पापविमोचन


पापविमोचन       Redemption/ Forgiveness of Sins
वैसे मनुष्य को कोई पाप करना ही नहीं चाहिए.पाप क्या है अधर्म क्या है इसमें शास्त्र को प्रमाण मानना चाहिए-- गीता16.24 .शास्त्रविहित कर्म करनें चाहिएं ,और शास्त्रनिषिद्ध कर्मों से दूर रहना चाहिए.ना करने योग्य कर्म नहीं करने पर ज्यादा जोर देना चाहिए, अच्छा कर्म करने से भी ज्यादा. फिर भी यदि कोई पाप हो जाए तो उसका विमोचन भी बताया गया है. पुराणों के अनुसार पापों का विमोचन तप,योग, ज्ञान या  भक्ति द्वारा करना चाहिए।
 तप  में  हर प्रकार की तपस्या और व्रत रहते हैं. इनमें व्रत मुख्य हैं. सबसे मान्य  और लोकप्रिय कृच्छ-चंद्रायण महासंतापण  हैं .चंद्रायण व्रत चंद्रमा की कृष्ण पक्ष की प्रथमा से आरंभ होता है; इस दिन रोटी का एक ग्रास ग्रहण किया जाता है, हर दिन एक एक ग्रास बढ़ाया जाता है हर तिथि को;चतुर्थी को इस प्रकार 15 ग्राम भोजन हो जाता है. अमावस्या को पूर्ण व्रत रखा जाता है. फिर शुक्ल पक्ष की एकम को एक ग्रास खाया जाता है, एक एक ग्रास   हर तिथि को बढाया जाता है;पूर्णिमा को15 ग्रास से  व्रत समाप्त होता है.एक माह में 240 ग्रास ही खाए जाते हैं. या दूसरी विधि:पूर्णिमा के दिन आरंभ होता है व्रत.इस दिन 15 ग्रास  खाए जाते हैं. हर तिथि को एक-एक ग्रास घटाया जाता है,चतुर्दशी को एक ही ग्रास रह जाता है. अमावस्या को पूर्ण व्रत रखा जाता है. फिर प्रतिपदा से शुक्ल पक्ष की से एक ग्रास लिया जाता है और हर तिथि  को , एक-एक ग्रास बढ़ाया जाता है और पूर्णिमा के दिन 15 ग्रास  लिए जाते हैं. इसमें भी पूरे माह में 240 ग्रास ही खाए जाते हैं. व्रत के दौरान स्वाध्याय ,भूमि शयन ,हवन आदि किए जाते  हैं.ग्रास का माप  कहीं  मुर्गी के अंडे जितना, और कहीं  पर मोर  के अंडे जितना बताया गया है,और कहीं-कहीं पर आमला के बराबर.शास्त्रों में शब्दपिंड’’  आया है इसका मतलब गोला या  ग्रास  होता है. साधारणताः  ग्रास ही माना गया है. महासंतापण  में पहले दिन केवल दूध पर रहा  जाता है, दूसरे दिन दही, तीसरे दिन घी , चौथे दिन गौमूत्र और पांचवें दिन गाय का गोबर.छठे दिन घास मिश्रित पानी पिया जाता है. ऐसे ही अन्य व्रत है जिनमें भरपेट भोजन नहीं खाया जाता भूखा रहा जाता है.अन्य धर्मों में भी व्रत/ फास्टिंगfasting द्वारा  पापों के शमन की रिवाज थीl ओल्ड टेस्टामेंट में डेविड द्वारा व्रत रखा गया मामूली कपड़े  पहनकर जब उसका बेटा बीमार पड़ गया था. ईसा मसीह भी जब एक बार किसी का भूत निकाल रहे थे तब उन्होंने कहा इस प्रकार का भूत  व्रत के द्वारा ही बाहर निकाला जा सकता है. परंतु इसाई धर्म के अनुसार ईसा  मसीही आने के पश्चात समस्त पाप हरदम के लिए क्षमा  कर दिए गए हैं समस्त प्राणियों के---John /जॉन 1.29.वे हमारे लिए सूली पर चढ़े.समस्त मानव-जाति के पाप माफ़ हो गए हैं ,यदि हम विश्वास करें कि वे हमारे मसीहा हैं .
 योगी के लिए कृष्ण ने कहा है कि उसे ऊपर बताए गए व्रत नहीं करनी चाहिए. यदि कोई पाप हो जाए तो उसे  योग द्वारा ही समाप्त करना चाहिए--- 11.20.25. यहां भगवान का योग से तात्पर्य, अपने को भगवान से जोड़ना  , भक्ति योग और ज्ञान योग दोनों का ही है.इसका अर्थ है कि प्रणायाम करना चाहिए और पतित पावन भगवान का भक्ति पूर्वक ध्यान करना चाहिए. भगवान से अपनी अभिन्नता  तथा योग मानना चाहिए. भूखा मरने की या शरीर को अन्य प्रकार का कष्ट देने की आवश्यकता नहीं.

