Prabhu ki vani : Ved
वेद (Ved) भगवान का नि:श्वास है; यह मनुष्य द्वारा रचित नहीं है, इसलिए अपौरुषेय(immortal) कहलाते हैं । वेद ईश्वर रूप हैं इसलिए किसी भी काल में उनका नाश(destruction) नहीं होता। प्रलय(Dissolution of world)) के समय इनका तिरोहित होना ही माना जाता है, समाप्त होना नहीं। सर्ग के आरंभ में प्रलय में तिरोधान हुए वेदों को भगवान महाविष्णु प्रकट करते हैं, सर्वप्रथम ब्रह्माजी को और ब्रह्माजी के द्वारा ऋषियो पुनः प्राप्त होते हैं।----ऋग्वेद ---10। 71। 3। ये श्रुति कहलाते हैं। गहन ध्यान की अवस्था में व समाधी अवस्था में ही ये ऋषियों को प्राप्त होते हैं, ये मंत्र-दृष्टा ऋषि कहलाते हैं। वेदों में अलौकिक(unearthly,
supernatural) ज्ञान है। वेद भी अनादि हैं, भगवान, जीव और माया की तरह। हर बार प्रलय के समय लुप्त हो जाते हैं और सर्ग के समय उपरोक्तानुसार प्रकट होते हैं, जैसे कि पूर्वसर्ग में थे; इस प्रकार नित्य हैं---। वेदों की ज्ञानराशि परमात्मा में सूक्ष्म रुप से पूर्व में भी विद्यमान थी अब भी है और आगे भी रहेगी। इन्हें श्रुति कहा गया है क्योंकि वेद गुरुद्वारा शिष्य को, शिष्य द्वारा फिर अपने शिष्य को पाठ करके सुनाया जाता था । इसलिए, यह ज्ञान गुरु-शिष्य परंपरा से हमारे पास तक पहुँचा। पूर्व में इन्हें लिपिबद्ध नहीं
किया जाता था अपितु बोलकर ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलते थे।
वेद के पाठ करने के आठ प्रकार महर्षियों ने बताए हैं-- जटा, माला, शिखा, रेखा, ध्वज, दंड, रथ और घन। इन्हें विकृतियाँ भी कहा गया है। करीबन 3000 वर्ष ईसा पूर्व वेदव्यासजी ने यह मानते हुए कि कलियुग में मनुष्य अल्प चेती और अल्पवयी होंगे, इन्हें चार भागों में विभाजित किया।
वेदों की इस प्रकार चार शाखाएँ हुईं-- ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद। ऋग्वेद की परंपरा ऋषि पैल से आरंभ हुई। ऋग्वेद की 21 शाखाएँ बताई जाती हैं जिनमें से उपलब्ध हैं शाकाल और शंकायन का ब्राह्मण और आरण्यक भाग। इसके मंत्र वैदिक समय के देवताओं की प्रशंसा में है और यज्ञ(Yajna) में काम आते हैं। अग्नि और सूर्य ऋग्वेद के मुख्य देवता हैं। पहला मंत्र ही अग्नि(fire-god) को समर्पित है। दूसरे देवता वरुण, रूद्र, मारुत और शिव हैं। इनमें से रूद्र और विष्णु के अलावा बाकि सब देवता स्वर्गलोक के देवता हैं। कुछ किस्से-कहानियाँ भी इनमें हैं, जैसे भगवान वामन की, राजा मांधाता की, ऋषि दधीच आदि की। इसका ‘पुरुष-सूक्त” परमब्रह्म के सम्बन्ध में बतलाता है। इसका ऋत्विक [यज्ञ करने वाला विशेषज्ञ] कहलाता है। यह यज्ञ-सामग्री ग्रहण करने के लिए इंद्र, विष्णु, वरुण आदि देवताओं को बुलाता है। यजुर्वेद, -जिसका अध्ययन वेदव्यास ने वैशम्पायन को सर्वप्रथम कराया- की 109 शाखाओं में से केवल सात ही मिल पाती हैं। इसमें यज्ञ संबंधी सामग्री-विचार मुख्य है। अध्वर्यु, ऋत्विक -जो यज्ञ करवाता है- के लिए ज्यादातर मंत्र मिलते हैं। यह यज्ञवेदी का निर्माण, हवन-सामग्री आदि से संबंधित कार्य करता है। यह वेद -कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद- दो शाखाओं में है। सामवेद का सबसे पहले अध्ययन जैमिनी को कराया गया। यह ‘उद्गाता’ के लिए है जो कि यज्ञ के समय मंत्रों का गायन करता है। इसकी 1000 शाखाओं में से 3 ही मिल पाती हैं जिसमें ‘राणायणीय’, ‘कौथुमीय’ और ‘जैमिनीय’ मुख्य हैं। इसमें भी बहुत-सी सामग्री ऋग्वेद और यजुर्वेद से है । वेदव्यासजी द्वारा
