अवतार : भाग 9


राम, बलराम और कृष्ण के विषय में विस्तार से चर्चा नहीं की जा रही है. यह बहुत ही लोकप्रिय अवतार हैं और इनके बारे में जन जन जानता है.

 राम जी के संबंध में हम सब जानते हैं कि वहअज के पुत्र दशरथ के पुत्र थे  .  बचपन में ही मरीची आदि राक्षसों का वध किया,  सीता के स्वयंवर में बहुत ही आसानी से शिवजी के धनुष पर डोरी चढ़ाई, सीता से विवाह किया, अपने पिता  के  वचन की रक्षा के लिए सीता और भ्राता लक्ष्मण के साथ 14 साल का वनवास काटा जहां खर दूषण आदि राक्षसों का वध किया, बाली को मारकर सुग्रीव  को राज दिलाया, सीता को हरण करने के कारण रावण का वध किया और उसके स्थान पर लंका का राजा विभीषण को बनाया, अहिल्या को तारा, राम सेतु बनाया समुद्र के ऊपर .  और इनकी लीला का सबसे बड़ी उपलब्धि रामराज्य है जहां पर दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों ही ताप नहीं थे . इन्होंने 11000 वर्षों तक  राज्य किया  अयोध्या पर. यह मर्यादा पुरुषोत्तम नाम से जाने जाते हैं और इनके चरित्र में हिंदू संस्कृति की पूर्ण प्रतिष्ठा मानी गई है . यह हिंदुओं के आदर्श हैं. 
 आप यह पहले से ही जानते हैं कि कृष्ण ने पैदा होते ही अपनी शक्ति से जेल के ताले खोल दिए ,तोड़ दिए.6 दिन की आयु में पूतना का वध कर दिया. 3 माह में शकट का भंजन किया. 1 वर्ष की आयु में तृणावर्त  को मारा. 3 वर्ष 2 माह की आयु में दामोदर लीला की और दो  अशोक के वृक्षों को गिराकर यक्षों का उद्धार किया. 7 वर्ष की आयु में गोवर्धन उठाया. बचपन में ही माखन चोरी, चीरहरण, रासलीलाआदि लीलाएं की और 11 वर्ष की आयु में मथुरा चले गए ,कंस का वध किया. 125 वर्ष की आयु के बाद शरीर समेत अपने लोक  चले गए . 89 साल की उम्र में महाभारत में भाग लिया और अर्जुन को गीता सुनाई.अभी 5000 वर्ष पहले जो कृष्ण का अवतार हुआ था स्वयं भगवान प्रकट हुए थे. श्री कृष्ण स्वयं अवतारी  है.श्री कृष्ण स्वयं भगवान है. और बलराम इनके पूर्ण अंश अवतार हैं….1/3/23  यह नारायण के अवतार  नहीं है. ( “ रस पी ’’लेख में कृष्ण के संबंध में थोड़ी सी चर्चा  और की जाएगी l)  बाकी हर द्वापर युग में जो कृष्ण बलराम का अवतार होता है, स्वयं भगवान नहीं होते  बल्कि नारायण   के अवतार होते हैं जोकि पुरुष का तृतीय  प्राकट्य है और समस्त अवतारों का स्त्रोत हैं. यह क्ष्रीरोदकशायी विष्णु भी कहलाते हैंऔर श्वेत द्वीप में रहते हैं...1. 3.5. उद्धव को श्री कृष्ण ने इन्हें  अपना रूप बताया है --11 /15 /18 l
आइए हम अवतार तत्व के संबंध में चर्चा करें.ऊपर बताया जा चुका है कि अवतार का अर्थ है ऊंचे स्थान से नीचे की ओर उतरना अर्थात अवतरण. ऊंची स्थिति पर पहुंचना नीचे की स्थिति से अवतार नहीं है. अवतार केवल मृत्यु लोक में ही नहीं होते स्वर्ग लोक में भी होते हैं. अवतार केवल मानव योनि में नहीं बल्कि समस्त योनियों में होते हैं… 12.7.14. और भगवान जिस योनि में अवतार लेते हैं प्रायः उसी योनि की मर्यादा को भी निभाते हैं. ऐसा श्री कृष्ण ने महाभारत के पश्चात जब वे द्वारिका लौट रहे थे तब उतंग ऋषि को समझाया था.अवतार लेने का कारण बुद्धि से नहीं जाना जा सकता, ऋषभदेव जी भागवत में हमें समझाते हैं...5.5.20. भगवान के अलावा कारण जगत में निवास करने वाले महापुरुष भी अवतार ले सकते हैं. जो भगवान का धाम है, माया से परे है ,वहां से भी भगवान का और भगवत स्वरुप कारक पुरुषों का अवतार होता है.

