वर्ण और आश्रम धर्म आर्य सभ्यता के दूसरे और तीसरे
स्तंभ थे . वर्ण व आश्रम के नियमों को सब मानते थे.चारों वर्णों अपने-अपने धर्म का पालन करते थे.वर्ण गुण और कर्मों से नहीं
होते थे , जन्म से होते थे क्योंकि जन्म पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार होता था ---छान्दोग्य उप। 5/10/7,गीता 18/18,14/14,15,18 (यह बात श्री कृष्ण ने गीता में स्पष्ट की है कि वर्ण की रचना उन्होंने कर्मों के अनुसार की हैं -- 4 /13 -14. और जन्म कर्मों पर निर्भर है l) “वर्णाश्रम धर्म वेदों में’’, भगवान कृष्ण ने उद्धव को भागवत में समझाया है, “इसलिए प्रतिपादित किया गया है कि मनुष्य अपनी वासना मूलक
प्रवृतियों को नियंत्रण में रखें और धर्म अनुसार अर्थ धर्म काम और मोक्ष की प्राप्ति कर ले . ’’ ब्राह्मण भगवान के मुख से प्रकट हुए, क्षत्रिय बाहों से,
वैश्य उरु से और
शूद्र पैरों से .इससे, बिना गंभीरता से सोच विचार किए, कुछ लोगों ने निष्कर्ष निकाल लिया कि ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ हैं और शूद्र सबसे निकृष्ट. पुराणों में ऐसी बात नहीं है. सबसे पहले तो समझ ले कि भगवान के सारे अंग एक समान ही होते हैं. अर्थात भगवान आंखों से भुजाओं का, पैरों का, हाथों का व किसी भी अंग और इंद्रिय का कार्य कर सकते हैं.यही बात भगवान के प्रत्येक अंग और इंद्रिय पर लागू होती है. दूसरे, भगवान में देह- देही का भेद नहीं होता. इस प्रकार पैर और मुख एक ही समान हुए, बराबर की पवित्रता रखने वाले. भगवान का कोई भी अंग पूर्ण भगवान है. लिहाजा इन अंगों से उत्पन्न सभी वर्ण भगवान की दृष्टि में बराबर ही है. सभी वर्णों को अपने वर्ण के अनुसार कर्मों के द्वारा उनकी पूजा करनी चाहिए अपने कर्मों के द्वारा इस प्रकार भगवान का पूजन करके भगवान को प्राप्त कर सकते हैं--गीता18 /46 . लिहाजा भगवत प्राप्ति का अधिकार भगवान ने सभी वर्णों के लिए समान बताया है . सब के कर्तव्य अलग-अलग हैं इसलिए कोई छोटा बड़ा नहीं था . ब्राह्मणों का कर्तव्य था मन का निग्रह, इंद्रियों को वश में करना,धर्म - पालन के लिए कष्ट उठाना , शास्त्र आदि का ज्ञान होना,
यज्ञ करने की जानकारी होना, वेदों का पढ़ना-पढ़ाना और वेदों में आस्तिक भाव रखना. वे अपनी आजीविका निम्न प्रकार कमा सकते थे :- १। वार्ता ,यज्ञ-अध्ययन से धन कमाना, प्रमृत
था
; २. शालीन ,बिन मांगे जो मिल जाये उससे निर्वाह करना, यह अमृत था ;३. यायावर ,मांग के काम चलना,यह मृत कहलाता था
; ४. शिल, फसल काटने के बाद खेत में अन्न के दाने बटोरना ; ५. उच्छ ,बाजार में पड़े अन्न के दाने बीनना ,यह दो ऋत कहलाते
थे
.निम्न वर्गों की सेवा ६. श्वानवृतति