अथर्ववेद सर्वप्रथम सुमंतु को दिया गया। इसकी 20 शाखाओं में से केवल एक शाखा ‘शौनक’ ही उपलब्ध है। ज्यादातर हिस्सा गद्य है, पद्य कम है। चारों वेदों का 80 प्रतिशत भाग कर्मकांड को लेकर है जिसमें मुख्य यज्ञ है। यह 15% भक्ति से संबंध रखता है और 5% ज्ञान से । वेद के मुख्य दो भाग हैं -मंत्र भाग और ब्राह्मण भाग। इसमें मंत्र भाग मूल(base) है और इसी की व्याख्या ब्राह्मण भाग में की गई है। ब्राह्मण भाग् के तीन उपभाग (sub division) हैं- ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद। मंत्र भाग को संहिता कहते हैं। यह संहिताएँ पाँच हैं-- ऋग्वेद, शुक्ल यजुर्वेद, कृष्ण यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। आरण्यक भाग परमात्मा के बारे में भी कुछ-कुछ बताता है। और उपनिषद ज्ञान के बारे में बताते हैं।
वेद मंत्रों में हर मंत्र का एक ऋषि होता है। यह वह व्यक्ति होता है जिसने प्रथम बार इस मंत्र का साक्षात्कार किया। फिर प्रत्येक मंत्र का देवता होता है जिसकी स्तुति की जाती है और जिस से फल प्राप्ति की कामना होती है। हर मंत्र एक विशेष प्रकार के छंद में गाया या बोला जाता है। फिर विनियोग होता है अर्थात जिस फल प्राप्ति के लिए यज्ञ प्रार्थना आदि किया जा रहा है। ऋषि का स्थान मस्तिष्क में होता है। देवता हृदय में विराजित होते हैं, छंद मुख में और विनियोग सर्वशरीर में।
यज्ञ का मापन यजुर्वेद करवाता है। शस्त्र और स्तोत्र ऋग्वेद और सामवेद से लिए जाते हैं। अथर्ववेद से अनुशासन का पालन किया जाता है। इस प्रकार चारों वेद ही यज्ञ के लिए आवश्यक हैं। यज्ञ में चार ऋत्विक होते हैं- ब्रह्मा, होता, उदगीता और अध्वर्यु। ब्रह्मा मुख्य है, इसके निर्देशन में सारा यज्ञ संपादित किया जाता है। यज्ञ और मंत्र उच्चारण से वायुमंडल में शुद्धि आ जाती है। अखिल विश्व में धर्म चक्र शान्तिपूर्वक चलने लगता है। यज्ञ से देवता प्रसन्न होते हैं और यज्ञ करने वाले को मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। यज्ञ से वर्षा होती है, वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है। अन्न से समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं--- गीता3 /14 ,15। यज्ञ सृष्टिचक्र के लिए आवश्यक है।
वेदों के ज्ञानकांड में ब्रह्मजीव और माया का वर्णन है। ब्रह्म को कभी समझा या जाना नहीं जा सकता- ऐसा कहा गया है, “नेति नेति’’ यह भी नहीं है, यह भी नहीं है। और, कहीं-कहीं ‘ब्रह्म क्या है’ यह स्पष्ट तौर पर समझाया गया है। ब्रहम सर्वशक्तिमान है, सब जगह है, अनादि है, अनंत है, सत-चित-आनंद है। इसीसे सारा संसार बनता है। प्रकृति को जड़ बताया गया है, अनादि कहा गया है और प्रत्येक पल बदलने वाली। जीव का ब्रहम से एकत्व भी बताया गया है और भिन्नता भी। ब्रह्म दोनों, प्रकृति [माया] और जीव, पर शासन करता है। जीव अपने स्वरूप को नहीं जानता इसीलिए अनादि काल से मायाबद्ध है। जीव का बार-बार जन्म लेना बताया गया है। यह भी बताया गया है कि कैसे ज्ञान और भक्ति से जीव परमात्मा प्राप्ति कर सकता है। वेदों में बहुत से लोकों का वर्णन किया गया है। सबसे ऊँचा लोक ब्रह्मा का है। ये सभी लोक अनित्य हैं। आदि और अंत वाले हैं। ब्रह्माजी भी अपनी आयु के हिसाब से सौ वर्ष के पश्चात अपने लोक के साथ परमात्मा में लीन हो जाते हैं और सर्ग के आरंभ में पुनः पहले की तरह ही महाविष्णु की नाभि से प्रकट होते हैं।