सब कुछ श्री कृष्ण है, कृष्ण के अलावा कुछ भी नहीं है. यह कृष्ण जो वासुदेव के पुत्र हैं और जिन्हें नंदबाबा और यशोदा मैया ने पाला था ही सब कुछ है, यह समस्त शक्तियों के मालिक हे.सारी शक्तियां सारे ऐश्वर्य सारा यश सारा सौंदर्य सारा ज्ञान और सारा  वैराग्य उनके ही पास है, यही इनके मालिक है. इनके एक छोटे से  अंश से ही निराकार ब्रह्म का अस्तित्व माना गया है, इनका ही एक अंश परमात्मा का रूप है. कारणोदकशायी  विष्णु के एक-एक   रोम  कूपसे असंख्य  ब्रहंमांड उत्पन्न होते हैं .यह प्रथम पुरुष कहलाते हैं. हर एक  ब्रह्मांड में  द्वितीय पुरुष,  गर्भोदकशायी  विष्णु,जो की प्रथम पुरुष का विस्तार है, की नाभि से ब्रह्मा प्रकट होते हैं.यह  विष्णु उस  पूरे ब्रम्हांड के स्वामी है. इन विष्णु से क्षीरोदकशाही  विष्णु का विस्तार होता है, जो सभी भौतिक पदार्थों , जैव या अजैव, के परमात्मा है . यह हमारे ब्रह्मांड के समस्त अवतारों का स्त्रोत है.यह इस ब्रम्हांड के पालनकर्ता भी है.यह तृतीय पुरुष जाने जाते हैं.
 जब स्वयं भगवान अवतार लेते हैं तो उस प्राकट्य को  विम्ब अवतार कहते हैं. मुख्य विम्ब  अवतार साक्षात अवतार है और गौण विम्बवातार शक्ति-आवेश अवतार है.विद्वानों के मत के अनुसार शक्ति अवतार भी दो प्रकार के होते हैं. एक शक्ति आवेश अवतार होता है और दूसरा स्वरूप आवेश अवतार.पहले में केवल आवेश काल के समय ही शक्ति का विकास होता है और दूसरे ,स्वरूप आवेश, में भगवान की आप्राकृत विग्रह समेत किसी चेतन शरीर में प्रविष्टि होती है.विद्वानों के अनुसार हमारे जगत में भगवान की 16 कलाओं से ही काम चल जाता है इसलिए 16 कला से ज्यादा कला युक्त अवतार नहीं होते. इसलिए भगवान को षोडश कला का स्वामी कहते हैं. वैसे भगवान की शक्ति अनंत है.भगवान और भगवान की शक्ति अभिन्न है. जब भगवान का अवतार होता है तब साथ में शक्ति का अवतार भी होता है.जब किसी अवतार में कला के 16 वें  हिस्से की शक्ति विकसित होती है तब उस अवतार को भगवान का अंश अवतार कहते हैं. इससे भी कम शक्तियां अगर विकसित हैं तो विभूति अवतार कहलाता है.