थी, ब्र्हामण के लिये निषेध थी . ब्राह्मण को कर व् आर्थिक दण्ड से मुक्ति थी ,मृत्यु दण्ड की तरह ---7/11/14 . क्षत्रियों के लिए प्रथक धर्म था. उनके लिए शूरवीरता रखना, तेज , प्रजाका संचालन, युद्ध में पीठ नहीं दिखाना, दान करना और शासन करना. वैश्यों के लिए था खेती करना ,गाय की रक्षा करना व व्यापार करना. और शूद्र के हिस्से में था सब वर्णों की सेवा करना. अपने वर्ण के धर्म के पालन को ही धर्म संगत माना जाता था. पराया धर्म पाप देने वाला माना जाता था.महाभारत युद्ध से पूर्व अर्जुन का यह सोचना कि वह युद्ध
नहीं करेगा और भीख मांगकर
जीवन यापन करेगा, धर्म संगत नहीं था और पाप था . कारण अर्जुन क्षत्रिय था उसके लिए धर्म था आततायियों से युद्ध करना. भिक्षा लेना क्षत्रिय के लिए पाप था.वह गृहस्थ आश्रम में था इस कारण से भी उसके लिए भिक्षा लेना धर्म के विपरीत था. भिक्षा लेने का अधिकार सन्यासियों और ब्राह्मण को ही था. कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि अपना धर्म कम गुण वाला हो तो भी श्रेष्ठ है, इसमें मरना भी उचित है. स्वधर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता--- गीता 2 /33 ,3 /35 ,18 /47 .धर्म की गति बहुत सूक्ष्म और गोपनीय होती है और इसे
समझना कठिन है .स्वयं यमराज ने माना है कि धर्म के रहस्य को केवल 12 लोग ही जानते हैं:
ब्रह्माजी ,नारदजी, शंकर जी, सनंत कुमार, कपिल देव, स्वयंभू मनु ,प्रहलाद ,भीष्म पितामह ,बलि शुकदेवजी और स्वयं धर्मराज ---6/3/19-21 . क्या धर्म है और क्या अधर्म यह देश काल और परिस्थिति पर निर्भर करता है. प्रतिज्ञा निभाना धर्म माना जाता है . एक समय महाभारत युद्ध के दौरान युधिष्ठिर ने अर्जुन के गांडीव को धिक्कार दिया l
गांडीव धनुष को धिक्कार ने
वाले को मारने के लिए अर्जुन संकल्पबद्ध था,
युधिष्ठिर को मारने के लिए उद्धत हो गया l कृष्ण ने फटकारा
कि
अर्जुन
धर्म की गति को नहीं समझता l उन्होंने कौशिक मुनि का वृतांत सुनाया. मुनि कभी झूठ नहीं बोलते थे, सत्य ही
बोलते थे . एक बार इन्होंने डाकुओं को उन लोगों का छिपने का स्थान बता दिया जिन्हें डाकू मारना चाहते थे l छिपे हुए व्यक्तियों को डाकू ने मुनि के बताने से ढूंढ कर मार डाला . मुनि को नर्क प्राप्त हुआ हालांकि उन्होनें सत्य बोला था . भगवान ने समझाया कि किन परीस्थितियों में असत्य बोला जा सकता है ---महा.भा.कर्ण पर्व 69/39-52 l
आज के भारत में वर्णाश्रम धर्म को प्रायः लोग नहीं मानते . आधुनिक भारत में वर्ण जन्म से नहीं रह गए हैं; बल्कि कर्म, स्वभाव और कड़ी प्रतियोगिता के बाद किसी वर्ण में प्रवेश मिलता है, जिसका उस वर्ण से कोई संबंध नहीं जिस वर्ण में जन्म हुआ है.उदाहरण के तौर पर यह लेखक ब्राह्मण कुल में जन्मा और अपने स्वभाव, कर्म और मेहनत के कारण कड़ी प्रतियोगिता में उत्तीर्ण होकर लोक सेवक( जज) अर्थात शुद्र बन गया !