कुछ ऋषि जिन्हें मंत्र दृष्टा बताया गया है, वे हैं विश्वामित्र, वशिष्ठ, भृगु, अत्रि, अंगिरा आदि। छंद कई हैं, जैसे गायत्री, अनुष्टुप, बृहती आदि। इस छंद में 24 अक्षर होते हैं 8+8+8; अनुष्टुप में 32 अक्षर होते हैं 8+8+8+8; बृहती में 44 अक्षर होते हैं 11+11+11+11 । मुख्य देवता जैसे ऊपर बताया गया है इंद्र, अग्नि, सूर्य, वरुण, विष्णु व रुद्र हैं।
वेदो में भगवान की शरणागति की महिमा गायी गई है- “प्रकाश स्वरूप प्रभु इस स्त्रोत को पढ़ने वाले को हिंसक काम-क्रोध आदि के वज्र से बचा, ये वज्र कहीं छोड़ ना दें। भक्त तेरी शरण आ गया है। तू ही सबसे बड़ा है तेरी शरण सचमुच तीनों- प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा में भद्र अथवा कल्याणकारी है। ’’--- ऋग्वेद10 / 142 /1। वेदों को भगवतस्वरूप बताया गया है --वाङ्गमय स्वरूप।
वेद पढ़ने का सबको अधिकार है-- यजुर्वेद 26 / 2 । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और स्त्री सभी वेदों का अध्ययन कर सकते हैं। कोई पाबंदी नहीं है। बहुत सी ऋषिकायें हुई है। इन में से मुख्य गार्गी, अपाला सूर्या, वाक, विश्ववारा और घोषा है। यह सब उच्चकोटि की विदुषी थी और मंत्रदृष्टा थीं । गार्गी का नाम बृहदारण्यक उपनिषद में आता है। इन द्वारा विदेहराज जनक की सभा में याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ किया गया था। इनका प्रश्न कि “ब्रह्मलोक किसमें ओतप्रोत है’’ को याज्ञवल्क्य ने अतिप्रश्न कहा था। ऐसी थी इनकी शास्त्रों पर, विशेषकर वेदों पर पकड़। इसी प्रकार महदास जिन्हें ऐतरे माहीदास भी कहा जाता है, दासी पुत्र थे, इन द्वारा भी वेदों का अध्ययन करने का वर्णन मिलता है। कालांतर में ऐसा प्रतीत होता है कि यह अधिकार शूद्रों और स्त्रियों से तथा पतित द्विजों से छीन लिया गया था-- भागवत1 /4 /24 । इसलिए इन लोगों के भले के लिए महाभारत की रचना की गई जिससे इन्हें भी वेद में बताया गया ज्ञान मिल जाए और यह अपना उद्धार कर सकें।
वेद 155.52 ट्रिलियन वर्ष [trillion] पुराने हैं। ऊपर बताया ही जा चुका है कि वैसे तो यह अनादि हैं। वर्तमान कल्प में पुनः प्रकट होने से ही इनकी उपरोक्त आयु बताई जा रही है। एक कल्प जो ब्रह्मा जी का एक दिन है, 1000 चतुर्युग का होता है, जो मानव वर्षों में 4 अरब और 32 करोड़ वर्ष है। ब्रह्मा जी अपने एक दिन के पश्चात विश्राम करते हैं, तब कल्प प्रलय होती है। ब्रह्माजी की रात्रि भी इतनी ही बड़ी है। [एक ट्रिलियन =एक लाख़ करोड़ =दस खरब वर्ष ] लोकमान्य तिलक और जाकोबी सबसे पुराना वेद, ऋग्वेद, लिखने का समय 4500 से 4000 वर्ष ईसापूर्व बताते हैं। इसे स्वामी प्रकाशानंद अपनी किताब ‘ट्रू हिस्ट्री एंड रिलीजन ऑफ इंडिया’ [True History and Religion Of