 ऊपर बताया जा चुका है अभी जो 5000 वर्ष पहले श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था, इस श्वेत वाराह में कल्प  में , 7 वे मन्वंतर के 28वें द्वापर में, वह स्वयं भगवान का अवतार था. कृष्ण अवतारी हैं. स्वयं भगवान हैं. भगवान जब अवतार लेते हैं तो चतुर्व्यूह में  आते हैं. ओंकार   ’’ ‘’  के  ‘’’’ से संकर्षण या बलराम जो कि जागृत अवस्था की  शक्ति   हैं अवतार लेते हैं; ओकार के ‘’ ‘’ से प्रद्युमन जो कि सुप्तावस्था की शक्ति है अवतार लेते हैं; ‘’ ‘’ से अनुरुध जो कि सुषुप्ति अवस्था की शक्ति है अवतार लेते हैं ; और अर्ध  मात्रा से वासुदेव श्री कृष्ण, जो कि समस्त ओंकार’’ ‘’ को अभिव्यक्त करते हैं और तुरीय अवस्था की शक्ति है ,अवतार लेते हैं.जागृत अवस्था स्थूल जगत है, स्वप्नावस्था यानी  सूक्ष्म जगत,सुषुप्ति का मतलब प्रलय अवस्था या कारण तत्व में लीन जगत, चौथी अवस्था विशुद्ध ब्रह्म  की है और तुरिय  कहलाती है. इस प्रकार समग्र परमेश्वर के चार  अंश अथवा चार  रूप बताए गए है. यह चारों एक ही है,एक ही वासुदेव के विस्तार, परंतु लीला के लिए रूप अलग-अलग हैं.भगवान तो एक और अखंड ही  है, उनके संपूर्ण स्वरूप का बोध कराने के लिए ही  चार रूप बताए गए हैं….6/.16./18,19. भक्ति वेदांत ट्रस्ट ने अपनी पुस्तक श्री भागवतम के पृष्ठ संख्या 580 पर अवतार के रहस्य का विश्लेषण किया है.  “ वासुदेव जो नारायण का अंश है अपने आपको प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षण रूप में विस्तारित करते हैं. संकर्षण से नारायण का दूसरा विस्तार होता है और इस नारायण से वासुदेव ,प्रद्युम्न, संकर्षण और अनिरुद्ध का विस्तार होता है. संकर्षण तीन पुरुषों के इस समूह के आदि कारण है. इनके नाम है कारणोदकशायी विष्णु ,गरभोदकशायी विष्णु तथा क्षीरोदकशायी  विष्णु.’’ यह तीसरे विष्णु,आगे समझाते हुए प्रभुपाद जी बताते हैं, प्रत्येक ब्रह्मांड में स्वेत दीप नामक विशेष लोक में अवस्थित हैं.जिसकी पुष्टि ब्रह्मसंहिता में मिलती है. हमारे ब्रह्मांड में भी यह है .हमारे ब्रह्माण्ड  के सारे अवतार उन विष्णु से उदभूत   हैं जो कि हमारे ब्रह्मांड में श्वेत दीप में क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में अवस्थित है.   ऐसा ही  चतुरव्यूह   राम अवतार में भी आता है.लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और श्रीराम.राम अवतार  प्रत्येक  त्रेता युग में होता है, कृष्ण अवतार  हर द्वापर युग में.यह युग अवतार हैं, यह भगवान के अंश अवतार हैं. यह स्वयं भगवान नहीं होते. इन दोनों अवतारों में मार्कंडेय पुराण के अध्याय 47  के अनुसार एक करोड़ 81 लाख 44,000 वर्षों का अंतर होता है. भगवान के हमारी तरह स्थूल शरीर ,सूक्ष्म शरीर कारणशरीर नहीं होते. भगवान इन तीनों प्रकार के मायिक  शरीरों से परे हैं. भगवान का शरीर चिन्मय होता है, दिव्य होता है, अलौकिक होता है. लौकिक द्रव्यों  से बना हुआ नहीं होता.अवतार काल में भगवान को हर कोई नहीं पहचान पाता. जो विशेष श्रद्धा रखता है   जिस पर वे  अनुकंपा करते हैं वह ही उन्हें जान सकता  हैं. जो उन्हें साधारण मनुष्य समझते हैं उनके सामने वे योग माया का पर्दा डालकर अपने आप को छिपा  लेते हैं और अपना वास्तविक रूप प्रकट नहीं करते.केवल अधिकारी लोगों को ही दर्शन देते हैं. भगवान , विशेषकर राम और कृष्ण, के अवतार शरीर में कुछ विशेषताएं होती हैं. यह पांचभौतिक नहीं है, नित्य है. यह बिगड़ता नहीं है.भगवान की निज शक्ति योग माया के कारण यह मनुष्य- सा प्रतीत होता है. दर्शन करने पर जी नहीं भरता और ज्यादा और ज्यादा और ज्यादा...देखने की लालसा बढ़ती है .देखने से चित्त शुद्ध हो जाता है, चित्त प्रसन्न हो जाता है, संसार की  विस्मृति हो जाती है.सौंदर्य की तुलना किसी पुरुष  स्त्री से नही की जा सकती.