 ज्ञानी पापों का विमोचन उन्हें ज्ञान की अग्नि में जलाकर करता है. जब यह ज्ञान हो जाता हैमैं यह शरीर नहीं हूं,मैं शरीर में रहने वाला आत्मा हूं, मेरे सिवाय संसार में और कोई तत्व  नहीं है,’’ तब पाप का अस्तित्व अपने आप ही समाप्त हो जाता है, जैसे स्वप्न  का अस्तित्व नींद से जागने पर. एक आदमी था वह अपनी पत्नी के पास सो रहा था. सपने में  उसने देखा कि उसे 7 वर्ष की कैद हो गई है. वह बहुत दुखी हुआ. 3 साल की कैद उसने काट दी. और इतने में ही वह जाग गया, उसका स्वप्न समाप्त हो गया.सपने का सारा साम्राज्य समाप्त हो गया. अब  4 वर्ष की और कैद  उसे नहीं भोगनी है. वर्ष की क़ैद मिथ्या/स्वप्न  ही तो थी. वह माया से पर हो गया. इस तरह ज्ञान  से पापों से मुक्ति तो  मिलती हीं  है, बल्कि  पूर्णतः  मुक्ति मिल जाती है आवागमन से. ऐसे ज्ञानी  के लिए व्रत की कोई आवश्यकता नहीं, कोई तप  भी उसके लिए नहीं.

भक्त पापों का नाश करता है भगवान की भक्ति से. भगवान के  नाम जप से. भगवान की लीलाओं के कीर्तन से, भगवान की लीलाओं के श्रवण  से, इनके सुमिरण से. उसे ऊपर बताए गए रास्तों से क्या सरोकार?भक्त भगवान की शरण  ग्रहण करता है. और अपने सारे  कर्मों,  को भगवान के अर्पण कर देता है. ऐसा करने से भक्त को उसके कर्मों का फल नहीं मिलता वह अक्षय हो जाता है --गीता9.27,28.,भागवत 1/5/32,3/9/13. यह तो इस जन्म में किए जाने वाले क्रियमाण कर्मों का समाप्त होना हुआ. पिछले अनंत जन्मों के संचित कर्मों का क्या करें? जब वर्तमान कर्मों को भगवान के अर्पण कर सकते हैं तो संचित कर्मों को क्यों नहीं? दीन-हीन होकर भगवान से प्रार्थना करें  : “ प्रभु मैं अपने समस्त पिछले जन्मों के संचित कर्मों को आपके अर्पण करता हूं इनका कोई फल, अच्छा या बुरा, नहीं चाहता.’’ मेरी विनम्र समझ में जब इस जन्मों के कर्मों को भगवान फलहीन बना सकते हैं तो पिछले जन्मों के कर्मों को क्यों नहीं उन्होनें हमें पापों से माफ़ करने की बात भी की है ..गीता 18.66 .यहां हम ईसाई भाइयों से भी कुछ सीख सकते हैं.   वे  दो बहुत ही जबरदस्त बातें मानते हैं. प्रथम, एडमAdam और ईवEve ने  सेब खाकर प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन किया, शैतान  Satan के बहकाने पर  , इसलिए समस्त मनुष्य जाति का ईडन /eden  ( भगवत धाम) से पतन हो गया ---जनिसिस Genisis 3.14-24 ;  द्वितीय, ईसा मसीह सूली पर चढ़ गए और उन्होंने हमारे सारे पाप अपने ऊपर ले लिए. अब हमारे सारे पाप मिट चुके हैं. हम बिल्कुल पवित्र हो चुके हैं.---1John2.2,,Hebrews10.10 .लगभग ऐसी ही बात तुलसीदास जी के राम जी ने त्रेता युग में आज से  करीब दो करोड़ वर्ष  पहले  कही है कि जों  ही जीव  ईश्वर के सम्मुख होता है ईश्वर उसके कोटि जन्मों के पाप उसी क्षण क्षमा कर देते हैं. ईसाइयों और हिंदुओं की मान्यता में कोई विशेष अंतर प्रतीत नहीं होता. ईसाइयों के सारे पाप ईसा मसीह कीबलि ’’ के पश्चात समाप्त हो चुके हैं जबकि हिंदुओं के पाप  उस क्षण समाप्त होते हैं जिस  क्षण वे  ईश्वर के सम्मुख हो जाते हैं.दोनों के लिए ही विश्वास आवश्यक है.  ईसाई को यह विश्वास कि उसके पाप ईसा  ने अपने ऊपर ले लिए हैं और वह पाप मुक्त हो चुका है. उसे केवल ईसा  को अपना बचाने वाला सेवियरsavior  मानना है. सेवियर  मानते ही सारे पापों से मुक्ति मिल जाती है.हिंदुओं को ईश्वर के सम्मुख होना होता है. सम्मुख होने का अभिप्राय है  भगवान की शरण  ग्रहण कर लेना.