जीवन के चार लक्ष्य हुआ करते थे-- धर्म , अर्थ, काम और मोक्ष. अर्थ कमाने की मनाही नहीं थी, ना ही कामना पूर्ति को मना किया गया था. परंतु अर्थ और कामना पूर्ति धर्म संगत होनी आवश्यक थीं. मनु महाराज कहते हैं कि जो अर्थ और काम धर्म के विरुद्ध
हों
उन अर्थ और काम का त्याग कर देना चाहिए-- 4 /176 . इसी प्रकार श्रीमद् भागवत का कहना है कि
जब धर्म लुप्त हो जाता है तब अर्थ और काम में फंसे हुए लोग कुत्तों और बंदरों के समान वर्ण संकर हो जाते हैं…. 1 /18 /45 . ज्यादा महत्त्व आवागमन से छूटने को दिया जाता था-- अर्थात ज्ञान, कर्म या भक्ति से आवागमन से छूटना. मोक्ष जीवन का ध्येय था,इसलिए जीवन के हर पहलू से धर्म जुड़ा हुआ था . “धर्म का फल है मोक्ष ! धर्म की सार्थकता अर्थ प्राप्ति में नहीं. अर्थ केवल धर्म के लिए है. कामना पूर्ति उसका फल नहीं माना गया है. काम इंद्रियों की तृप्ति करने के लिए नहीं है. काम जीवन निर्वाह के लिए है. जीवन का फल तत्व जिज्ञासा है, स्वर्ग प्राप्ति नहीं ’’ --- 1 /2 /8 -10 .
वेदों से दर्शनशास्त्र आया .वेदों को प्रमाण मानने वाले है दर्शन को आस्तिक दर्शन के नाम से जाना जाता है . यह वैशेषिक, न्याय , सांख्य, योग पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा के नाम से प्रख्यात थे पुराने भारत में .उत्तर मीमांसा वेदांत के नाम से जाना जाता है. यह भगवान व्यास का दर्शन है ; संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के संबंध में व्याख्या की गई है. वेदों को प्रमाण नहीं मानने वाले दर्शनों को नास्तिक दर्शन कहते हैं .
पौराणिक धर्म आध्यात्म-प्रधान था. संसार से, संसार के पदार्थों, व्यक्तियों और परिस्थितियों से तथा शरीर से आसक्ति कैसे छूटे, मुख्य रुप से धर्म अब भी यही बतलाता है .विदुर जी धृतराष्ट्र को समझाते हैं: “काल के वशीभूत होकर जीव का अपने प्रियतम प्राणों से भी बात ही बात में वियोग हो
जाता है, धन जन आदि की तो बात ही क्या.l’’ अपने बड़े भाई को कहते हैं कि प्राणी की जीवित रहने की इतनी प्रबल लालसा होती है कि वह भीमसेन के टुकड़ों पर कुत्ते की तरह पल रहे हैं . मनुष्य कितना ही जीना चाहे उसे मरना ही पड़ता है . जो अपने संबंधियों को छोड़कर उनके अनजाने में अपने शरीर का त्याग करता है वही धीर कहलाता है .जो संसार को दुख रूप समझकर इससे विरक्त हो जाता है वही उत्तम पुरुष है--- ‘आप अपने कुटुंबियों से छिपकर उत्तराखंड चले जाइए’---1/13/18-27 . ऐसा समझाने पर धृतराष्ट्र ने विदुर जी की बात मान
ली, घर से निकल गए .
धर्म के मुख्य लक्षण भागवत के अनुसार सत्य, दया,अहिंसा, ब्रह्मचर्य, संतोष, त्याग निष्कपटता आदि तीस बताए गए हैं---7 /11 /8 -12 . समस्त शास्त्रों का तातपर्य है काम क्रोध लोभ मोह भय और मतसर पर विजय प्राप्त करना या इन्द्रियों व् मन को बस में करना ,यह नारदजी ने समझाया है. फिर भी कृष्ण में ध्यान नहीं लगता तो सब श्रम ही श्रम है --7/15/28 . कर्मफल,परलोक और पुनर्जन्म को सभी मानते थे. कर्मों का फल इस जन्म में या आगे के जन्मों में भोगना पड़ता है,यह कृष्ण ने भागवत और गीता दोनों में बताया है--10/24/13 ,गीता 18/12: . हमें यह जंम जो मिला है वह पिछले जन्मों के कर्मों के कारण ही है.