 अवतार शरीर में एक यह भी विशेषता होती है कि यह एक ही स्थान पर एक ही काल में प्रथक प्रथक लोगों को उनकी भावना के अनुसार भिन्न भिन्न रूप का दीखता   है. जैसा कि मथुरा में कंस के अखाड़े में हुआ था जब कृष्ण बलराम वहां पधारे थे. कंस ने उन्हें अपने काल के रूप में देखा, स्त्रियों ने प्रियतम, माता समान स्त्री-पुरुषों ने पुत्रवत , योद्धाओं ने वज्र शरीर जैसा देखा, योगियों ने परमात्मा, भक्तों ने भगवान--- 10.43.17.भगवान के वास्तविक रूप को वही देख सकता है जिसके पास भगवान की आंखें हो. यह आंखें भगवान अपनी कृपा करके ही देते हैं. सो भगवान को जानने के लिए भगवान सा ही  बनना अवश्यक है.
कृष्ण लीला में माखन चोरी, चीरहरण और रासलीला के संबंध में जो भ्रांतियां हैं उसे दूर करना आवश्यक प्रतीत होता है. श्री कृष्ण क्या थे इसकी चर्चा हम ऊपर थोड़ी बहुत कर चुके  हैं; क्योंकि श्रीकृष्ण अनंत हैं और स्वयं भी स्वयं  के संबंध में सब कुछ नहीं जान सकते, इसलिए हम भी उनके संबंध में थोड़ा ही जान सके हैं.गोपियां क्या थी यह भी जान लें. इनमें से सबसे प्रथम तो वह गोपियां थीं  जो गोलोक में श्री कृष्ण के साथ नित्य लीला मगन   रहती हैं, और संसार में लीला करने के उद्देश्य से श्री कृष्ण के साथ धरती पर आई थी.दूसरे प्रकार की गोपियां साधन करके सिद्ध हुई हैं. इनमें से कुछ वेद की श्रुतियां हैं जैसे सुगीता,कलकंठिका उदगीता आदि. इसके अलावा साधन सिद्ध देव कन्याएं हैं. वर प्राप्त दंडकारण्य के ऋषि लोग हैं. फिर मिथिला अयोध्या आदि की गोपियां हैं.जो स्त्री-पुरुष रामअवतार के समय राम जी पर काम भाव से आसक्त हुए ,उन्हें वरदान मिला था  कि उनकी इच्छा कृष्ण अवतार में पूरी की जाएगी  .   यह लोग भी गोपी बने. कुछ तपस्वी ऋषि हैं जिनका वर्णन पुराणों में विशेषकर पदम पुराण में आता है. उग्रतारा ऋषि ने १०० कल्पों तक साधना करके सुनंदा गोपी का पद प्राप्त किया .  सत्यतपा १० कल्प में सुभद्रा बने. हरि धामा तीन कल्प की तपस्या के बाद रंगवेणी बने. जाबालि   कल्पों  में चित्रगंधा बन पाए. एक कल्प के बाद कुशध्वज सुधीर गोप के घर में लड़की के रूप में पैदा हुए.इनके अलावा कुछ भक्तगण भी है जो साधना करके गोपी बने हैं और लीला हेतु कृष्ण के साथ धरती पर हैं. इस प्रकार सभी गोपियां उच्च कोटि की संत थी. इनकी मन बुद्धि हर समय कृष्ण में रहती थी. इनकी साधना मर्यादा में नहीं थी. गोपियों की साधना का नाम है प्रेम साधना, जिसके लिए नारद जी ने भक्ति सूत्र में कहा है कि वेद का त्याग करके असीम भगवत्प्रेम प्राप्त होता है. ऐसी साधना करके गोपियां पूर्व में ही सिद्ध हो गई थी. लीला में उनका प्रेम, ऐसी हालत में, शुद्ध प्रेम था. यह संसारी प्रेम जैसा नहीं था, इसमें वासना का जरा सा भी पुट  नहीं था.इनके निष्काम प्रेम के संबंध में कृष्ण को कहना पड़ा कि गोपियों का उनसे मिलन आत्मिक संयोग है सर्वथा निर्मल और सदा सर्वथा निर्दोष है. वह सदा गोपियों के ऋणी रहेंगे और उनका कर्ज नहीं चुका सकेंगे--10.32.21-22 . सर्व समर्थ, सर्व शक्तिमान स्वयं भगवान ही यदि किसी का कर्ज नहीं चुका सके और उऋण नहीं हो सके तो ऐसे लोगों को क्या कहोगे? है आपके पास कोई शब्द गोपियों के प्रेम की प्रशंसा करने के?