इसका मतलब है कि माया से जीव ने  जो संबंध जोड़ रखा है  मैं शरीर हूं ,संसार मेरा है ’’ उसे तोड़ दिया गया है. माया से संबंध टूटते  ही आत्मा अपने स्वरूप में  स्थित हो जाता है.उसे यह ज्ञान हो जाता है कि ब्रहम ही सब जगह है, ब्रहम के अलावा और कुछ नहीं है और मैं ही  ब्रह्म हूं--- यह ज्ञानियों का मत है. भक्त कहते हैं कि उन्हें सब जगह भगवान ही दीखते हैं.---गीता 7.7,19,30. ऐसा होने से भक्तों के लिए मायाका झूठा संबंध टूट जाता है. इसे हम बहुत ही सरलता से ऐसे समझ सकते हैं कि  हमारे  लिए एक सर्टिफिकेट/प्रमाणपत्र रखा है, जिसे पाते ही हमारे सारे पाप समाप्त हो जाते हैं. वह सर्टिफिकेट जब तक हमारे हाथ में नहीं आता तब तक हमारे लिए उपयोगी नहीं है. हाथ में आने के बाद ही  हमारे पाप  समाप्त होंगे .इस  प्रमाण पत्र को पाना हमारे लिए आवश्यक है. इसाई इसे ईसा  को अपना मसीहा स्वीकार करके प्राप्त कर सकते  हैं. हिंदु इसे भगवान की शरण में जाकर अर्थात भगवान के सम्मुख होकर और माया से विमुख होकर प्राप्त कर सकते हैं.जब तक ईश्वर- सम्मुखता  की स्थिति हमें प्राप्त नहीं हो जाती  हम भी अपने इस जन्मों के पिछले समस्त जन्मों के कर्मों के फल को भगवान के अर्पण कर सकते हैं, उनसे माफी मांग सकते हैं कि वह हमारे सारे पाप माफ कर दें. छोटे से बच्चे की तरह, पूर्ण विश्वास के साथ निश्छल, निष्कपट मन से  यदि हम भगवान से वार्तालाप करें और अपने पापों को माफ करने के लिए प्रार्थना करें तो हमारी प्रार्थना अवश्य स्वीकार  होगी.इसमें तो हमें कोई संशय  ही नहीं होना  चाहिए,क्योंकि हम उनकी शरण में है. प्रभु स्वयं   ने कहा है , ‘“ --- मेरी शरण में आजाओ,  मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त कर दूंगा,चिंता मत करो .’’ --- गीता18.66 तथा भागवत 11/12/14-15  .इस प्रकार प्रभु की भक्ति,भक्ति योग अर्थात प्रभु के सम्मुख होना पाप विमोचन का सबसे सरल उपाय है.
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 ऊपर  पापों को समाप्त करने के  जो जो उपाए  बताए गए हैं, उनमें से व्रत और तप  से पापों का नाश होता है, इतना तो सही है. परंतु पाप करने की प्रवृत्ति का नाश नहीं होता. प्रवृत्ति बनी रहती है और नवीन पाप के लिए प्रेरित करती रहती है,यह स्नान के पश्चात शरीर पर धूल डालना है --6/1/10.  ज्ञान योग में स्वरुप का ज्ञान होने से ज्ञानी आवागमन से ही मुक्त हो जाता है, पाप की कौन बात करें---6/1/11. भक्ति से,  पतित-पावन भगवान के सानिध्य होने के कारण  हमेशा के लिए पाप और पाप करने की इच्छा ही जाती रहती है.. आवागमन से अवकाश तो मिलता ही है, मिलेगा ही. जब मन भगवान में लगाओगे तो भगवान प्राप्त होंगे ही. भगवान प्राप्त होते ही हर कामना समाप्त हो जाएगी. और शरीर त्यागने के बाद भगवान के धाम में जाओगे. कोई कोई शरीर के रहते ही भगवान को प्राप्त कर लेते हैं, इन्हें   जीवन-मुक्त कहते हैं.इसलिए भगवान -नाम जप पापों का नाश और पाप करने की वृत्ति का नाश करने का सबसे अच्छा उपाय है…. भागवत 2/4/15    6/2./11-12.अजामिल का उदहारण है भागवत में :   अजामिल जैसे पापी ने मृत्यु के समय,पुत्र के बहाने , भगवान के नाम का उच्चारण किया ! उसे ,पहले यमदूतों से मुक्ति मिली और फिर हरिद्वार में साधना करने पर  वैकुण्ठ की भी  प्राप्ति होगई!----6/2/ 30,31, 39-44 49 .


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