वर्णाश्रम धर्म महत्वपूर्ण तो था परन्तु भगवान की भक्ति के सामने तुच्छ था . शिवजी प्रचेताओं को समझाते हैं कि सौ जन्म तक वर्णाश्रम धर्म का पालन करने से ब्रह्मा का पद प्राप्त होता है, और उससे भी अधिक पुण्य होने पर मनुष्य शिवलोक को जाता है; परंतु भगवान का अनन्य भक्त तो सीधे ही एक ही जन्म में वैकुंठ को प्राप्त कर लेता है जो कि परम पद कहलाता है--- 4/24/28-29( .इस्कॉन दर्शन / फिलॉस्फी के अनुसार शिवजी का स्थान जीव से थोड़ा ऊंचा है परंतु भगवान से नीचे है अर्थात शिवजी भगवान कृष्ण या विष्णु के समकक्ष नहीं है.)भागवत के अनुसार विष्णु, ब्रह्मा और शिव भगवान के स्वांश हैं
और दिव्य हैं . विष्णु की नाभि से ब्रह्माजी उत्पन्न होते हैं और फिर ब्रह्माजी द्वारा रूद्र/ शिव की रचना की गई. यह लोग क्रमशः संसार का पालन, संसार की रचना और संसार के संहार का कार्य करते हैं . यह गुण अवतार कहलाते हैं;विष्णु सत्वगुण से, ब्रह्मा रजोगुण से और शिव तमोगुण से उत्पन्न होते हैं. वैष्णवजन हर-हरि अर्थात शिव-विष्णु में फर्क नहीं मानते . शिव को अन्य पुराणों में पूर्णब्रह्म माना है .
सदाचार पर बहुत बल दिया जाता था.भगवान नारायण नारद जी को समझाते हैं कि कोई सभी वेदों का ज्ञाता हो; परंतु सदाचारी नहीं हो तो उसे पवित्र नहीं कहा जा सकता. धर्म का स्त्रोत वेदों को माना जाता था. श्रुति और स्मृति धर्म के दो नेत्र , पुराण को उसका हृदय माना जाता था. यदि इन तीनों में किसी विषय को लेकर मतभेद होता था तो ऐसे में श्रुति के वचनों को प्रमाण माना जाता था.----देवीभागवत: स्कन्ध 11अध्ययाय 1., 2. पुराणों में वैदिक धर्म की पालना की सलाह दी गई है. जो वेदों में दिया गया है उसी को पौराणिक युग में धर्म माना जाता था. वेदोक्त वर्णाश्रम धर्म की सब पालना करते थे.(गीतानुसार वर्ण कर्म से थे, जन्म से नहीं --- गीता 4 /13 -14 .) चाहे कोई छोटा हो चाहे बड़ा हो, राजा हो या दास हो. ज़्यादा आयु होने पर राजा अपना राजपाट त्यागकर, पुत्रादि को सौंप कर, तपस्या करने चले जाते थे. और भगवान का नाम लेते हुए या ध्यान करते हुए देह का त्याग करते थे. आग्नीध्न राजा अपवाद थे. उन्होंने भोगों को चुना और वैदिक कर्म करते हुए उस लोक को गए जहां पितृगण भोगों में मस्त रहते हैं---5/2/22.ऐसा ही इंद्रिय लोलुप राजा पुरुरवा ने किया. वह उर्वशी अप्सरा में आसक्त थे ,उन्होंने यज्ञ करके गंधर्व लोक की प्राप्ति की ,इस अप्सरा को प्राप्त करने के लिए. यह अपवाद ही मानने चाहिएँ. हर राजा ऐसा नहीं करता था......(क्रमशः)
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