की चिन्मयी लीला है l अग्नि सब कुछ खा जाता है ,परंतु उसे पदार्थों का दोष नहीं लगता।जीव को भगवत परायण बनाने के लिए ही भगवान ने रास लीला रची l भगवान श्री कृष्ण अजन्मा और अविनाशी है, उनके जन्म और कर्म दिव्य होते हैं ,यह ऊपर बताया जा चुका है। अवतार के प्रसंग में यह भी बताया जा चुका है कि गोपियां भगवान की स्वरूप भूता अंतरंग शक्तियां हैं l इन में काम भाव कैसा? गोपियां बहुत उच्च कोटि की साधक थीं। साधारण साधक धर्म का त्याग नहीं कर सकते और यह बात कृष्ण ने साधारण साधकों के लिए नहीं कही है बल्कि उच्च कोटि के साधकों के लिए कही है कि वह सारे धर्मों को त्याग कर कृष्ण की शरण में आ जाएं---गीता18/66 l समस्त धर्मों का मूल श्रीकृष्ण है(कठोपनिषद1/2/15 , भागवत7/11/7) इसलिए इनके लिए धर्म को त्याग करना अनुचितस कैसे हो सकता है”? गोपीयां इसी प्रकार की साधक थीं । इसी कारण से गोपियां वेद- मर्यादा का त्याग करने में समर्थ थीं l अधिकारी होने के कारण भगवान ने उनके साथ रास किया।हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के अनुसार जिसे कृष्ण बंसी बजा बजा कर बुलाएँ, क्या वह दूसरे धर्म की ओर देख सकता है?
गोपियाँ जानती थीं कि कृष्ण साक्षात् भगवान हैं l उन्तीसवें अध्याय में परीक्षित ने यह संशय किया कि गोपियों में जार भाव था वे कृष्ण को भगवान नहीं मानती थीं l शुकदेव ने सीधा और स्पष्ट उत्तर नहीं दिया ,केवल समझाया कि किसी भी भाव से वृत्तियाँ भगवान में जोड़ दी जाएं ,वे भगवान से जुड़ती है l गोपियों के वार्तालाप से प्रकट होता है कि उन्हें ज्ञान था कि कृष्ण भगवान हैं, यशोदानन्दन होने के साथ-साथ सबके अन्तर्यामी हैं, उनके चरणकमल लक्ष्मी द्वारा सेवित व भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने वाले हैं और उनकी समस्त कामनाएं पूर्ण हैं उन्हें अपनी खुशी के लिए किसी अन्य की आवश्यकता नहीं (10 /29 /31 -41,10 /31 /4 तथा 13 और10/47/46)l कृष्ण जगत-पति हैं l गोपिओं के व सब चराचर के पति हैं ,स्वामी हैं l
गोपियों और कृष्ण का नाता जीव-ब्रह्म अंश-अंशी का स्वाभिक नाता है जो नित्य है l इसे कोई जाने या न जाने ,समझे या न समझे ,माने या ना माने;परन्तु यह संबंध रहेगा ही,अटूट है l पति से पत्नी द्वारा प्रेम स्वभाविक रूप से चाहा जाता है l गोपियों ने भगवान से अपना हक ही तो माँगा है और उन्होनें दिया है ,रास के रूप में l इसके विपरीत संसारिक पति से शरीर का ही संबन्ध है जो अनित्य हैlगोपियों ने असंख्य जन्मों में असंख्य पति /पत्नी बनाए हैं जिनसे आत्मा का नाता नहीं है जैसे लहरों का समुद्र से नाता नित्य है,एक लहर का दूसरी लहर से नाता क्षणिक व अनित्य है l यह तत्त्व ज्ञान न होता तो क्या वयस्क और तरुण घर-गृहस्ती वाली स्त्रियाँ छोटे से आठ वर्ष के बच्चे का अधरामृत व अंग-संग माँगती ?वे ज्ञान रखतीं थीं कि कृष्ण सब आत्माओं की आत्मा हैं और जगत में हर प्राणी अपनी आत्मा से सबसे बढ़कर प्यार करता है l पुत्र,पति -पत्नी,धन आदि से प्रेम तो इसलिए है कि ये वस्तुए आत्मा को प्यारी हैं (10 /14
/51 -55 )l आत्मा का आत्मा से,स्वयं का स्वयं से, मिलन कैसे अपवित्र हो सकता है?इस मिलन से अधिक स्वभाविक और कौन सा मिलन होगा !प्रथम तो जार भाव था ही नहीं l कोई फिर भी जार भाव माने तो भी यह भाव यदि भगवान के प्रति है तो भगवत-प्राप्ति का अचूक साधन है l यह वैदिक सिद्धांत(तैतरीय उप. X./ 3 व मुद्गल उप. lll /3 ) भागवत में ही अक्रूरजी से कहलवाया है और गीता में भगवान स्वयं ने अर्जुन के प्रति कहा है कि जो जिस भाव से उन्हें भजता है उसे वे उसी प्रकार का आश्रय देते हैं अर्थात भाव के अनुसार फल मिलता है,भगवान को जो जैसा मानता है भगवान उसके लिये वैसा बन जाते हैं -- 10 /38/22 व गीता 4/11(लेखक का इस सिद्धांत पर विस्तृत लेख है I am what
My servant thinks(expects)I am साइट www. primelements . com पर )l प्रेम-भाव से भजकर प्रेम ही तो पाया है l
एक बार गोपियों को यमुना पार करके दुर्वासाजी के आश्रम जाना था l उपाय कृष्ण ने सुझाया : “ यमुना से कहना ‘श्री कृष्ण नाम से प्रसिद्ध हमारे श्यामसुन्दर पूर्ण ब्रह्मचारी हैंl ’ यों कहने पर यमुनाजी तुम्हें जाने के लिये मार्ग दे देंगी। ..’’ ऐसा ही हुआl गोपियाँ तो अन्यथा मानती थीं ,कृष्ण कैसे ब्रह्मचारी हो सकते हैं ?जिज्ञासा शान्त करते हुए दुर्वासा ने भेद समझाया, “ जो कामना पूर्वक भोगों की अभिलाषा करता है वह कामी होता है ,जो कामना रहित होकर भक्तों द्वारा अर्पित भोगों को ग्रहण करने की इच्छा करता है ,वह अकामी होता है ---उसे कामना और आसक्ति से दूर माना जाता है ----गोपाल उत्तर तापनी उपनिषद 1 /22 -23 l इसलिए सोलह हज़ार एक सौ आठ रानियाँ ,उन सबसे दस-दस पुत्र होने पर ,कुब्जा ,गोपियाँ आदि नारियों से प्रेम प्रसंग करने के पश्चात भी कृष्ण ब्रह्मचारी हैं l यह सब उन्होनें भक्तों की इच्छापूर्ति हेतु किया ,आसक्ति रहित होकर ,कामना रहित होकर l कृष्ण की दिव्य लीलाएँ व कृष्ण को तत्त्व से जानकर जीव आवागमन से छूटता है l इस हेतु उपरोक्त उपनिषद,हरिवंश ,ब्रह्मवैवर्त पुराण ,ब्रह्मसंहिता आदि कृष्ण संबंधी ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए l
कृष्ण ने गोपियों से अपने मिलन को सर्वथा निर्दोष बताया है और यह भी कहा है कि वे गोपियों के सदा ऋणी रहेंगे, उनके प्रेम से उऋण नहीं हो सकते---10/32/22.....(क्रमशः)
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