भागवत : सत् संधान- 3

Bhagwat Sat Sandhan-3
गतांक भागवत : सत् संधान- 2 से आगे . . . . . .
  
भक्ति का अधिकारी श्रीकृष्ण सभी को बताते हैं गीता में, दुराचारी, पाप- योनि, स्त्री अथवा शूद्र कोई भी हो सभी को भक्ति का अधिकार है  और भक्ति से परम गति को प्राप्त कर सकते हैं-- गीता932 देखा जाए तो भागवत में ज्ञान और कर्मयोग  भक्ति प्राप्ति के लिए ही बताए गए, यह स्वयं श्रीकृष्ण ने उद्धव को समझाया है। प्यारे उद्धव ! तुम ध्यान से अपने स्वरूप को जानो और फिर ध्यान से संपन्न होकर भक्ति भाव से मेरा भजन करो।’’ ---11195 कृष्ण  ने  यह भी कहा है कि   निष्काम कर्म करने से तत्व ज्ञान प्राप्त होता है या कृष्ण की भक्ति प्राप्त होती है---11।20।9,10,11। ज्ञान और कर्म का लक्ष्य कृष्ण भक्ति ही है। ज्ञान और वैराग दोनों ही भक्ति से अपने आप प्राप्त हो जाते हैं---127,20 ; 42936,37 नारद जी को आत्मज्ञान भक्ति ही से प्राप्त हुआ था---1539  