 माखन चोरी : वर्णन आता है कि गोपियों के स्वयं  के हृदय  में था कि श्याम सुंदर  उनका माखन खाएं. कानून में चोरी उसे कहते हैं जब कोई किसी संपत्ति को मालिक की सहमती के बिना बेईमानी के आशय से लेने के लिए  सरकाता  है यानी कि ले जाता है. और उसे अपना बना लेता है. उसका मालिक बन जाता है. अब गूढ़  बात यही है कि सब कुछ श्रीकृष्ण ही है. माखन भी श्री कृष्ण. गोपी भी श्री कृष्ण.माखन ले जाने वाले  श्री कृष्ण . माखन देने वाले भी श्री कृष्ण . जब गोपियों की इच्छा थी कि श्री कृष्ण उनका माखन खाएं. इच्छा पूरी करते हुए श्री कृष्ण ने माखन खाया. यह ना तो इस दुनिया के कानून के अनुसार चोरी है. ना ही आध्यात्म कानून के अनुसार. लिहाजा माखन चोरी को कृष्ण को दिव्य शरीर का मान के, गोपियों को दिव्य मानकर, लीला को दिव्य मानना चाहिए. मन -बुद्धि, जो की जड़ है, से माखन चोरी का रहस्य समझ में नहीं सकता. इसके लिए कृष्ण में पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए, पुराणों में पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए. श्रद्धा से ही यह लीला समझ में सकती है.
 चीरहरण : परमात्मा सर्व अंतर्यामी हैं. वह सब कुछ जानते हैं. उनसे कोई भी वस्तु पर्दे में  छुपी हुई नहीं है. शुद्ध प्रेम के आड़े लाज/ शर्म रही थी, जिसे दूर करना भक्त के हित के लिए भगवान का कर्तव्य था. यही कर्तव्य निभाते हुए लज्जा का आखरी आवरण भगवान ने हटाया. प्रेमी-प्रेमिका के मध्य में यदि पुष्प भी हो तो भी वह बाधा और रुकावट हीं है ,दोनों के पूर्ण  मिलन में।  फूल भी दरमियां हो तो फासले हुए’’. कृष्ण  ने  अवतार ले के चीर हरण लीला कर के  हमें बताया है कि  आत्मा और परमात्म एक ही है. बीच में कोई आवरण नहीं है. वैसे भौतिक दृष्टि से भी देख ले. ११   वर्ष की आयु में कृष्ण मथुरा चले गए थे. जो कृत्य था वह  भौतिक दृष्टि से एक बालक का  कृत्य था.
रासलीला : इसमें तो कुछ ज्यादा समझने की बात ही नहीं है. यह आत्मा और परमात्मा का खेल है. शुकदेव जी ने ही सब कुछ साफ कर दिया है. जैसे बालक अपने बिम्ब  से खेलता है ऐसे ही श्री कृष्ण गोपियों से खेले---- अर्थात ज्ञान की दृष्टि से आप ही से आप का खेल. बहुत लंबी साधना करने के पश्चात, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, गोपी शरीर प्राप्त हुआ था. भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए भगवान ने गोपियों के साथ रास किया.रासलीला के संबंध में उद्धवजी ने कहा है कि जो आनंद गोपियों ने पाया कृष्ण अंग संग करके ,वैसा सुख भगवान के वक्षः  स्थल में रहने वाली लक्ष्मी जी को और सुर सुंदरियों को भी कभी नहीं मिला ----10.47.60.
जो बार- बार भगवान का चिंतन करता है ,भगवान उस जीव पर कृपा करते हैं और जब कृपा हो जाती है तब जीव  लौकिक व्यवहार वैदिक कर्मों से  छुट्टी पा जाता है. यह नारदजी ने समझाया है --4/29/46.जिसे पूरा सागर मिल गया वह लोटा भर पानी क्यों चाहेगा?अर्थात जिसे समस्त वेदों-शास्त्रों की  जानकारी है, उसका वेदों से क्या प्रयोजन ?कुछ भी नहीं---गीता 2 /46. भगवत-प्राप्त थी गोपियाँ . उनका वेद-मर्यादा से क्या प्रयोजन ? कुछ भी नहीं.       
स्मरण रहे कि कृष्ण की उपरोक्त तीनों लीलाएं ही अनुकरणीय नहीं है, और इसी प्रकार दावानल का पान करना भी अनुकरणीय नहीं है. हां यदि कोई आग  का पान करने में समर्थ हो तो वह बाकी की लीलाओं की भी सोचे ! साधारण मानव यह  नहीं सोच सकता
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