अवतार : भाग 3


कपिल भगवान---- स्कंध 3 अध्याय 21 से 33.

अजन्मा भगवान कर्दम जी के वीर्य को निमित् बना कर के उनकी पत्नी देवहूति, जो भगवान श्री पुरुषोत्तम की अराधिका  थीं,के गर्भ से इस प्रकार प्रकट हुए जैसे लकड़ियों में से अग्नि .ऐसा भगवान ने पूर्व में कर्दमजी को दिए गए वरदान को पूरा करने के लिए किया .  “ महामुनि मैं तुम्हारी पत्नी के गर्भ  में अवतीर्ण  होकर सांख्य [sankhaya  ] शास्त्र संसार को बताऊंगा’’ … 3.21.32 . भगवान के प्राकट्य से सब ओर  आनंद छा गया. जलाशय निर्मल बन गए. फूलों की आकाश से वर्षा हुई. ब्रह्मा जी को पता लग गया और वह भी पधारे.  यह अवतार सांख्य शास्त्र के उपदेश हेतु प्रभु ने  लिया. भगवान ने अपने पिता कर्दम जी को बताया कि यह अवतार भगवान ने प्रकृति  आदि तत्व के विवेचन के लिए ,संपूर्ण कर्मों से छुड़ाने वाला आत्म ज्ञान प्रदान करने के लिए, भक्ति मार्ग बताने हेतु, अष्टांग योग[ यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान तथा समाधि] समझाने के लिए, प्रकृति पुरुष के विवेक से मोक्ष प्राप्ति समझाने के लिए लिया है. किसी भी एक से भगवत प्राप्ति हो सकती है ऐसा भगवान हमें समझाते हैं-- 3.29.35. अपने पिता  कर्दम जी को भगवान ने आज्ञा दी कि वे अपने संपूर्ण कर्म भगवान को अर्पण करते हुए दुर्जय   मृत्यु को जीतकर मोक्ष पद प्राप्त करने के लिए भगवान का भजन करें।इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने कर्मयोग मिश्रित भक्ति भी बताई, जो कि कृष्ण अवतार में भगवान ने अर्जुन को गीता में बताई है . [गीता 9.27,28 ,3.30 ,5.10, 8.7, 18.46, 18.56 ] उनके योग का अंतिम लक्ष्य भगवान को प्राप्त करना है ,ना कि  सिद्धियां.  सिद्धियों पर उन्होंने विचार भी नहीं किया, जब कि आगे हम देखेंगे उद्धव को योग समझाते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने सिद्धियों के संबंध में भी चर्चा की है… 11.15.कपिल भगवान ने अपनी माता को लक्ष्य करके संसार को  समता का उपदेश दिया है, “जिस समय यह मन काम क्रोध, मोह, लोभादि विकारों से मुक्त शुद्ध हो जाता है, उस समय वह सुख-दुख से छूटकर  सम अवस्था में जाता है’’... 3.29.16.  समता  अर्जुन को श्री कृष्ण ने गीता में समझाई है. “दुख सुख को समान समझने वाले  धीर पुरुष को इंद्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है ’’.. गीता 2.15.

कपिल भगवान ने हमें समझाया है कि जीव  के बंधन और मोक्ष का कारण मन ही है. विषयों में आसक्त होने पर मन बंधन का हेतु बन जाता है और परमात्मा में राग रखने पर यही मन मोक्ष का कारण बनता है।  योगियों के लिए भगवत प्राप्ति के निमित्त सर्वात्मा हरी के प्रति की हुई भक्ति से ज्यादा अच्छा और कोई मार्ग नहीं है. “प्रकृति के गुणों से उत्पन्न विषयों का त्याग करने से, वैराग युक्त ज्ञान से, और मेरे प्रति की हुई भक्ति से मनुष्य मुझे ,अपने अंतरआत्मा को, इस देह  में ही प्राप्त कर लेता है’’--- ऐसा भगवान ने हमें बतलाया --- 3.25.27.आगे भगवान ने यह भी कहा है कि तत्वज्ञानी का प्रकृति कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती--3.27.26.इस अवतार में भगवान ने चार प्रकार की भक्ति के संबंध में भी चर्चा की है.[ इसकी  विस्तार से चर्चा  भक्ति के प्रसंग में  हैं .] भक्ति तामस ,राजस सात्विक और निर्गुण होती है.---3. 29.11,12.भगवान को अपना चित्  और कर्म समर्पण करने वाला अकर्ता  और समदर्शी पुरुष भगवान को सबसे अच्छा दिखता है..3.29.33. जीव जब  माता के गर्भ में स्थित होता है तब बहुत कष्ट झेलता है . और संकल्प लेता है कि वह भगवान के चरणों को अपने ह्रदय में स्थापित करके अपनी बुद्धि की सहायता से अपने को बहुत शीघ्र संसार रूप समुद्र के पार करेगा और यह अभिलाषा रखता है कि  अनेक दोषो  से युक्त यह संसार- दुख उसे फिर प्राप्त ना हो. परंतु जन्म लेने के कष्ट में वह अपना सारा ज्ञान भूल जाता है और पैदा होते ही रोने लगता है.....  3.31.21,24.इसी कारण से शुकदेवजी अपनी माता के गर्भ  से बाहर नहीं आना चाहते थे क्योंकि उन्हें डर था कि माया लग जाएगी और वह माया बद्य   हो जाएंगे।