India] में गलत बताते हैं। इनके अनुसार तिलक व जैकोबी अपने निष्कर्ष को ऋग्वेद और शतपथ ब्राह्मण में दिए गए कुछ स्रोतों पर आधारित करते हैं। वे किसी विशेष समय कुछ नक्षत्रों की खगोलीय स्थिति देखकर अपना मत बताते हैं। नक्षत्रों की यह स्थिति 4500 वर्ष और 4000 वर्ष पूर्व थी। इस का उल्लेख इन ग्रंथों में है। इस आधार पर यह दोनों ऋग्वेद [Rigved] लिखने का समय आँकते हैं। इसे गलत बताते हुए श्री प्रकाशानंद कहते हैं कि सूर्य, तारा व कोई नक्षत्र जो कि किसी दिन किसी साल और किसी समय किसी एक स्थिति में होते हैं, चक्र समाप्त होने से बाद में भी उसी जगह [position] में पुनः हो सकतें हैं। यानी जो स्थान सूर्य तारा और नक्षत्र की 4500 और 4000 वर्ष पूर्व थी वहीं स्थान उसके पहले भी कभी ना कभी थी और उसके बाद भी कभी ना कभी होगी ही। ऐसी स्थिति करोड़ों साल पहले भी हुई थी और करोड़ों साल बाद भी वैसी की वैसी स्थिति सूर्य तारे और नक्षत्र की पुनः होती है। यह क्रम चलता ही रहता है। अस्तु वेद कल्प के शुरू में अस्तित्व में आए यह मानना ही तर्कसंगत है।
सब धर्म शास्त्र, दर्शन, पुराण, इतिहास, जैसे रामायण महाभारत ,का मूल वेद है। रामायण और महाभारत में वेद को ही सरल भाषा में समझाया गया है। वैष्णव वेदों को सर्वोपरि मानते हैं। बुद्ध भगवान के अवतार हैं इसलिए उनका आदर किया जाता है परंतु वह वेद विरुद्ध सिद्धांत बताते हैं जिसे वैष्णव स्वीकार नहीं करते; सिद्धांत का बहिष्कार है, बुद्ध के लिए नमस्कार है।
वेदों में बीज मंत्रों का अर्थ आधिभौतिक आधिदैविक और अध्यात्मिक-- तीन प्रकार से किया जाता हैं। प्रत्येक शब्द का अर्थ गूढ़ होता है। कई बार शब्दार्थ कुछ होता है और भावार्थ अन्य । इसी कारण वेदों को समझना सहज नहीं। उदाहरण के लिए ऋक 4 / 58 /5 शब्दार्थ है- “नदियाँ हृदय समुद्र से निकलती हैं। शत्रु द्वारा सैकड़ों बाड़ों के कारण यह दिखाई नहीं दे सकती। मैं घी की धाराओं को देखता हूँ क्योंकि उनके अंदर सुनहरा बेंत रखा हुआ है।’’ श्री अरविंद ने इसका अर्थ निम्न प्रकार किया है :- “दिव्यज्ञान हमारे विचारों के पीछे सतत प्रवाहित हो रहा है, किंतु आंतरिक शत्रु उसे अनेक बंधनों से रोके रखते हैं। अर्थात वे इंद्रीय ज्ञान तक ही सीमित कर देते हैं। यद्यपि हमारी सत्ता की लहरें अतिचेतना तक पहुँचने वाले किनारों से टकराती हैं किंतु वे इंद्रियों की आश्रिता मनश्च चेतना की सीमा में सीमित हो जाती हैं । ’’ इस प्रकार वेदों में प्रतीकों का प्रयोग भी किया गया है ।
वेदों में सुख प्राप्ति के मार्ग बताए गए हैं। श्रेय और प्रेय दोनों मार्ग दिखाए गए हैं। आवागमन से मुक्ति और भगवत प्राप्ति का मार्ग बताया गया है। इस लोक में वह अन्य लोको में हर प्रकार के भोगों का भोगना भी बताया गया है । अन्य स्वर्गादिलोक कैसे प्राप्त हो- यह भी बताया गया है। इस प्रकार श्रेय और प्रेय दोनों मार्गो का वर्णन है। वेद जीवन जीने की कला बताते हैं। इन के अनुसार चार देवता हैं: माता, पिता, आचार्य और अतिथि। माताएँ सात हैं- खुद की माँ, गुरु पत्नी, ब्राह्मण पत्नी, राजा की पत्नी, गाय, धाय और धरती माँ। राष्ट्र प्रेम, धरती को माता बताकर, समझाया गया है---- अथर्ववेद12/1/12। भारतीय संस्कृति का विश्वबंधुत्व का सिद्धांत हर कोई जानता है- ‘वसुधैव कुटुंबकम’। ऋग्वेद कहता है मिल कर चलो और मिलकर बोलो--10।191।2। इसी संदर्भ में यजुर्वेद कहता है परस्पर मित्र भाव रखो--36।18 । कौन है हम, इसकी पहचान के लिए वेद अत्यंत आवश्यक है। पर्यावरण स्वच्छ्ता पर भी ऋषियों ने बल दिया है।