भक्ति पर चर्चा

भक्ति अपने आप नहीं होती, यह की भी नहीं जा सकती, यह  तो दान में दी जाती है भगवान द्वारा महापुरुष की माध्यम से।’’ ऐसा मत है जगतगुरुत्तम श्री कृपालुजी महाराज का। राजा निमि को समझाते हुए चौथे योगीश्वर प्रबुद्ध जी बोलते हैं, “राजन श्रीकृष्ण पापों का एक क्षण में  नाश कर देते हैं। सब उन्हीं का स्मरण करें और एक दूसरे से भी स्मरण करवाएँ। इस प्रकार साधन भक्ति का अनुष्ठान करते करते प्रेम- भक्ति का उदय हो जाता है’’… ---11 /3 /31   अतः साधन भक्ति किस प्रकार की जाए और भागवत इस संबंध में क्या कहती है, इन्हीं बातों पर अब गौर करना है। नारदजी आदि भक्ति के आचार्यों का यह मत है कि भक्ति मन द्वारा की जाती है। जहाँ मन जाता है वहीं मन के साथ हम भी चले जाते हैं, जैसे सुई के साथ डोरा। इसलिए, मन को भगवान में लगाना है, चाहे जिस भाव से -द्वेष से,  भय से, प्रेम से, कामना से, नातेदारी से।गोपियों ने तीव्र काम भाव से अर्थात प्रेम से, कंस ने भय से, शिशुपाल आदि राजाओं ने द्वेष से, यदुवंशियों ने संबंध से यानी नातेदारी से, पांडवों ने स्नेह से और हम लोगों (भक्तों ) ने भक्ति से अपने मन को भगवान में लगाया है।’’ ---7130  नारद जी और अवधूत दत्तात्रेयजी, जो भगवान के अवतार हैं, कीड़े का दृष्टांत देते हुए समझाते हैं कि भृंगी  द्वारा दीवार पर मिट्टी के घोंसले में बंद किया कीड़ा निरंतर भृंगी का भय से ध्यान करता है और इसी प्रकार ध्यान करते-करते उसका रूप भृंगी का रूप हो जाता है---7127 , 11 922। यहाँ तक भी कहा गया है कि भगवान की भावना करते-करते भक्त  स्वयं ही भगवान हो जाता है---7734,3। पतंजलि ऋषि ने भी अपने योग सूत्र (विभूति पाद 23 24  में) बताया है कि जिस  वस्तु या व्यक्ति का ध्यान किया जाता है तो स्वयं संयम (ध्यान) करने वाला उस व्यक्ति या वस्तु जैसा हो जाता है और उस व्यक्ति और वस्तु के गुण संयम करने वाले में भी जाते  हैं, जैसे हाथी के बल में संयम करने से हाथी का बल प्राप्त होता है। इसलिए मन को भगवान में लगाना है। जो बातें ऊपर कही गई है भगवान से बैर करना और भगवान से डरने की, वह व्यावहारिक नहीं है, अवतार काल के अलावा भगवान या किसी अन्य से बैर  या  भय  की भावना रखना आसान नहीं है। इससे शरीर में बहुत विकार पैदा हो जाते हैं। फिर, जिनका दृष्टांत आया है वे  विष्णु पार्षद थे- जय और विजय। साधारण व्यक्ति के लिए ऐसा करना संभव नहीं। अवतारकाल के अलावा ऐसा करना तो असंभव ही है। डर पर भी यही बात लागू होती है। प्रथम, तो भगवान के गुण और लीला ही ऐसी है कि अनायास मन उनकी ओर आकर्षित होता है, प्रेम से श्रद्धा से। भगवान से बैर क्यों करें, डरे क्यों? हम सब उन्हीं के अंश तो हैं।  शेष बचे, प्रेम और कामना से भगवान में मन लगाना -यह सब के लिए संभव है। इसलिए आज यदि हम भक्ति करना चाहते हैं तो हमें भक्ति प्रेम से करनी होगी। भक्ति हेतु भाव कोई-सा भी रखा जा सकता है। महापुरुषों द्वारा शांत भाव, दास भाव, सख्य  भाव, वात्सल्य भाव और माधुर्य भाव निश्चित किए गए हैं। पहला भाव प्रजा और राजा के बीच जैसा, दूसरा स्वामी-सेवक का भाव, तीसरा मित्रों का और सखाओं का भाव, चौथा माता-पिता का संतान के प्रति प्रेम  इसमें, पाँचवाँ प्रेमी- प्रेमिका के बीच का भाव है सभी भावों से भगवत प्राप्ति होती है। कुछ संतों  का मानना है कि यह भाव उत्तरोतर बढ़ते जाते हैं, उत्कृष्टता में। अर्थात, दूसरा भाव पहले से श्रेष्ठ है, तीसरा दूसरे से, चौथा तीसरे से और पांचवा चौथे से। इस प्रकार माधुर्य रस श्रेष्ठत्तम भाव बताया गया है। अन्य भक्त मानते हैं कि सभी भाव बराबर हैं।   
भक्ति मन से हो भाव से हो, परंतु किसकी की जाए? भक्ति सर्वशक्तिमान की ही करना उचित है। सर्वशक्तिमान की भक्ति से ही आवागमन से छुटकारा मिल सकता है। इसी से दुख निवृत्ति और सुख प्राप्ति हो सकती है। अन्य, देवताओं, पितरों, यक्षों, भूत, प्रेतों आदि की सेवा करने से फल अनित्य मिलता है। देवता ज्यादा से ज्यादा अपना लोक दे सकते हैं, उससे ज्यादा कुछ नहीं। ब्रह्मा के लोक तक सारे अनित्य  हैं; वहाँ जाकर दुबारा आवागमन के चक्कर में पड़ना पड़ता है। यह बात श्री कृष्ण ने गीता में स्पष्ट की है कि उनका भक्त उनको ही प्राप्त करता है---7 23 , 925  भक्ति निष्काम हो। अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष तक की कोई कामना की जाए। नारदजी ने बताया है कि कामना से भी भगवान में मन लगाया जाए तो भगवान की ही प्राप्ति होती है। परंतु इस पर गहनता से विचार करना आवश्यक है। इस जन्म में हमें जो भी कुछ पदार्थ, व्यक्ति, परिस्थिति आदि मिले हैं वह सब प्रारब्ध की वजह से हैं। भगवान से कुछ माँगा और हमें मिल गया तो वह प्रारब्ध की वजह से ही है। अगर नहीं मिला तो भी कारण हमारे ही पूर्व कर्म है। भगवान से माँगी गई वस्तु या परिस्थिति नहीं मिलने से भगवान में विश्वास कम होने का भय रहता है। दूसरे,  कामनाएँ कभी पूरी ही नहीं हो सकती, एक कामना पूरी होती है दूसरी आकर के उसकी जगह ले लेती हैं। कामनापूर्ति से लोभ बढ़ता है, नई-नई कामनाएँ पैदा होती हैं। काम को श्रीकृष्ण ने गीता में बहुत खानेवाला महापापी और शत्रु बताया है और अर्जुन को आज्ञा दी है कि वह इस शत्रु को मार डालें----337-43  प्रहलादजी का कहना है कि कामना के आते ही धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, श्री, तेज, स्मृति और सत्य -इन सब का नाश हो जाता है। जो मनुष्य कामनाओं को छोड़ देता है वह एक तरह से भगवान ही बन जाता है---7108,9  वैसे भी, भगवान ने कहा है कि मुझे यूं तो सारे ही भक्त प्रिय हैं। सभी को उन्होंने उदार बताया है। परंतु ज्ञानी को अपना स्वरूप ही कहा है-गीता 7 17,18। भागवत में भी कामना रहित भक्ति को ही सर्वश्रेष्ठ धर्म बताया है-.. 126 प्रहलाद जी ने समझाया है कि भगवान केवल निष्काम प्रेम भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं।---7752  
ऐसी भक्ति नित्य-निरंतर करनी चाहिए और साकार की भक्ति को अपने मत में श्रीकृष्ण ने श्रेष्ठ बताया है---गीता122 भक्ति को कृष्ण ने कहा है कि समर्पण योग से, अभ्यास योग से, कृष्ण के लिए कर्म करके, कर्म द्वारा कृष्ण की पूजा करके और कर्मफल का त्याग करके करनी चाहिए । मन-बुद्धि को भगवान में रख कर कर्म करना( गीता87), कर्म भगवान को अर्पण करके करना ( गीता330 ,510,  927,28), सब कर्मों द्वारा भगवान की पूजा करना (गीता1846   भागवत71012)--- इन सबसे मनुष्य कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है अर्थात आवागमन के चक्र से छूट जाता है और भगवान की प्राप्ति कर लेता   है  
भक्ति में एक अन्य शर्त यह भी है कि अनन्यता हो। दूसरा और कोई नहीं हो। आश्रय केवल भक्ति का ही हो। ज्ञान और कर्म की सहायता भी नहीं ली जाए। यह दोनों अनुगत रह सकते हैं। भक्ति अव्यभिचारिणी हो। इष्ट केवल एक ही हो ----गीता1426 तथा  717 । प्रहलादजी ने मानव शरीर में जीव का सबसे बड़ा स्वार्थ भगवान की अनन्य भक्ति प्राप्त करने  को बताया है---7755 । भगवान कपिल ने अपनी माता देवहूति को भक्ति तत्व समझाते हुए कहा है कि भगवान के अलावा अन्य का आश्रय लेने से मृत्यु रूपी महाभय  से छुटकारा नहीं हो सकता ---32544


क्रमशः ------
भागवत : सत् संधान- 4  

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