भगवान ने तत्व 24 बताएं हैं --चित्, मन, बुद्धि ,अहंकार ,पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां, पांच तन्मात्राएं, और पांच महाभूत .जो सब प्राणियों के भीतर जीव रूप से और बाहर काल  रूप से व्याप्त है वह भगवान ही 25 वें  तत्व है.हमें भगवान समझाते हैं कि जीव अपने आप को कर्ता  मानने लगता है. इस अभिमान के कारण वह कर्मबंधन में फंस जाता है और अपनी स्वाधीनता और शांति खो बैठता है. जीव के  लिए भगवान ने उपदेश दिया है कि वह तीव्र भक्ति योग और वैराग्य द्वारा अपने मन को वश में करे.  कर्मों में आसक्त रहने के कारण बार बार जन्म मरण होता है. जो सकाम कर्म करते हैं और देवताओं   पितरों की भक्ति करते हैं वह मृत्यु उपरांत पितरों के लोक और देवताओं के लोक में जाते हैं और पुण्य क्षीण  होने के बाद  मृत्यु लोक में  फिर  गिर जाते हैं   बार-बार अपने ही वंश में पैदा होते हैं. स्त्री का चिंतन करने वाले अगले जन्म में स्त्री बनते हैं [ गीता का भी यही सिद्धांत है….8.6, ,14.14,15,18  ,18.12] स्थूल शरीर को भगवान ने भोग का अधिष्ठान बताया है. लिंग शरीर और स्थूल शरीर का साथ रहना जन्म कहलाता है और  प्रथक होना मृत्यु है.  यह चक्र तो चलता ही रहता है. इससे ब्रह्मा जी ,सप्त ऋषि गण, सनकादिक कुमार   सिध्दगण भी  अछूते नहीं है. प्रलय के समय समस्त योगी गण ब्रह्म लोक के समस्त प्राणी,जो हम मनुष्यों से बहुत श्रेष्ठ हैं,   भी देह त्याग कर ब्रम्हाजी में लीन हो जाते हैं. इन सबके समेत ब्रह्मा जी भी पुराण पुरुष परब्रह्म में लीन हो जाते हैं.परंतु ब्रह्मा जी, मरीची आदि ऋषि, सनकादिक कुमार, योगेश्वर और युगप्रवर्तक सिध्दगण  आदि पुरुष पुरुषश्रेष्ठ सगुण ब्रह्म को प्राप्त हो कर भी अपने में कर्तव्य अभिमान होने से अपने आप को स्वतंत्र मानने से[भेद दृष्टि ] सृष्टि के आरंभ में पुनः  पहले की तरह प्रकट हो जाते हैं. ऋषि गण ब्रह्मलोक के ऐश्वर्य को भोगकर फिर इस लोक में जाते हैं.यह सब साधारण जीव से अत्यंत उच्च कोटि के हैं. प्रलय के बाद  सृष्टि होने पर  नीचे के लोको  में नहीं गिरते .  अपने पूर्व पद पर जाते हैं. यह इसलिए होता है कि ब्रह्मा जी अपने को भगवान से स्वतंत्र मानते हैं. और इन्हें कर्तापन की भावना भी होती है.इस्कॉन सोच यह  हैं: “ यह सभी जानते हैं कि ब्रह्मा को  मुक्ति मिलती है, परंतु वे भक्तों को मुक्ति नहीं दिला सकते...ब्रह्मा जी कभी कभी सोचते हैं कि वह परमेश्वर से स्वतंत्र है या कि वह अपने को तीन स्वतंत्र अवतारों में से एक मांनते हैं. ब्रह्मा को सृष्टि करने, विष्णु को पालन करने और रुद्र या शिव जी को संहार करने का कार्य सौंपा गया है... इन तीनो में से कोई भी भगवान से स्वतंत्र नहीं है... इसलिए ब्रह्मा जी महाविष्णु के पास पहुंच जाते हैं किंतु वे वैकुंठ में ठहर नहीं सकते….ब्रह्मा,महान ऋषि गण,  शिव आदि सामान्य जीव नहीं है. वह सभी अत्यंत शक्तिमान  हैं और समस्त योग सिद्धियों  से पूर्ण है. फिर भी वे परब्रह्म के साथ एकाकार होना चाहते हैं, अतः उन्हें वापस आना पड़ता है. श्रीमद्भागवत में यह स्वीकार किया गया है कि जब तक मनुष्य अपने को भगवान के समान सोचता है तब तक वह पूर्ण रूप  से शुद्ध या ज्ञय  नहीं रहता. प्रलय के बाद ऐसे लोग प्रथम पुरुष अवतार महा विष्णु के पास तक जाकर भी पुनः  इस संसार में वापस आते हैं... इसी भूल के कारण बड़े से बड़े योगी अध्यात्मवादी भी पुनः  सृष्टि होने पर वापस आते हैं. ’’ [ श्रीमद्भागवतम् तृतीय स्कंध भाग 2 पेज 673-675: श्री  भक्तिवेदांत ट्रस्ट की किताब भागवतम .]इसीलिए श्री कृष्ण ने गीता में समझाया है की देवता, यक्ष , पितर ,भूत- प्रेत आदि की भक्ति करने वाले तुछ  बुद्धि के हैं. उन्हें ज्यादा से ज्यादा इन का लोक प्राप्त हो सकता है जो कि इनकी तरह ही नाशवान  है-7.23 , 9.25. शुकदेव जी ने द्वितीय स्कंध के तीसरे अध्याय  में  सलाह दी है कि बुद्धिमान पुरुष को चाहे वह कामना   रखता हो , चाहे कामनाएं नहीं रखता हो और पूर्णत: से निष्काम हो, भक्ति केवल पुरुषोत्तम भगवान की ही करनी चाहिए, सबका स्वामी बनना हो तो ब्रह्मा जी की आराधना कर सकता है; परंतु यह फल नाशवान ही तो है.