यास्क और शायण आचार्यों पर चर्चा किए बिना वेदों के प्रसंग को विश्राम नहीं दिया जा सकता। वेदार्थ के निर्णय में महर्षि यास्क ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। गूढ़ वैदिक शब्दों का अर्थ प्रकृति- प्रत्यय- विभाग की पद्धति द्वारा स्पष्ट किया है । भाष्यकारों में सायणाचार्य का नाम सबसे ऊपर है। उन्हें वैदिक जगत का सूर्य भी बताया जाता है। इनके कार्य को युक्तियुक्त-प्रमाण-समन्वित-शास्त्रोक्त शैली कहा जाता है। इन्होंने अथर्वेद की संहिता और उसके गोपथ ब्राह्मण पर भाष्य लिखकर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। प्रायः इनके ही भाष्यों का विदेशों में अनुवाद किया गया है। वैदिक और लौकिक साहित्य से संबंधित इनकी कृतियाँ, हम मानवों के लिए बहुमूल्य निधि हैं। इन के भाष्य-ग्रंथ सनातन संस्कृति, धर्म, अध्यात्म एवं शिक्षा के एक प्रकार से विश्वकोश समान है। सबसे महत्वपूर्ण कार्य है इनके द्वारा वेद भाषाओं का प्रणयन किया जाना। निम्न पर इनके भाष्य है: ऋग्वेद, शुक्ल यजुर्वेद [कांड विशाखा], कृष्ण यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इन्होंने संहिताओं पर तो भाष्य लिखे हैं, साथ-साथ ब्राह्मणों पर और आरण्यकों पर भी भाष्य लिखे हैं। इनका जन्म तुंगभद्रा नदी के किनारे हम्पी नामक नगर में संवत 1324 विक्रमी में हुआ था। 31 वर्ष की आयु में यह हरीहर के अनुज कंपण राजा के मंत्री बने और 9 वर्ष तक इन्होंने बड़ी कुशलता से कार्य किया। राजा की मृत्यु होने के पश्चात इन्होंने उसके पुत्र की शिक्षा-दीक्षा का कार्य संभाला । बहुत कुछ हमारे लिए छोड़ने के पश्चात 72 साल की उम्र में आपने देहत्याग किया। इन्हें किन्नर देश वासियों के अमर प्रणेता के रूप में जाना जाएगा। वैसे तो यह राजनीति के भी विद्वान थे, शासनप्रबंध भी सुगमता से इन्होंने चलाया परंतु सबसे ज्यादा स्मरण इनके वेदों पर लिखे गए भाष्य के लिए ही किया जाता है।
वेदों में सर्वशक्तिमान के बारे में काफी कुछ बताया गया है। उस एक भगवान को लोग कई नामों से पुकारते हैं--- ऋग्वेद1।164।46 । वह सब प्रजाओं में है -- यजुर्वेद 32।8 । केवल परमात्मा ही पूजा के योग्य है-- । अथर्ववेद 2 । 2 । 1 । मोक्ष के बारे में भी बहुत कुछ समझाया गया है। यजुर्वेद कहता है प्रभु को जानकर मृत्यु का लंघन होता है--31।18। इसी प्रकार अथर्ववेद कहता है कि ब्रह्म को जानने से मोक्ष प्राप्त होता है--9।10।1।
वेदों के संबंध में स्वयं श्री कृष्ण भागवत में कहा है, “वेदों का नाम है शब्द ब्रह्म है। वह मेरी मूर्ति है। इसीसे इनका रहस्य समझना अत्यंत कठिन है-- जैमिनी आदि बड़े-बड़े विद्वान भी इसके तात्पर्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाते -- यह वेदवाणी कर्मकांड में क्या विधान करती है, उपासना कांड में किन देवताओं का वर्णन करती है और ज्ञान कांड में किन प्रतीतियों का अनुवाद करके उनमें अनेकों प्रकार के विकल्प करती है-- श्रुति के इन रहस्यों को मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता---सारे वेदों का इतना ही मतलब है कि वह मेरा आश्रय लेकर मुझमें भेद का आरोप करती हैं, मायामात्र कहकर उसका अनुवाद करती है और अंत में सबका निषेद करके मुझ में ही शांत हो जाती है और केवल अधिष्ठान रूप में मैं ही शेष रह जाता हूँ।”--11 /21 /36 -45। इस प्रकार वेद स्वयं भगवान का रुप ही हैं और इन्हें समझना बहुत कठिन है। भगवत्कृपा से यह समझ में आ सकते हैं।
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