माता  देवहूति ने कपिल  भगवान की जो स्तुति  की है, उससे कपिल भगवान का पूर्णब्रह्म होने का पता लगता है: “जिसमें प्रलय  काल आने पर सारा संसार लीन हो जाता है, उसे मैंने अपने  गर्भ में धारण किया...भगवान आपके नामों का श्रवण या कीर्तन करने से तथा भूले-भटके कभी-कभी आपका स्मरण करने से ही कुत्ते का मांस खाने वाला चाण्डाल  भी  सोमयागी   ब्राह्मण के समान पूजनिय  हो सकता है... कपिल देव जी! आप साक्षात परब्रह्म हैं आप ही परम पुरुष हैं व्रीतियों के प्रभाव को अंतर्मुख करके अंतकरण में आपका ही चिंतन किया जाता है. आप अपने तेज  से माया के कार्य गुण- प्रभाव को शांत कर देते हैं तथा आपके ही उदर में संपूर्ण वेदतत्व  निहित है. ऐसे साक्षात विष्णु स्वरूप आपको मैं प्रणाम करती हूं.” माता की स्तुति सुनने के पश्चात भगवान ने उन्हें कहा कि वह भगवान के मत में विश्वास करें. उनके मत  में विश्वास करने से जन्म-मरण रहित भगवान के स्वरुप की प्राप्ति होती है. और जो कपिल भगवान के मत को नहीं मानते वह जन्म मृत्यु के चक्कर में पड़े रहते हैं.

जैसा कपिल भगवान ने बताया था वैसी योग साधना उनकी माता देवहूति ने की.जैसा रूप भगवान का कपिल जी ने बताया था[अध्याय 28 स्कंध 3] उसके एक एक अवयव  का तथा समग्र रूप का चिन्तन करती हुई ध्यान में तत्पर हो गईं .  चित  शुद्ध होने पर वे  उस सर्वव्यापक आत्मा के ध्यान में मग्न  हो गई जो अपने प्रकाश से माया जनित आवरण को दूर कर देता है .और श्री भगवान को प्राप्त कर लिया.  योग साधना के द्वारा देवहूति के शरीर के सारे दैहिक मल दूर हो गए थे और वह एक नदी के रूप में परिणित हो गया. यह नदी सब प्रकार की सिद्धि देने वाली है.  [ अष्टांग योग का वर्णन अन्यंत्र किया गया  है पुनरावृति नहीं करेंगे].भगवान कपिल जी ने योग मार्ग का उपदेश देने के बाद अपने आपको समाधि में स्थित कर लिया, स्वयं समुद्र में उनका पूजन करके उंन्हें  स्थान दिया.

कपिल भगवान के उपदेशों का सार: 1- जीव अकर्ता और निर्गुण है, अपने को कर्ता  नहीं  माने. 3.26.6,3.27.1-3, प्रकृति के तत्व समझे और अपने को प्रकृति से परे माने.  2- सारे कर्म भगवान के अर्पण करें और निष्काम भाव से स्वधर्म पालन करें ..3.24.38, 3.29.33.  3- भक्ति योग तथा  वैराग्य द्वारा चित् को विषय भोग से हटाकर अपने वश में करें...3.27.5.  4 - अष्टांगयोग या भक्ति, दोनों में से एक का भी साधन भगवत्प्राप्ति कराता है...3.29.35

इस अवतार में भगवान ने बल पराक्रम नहीं दिखाया, मारधाड नहीं की, केवल ज्ञान बांटा. यह भगवान का अंश कला अवतार है...3.21.32.

जो भगवान कपिल और उनकी माता देवहूति के परम पवित्र संवाद का श्रवण  या वर्णन करता है वह भगवान गरुणध्वज की भक्ति से युक्त होकर शीघ्र ही श्री हरि को प्राप्त करता है...3.33.37.इससे हमें वह फल मिल सकता है,जैसा कि हमने ऊपर देखा है, जो   कि ब्रह्मादि  आदि के लिए भी दुष्प्रापः  है…..( क्रमश:)

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