पौराणिक भारत 2


    पौराणिक भारत 2   कलि और परीक्षित               
        
भागवत में खगोल  और भूगोल का भी  विस्तृत वर्णन मिलता है. पर हम इस पर  विस्तार से विवेचन नहीं करेंगे. कारण हमारा मुख्य उद्देश्य भगवत प्राप्ति है .  कुछ वर्त्तमान युग और परीक्षित की चर्चा कर लें .
  भागवत के अनुसार भू मंडल में नौ वर्ष या खंड  या भाग है. इनमें से एक में अर्थात भारतवर्ष में हम जैसे मनुष्य रहते हैं. बाकी के आठ वृत्तों में , स्वर्ग से आए हुए देवतागण रहते हैं जो अपने  स्वर्ग के समय का आखिरी भाग इस भूमि पर , भारत वर्ष में बिताते हैं.यहां पर यह लोग अपने बचे हुए  पुण्य का भोग करते हैं.हमारी गणना के अनुसार इनकी आयु 10000 वर्ष की होती है. इनमें बहुत अधिक शारीरिक बल होता है-- 10,000 हाथियों जितना. शरीर  में शक्ति,  यौवन और उल्लास होता है. यह लोग बहुत लंबे समय तक  मैथुन आदि विषय भोग भोंगते हैं. जब इनकी आयु का एक  वर्ष शेष रह जाता है तब इनकी स्त्रियां गर्भ धारण करती हैं. हम कह सकते हैं कि  इनके लिए मैथुन क्रीड़ा संतान प्राप्ति के लिए नहीं बल्की आनंद  के लिए है.इनआठों  वर्षों में इस प्रकार त्रेता युग जैसा समय बना रहता है.
इलावृतवर्ष में  शंकर जी पार्वती के साथ रहते हैं, अन्य कोई पुरुष नहीं रहता, केवल पार्वती जी की सेविकाएं ही रहती हैं.यदि कोई भूल से भी गया तो स्त्री के रूप में परिवर्तित हो जाता है. शंकर जी भगवान के तामसी रूप संकर्षण की आराधना करते हैं.भद्राश्र्व  वर्ष में भद्रश्रवा  अपने मुख्य सेवकगण  के साथ भगवान  हयग्रीव की सेवा करते हैं. इनका सिर घोड़े जैसा है,इन्होंने वेदों को रसातल से लाकर ब्रह्मा जी को दिया था.  तीसरा हरिवर्ष खंड है जहां पर भगवान नरसिंह रूप में रहते हैं और प्रहलाद जी उनकी सेवा करते हैं. केतुमालवर्ष में लक्ष्मी जी भगवान के कामदेव रूप कीआराधना करती हैं. रम्यकवर्ष में मनु  जी भगवान के मत्स्य रूप की पूजा करते हैं. हिरणमय  वर्ष में  कश्यप रूप की अर्यमा पितृराज आराधना करते हैं.उत्तरकुरुवर्ष में भगवान वराह मूर्ति में विराजमान है. यहां पृथ्वी देवी इनकी भक्ति करती हैं.राम जी के रूप में भगवान हनुमान जी से  सेवित  हैं  किंपुरुष वर्ष में. भारतवर्ष में नर नारायण के रूप में भगवान अव्यक्त रूप से रहते हैं.  भारतवर्ष वह स्थान है जहां जन्म लेने के लिए देवता लोग भी तरसते रहते हैं. यह सोचते हैं कि मानव ने ना जाने क्या पुण्य किए हैं जिसके प्रताप से इन्हें इस धरती पर इस भूभाग पर जन्म मिला है-- 5 /19 /21 -27 . भागवत ने छः  द्वीपों का, लोकालोक पर्वत, सूर्य के रथ की गति, शिशु मार चक्र, भिन्न भिन्न ग्रहऔर अतल सुतलआदि  कई लोकों  का वर्णन भी आता है. हमारेलोक परलोक’’ लेख में  कुछ कुछ इनका वर्णन किया गया है. ज्यादा विस्तार में नहीं जाना है क्योंकि हमारा मुख्य उद्देश्य,जैसा बार-बार कहा गया है , आवागमन के चक्र से छूटना और भगवत्प्राप्ति है ना की भूगोल  और खगोल की पढ़ाई.
                                           
                                            
  हमारे युग, कलियुग ,का स्वामी  है तो शुद्र से भी निम्न कोटि का , परंतु राजा का भेष धर के रहता है.जब सप्त ऋषि मंडल मघा नक्षत्र में आता है तब कलि का काल आरंभ होता है.[जब चंद्रमा सूर्य और बृहस्पति  एक साथ करकट राशि में आते हैं तब कलियुग का अंत होता है यानी कि सतयुग का आरंभ] कलियुग ऐसे तो कृष्ण के समय में ही गया था परंतु उनके तेज से इसके लक्षण दबे हुए थे. श्रीकृष्ण के जाते ही लक्षण सामने आने लगे. कलि  ने अपना अत्याचार शुरु कर दिया। कलि  के काल में  सत्य, क्षमा, दया, शारीरिक बल   स्मरणशक्ती सभी क्षीण  हो जाते  है.  अच्छाई समाप्त होने लगती है और बुराई बलवान हो जाती है. धर्म का  जिसके चार पैर होते हैं केवल एक ही पाँव रह जाता है.कलि युग  4 ,32,000   वर्ष का होता है. राजा परीक्षित ने इसे बैल रुप धर कर धर्म पर अत्याचार करते हुए देखा. वह इसे मृत्युदंड देना चाहते थे; परंतु यह जानकर कि कलि युग में लाख दोष हैं परंतु एक अच्छाई भी है--  यह कि इस में  जब तक वास्तव में पाप नहीं किया जाए उसका फल नहीं मिलता  अर्थात मानसिक पाप पाप नहीं होता,’’ कलि युग का वध नहीं किया और उसे जीवित छोड़ दिया.अपने देश से बाहर निकल जाने की आज्ञा दी.   कलियुग द्वारा बहुत ज्यादा अनुनय -विनय करने पर रहने के लिए  जुआ ,मदिरा - पान पशु बलि   वेश्यावृति,  जिन  स्थानों पर होते हों  , वे जगह दे दीं . मद्य पान अर्थात  सौत्रामणि  यज्ञ,बिना विवाह किए स्त्रियों का संग और शास्त्रों के विरुद्ध पशु वध धर्म विरुद्ध कार्य है,ऐसे श्री जीव गोस्वामी जी के भी विचार  हैं.कलि  ने और ज्यादा प्रार्थना करके राजा से स्वर्ण में रहने का अधिकार भी मांग लिया.जहां स्वर्ण होता है वहां पर, महापुरुषों का कथन है कि, काम क्रोध मद  ईर्ष्या आदि भी रहते हैं.सोना या मुद्रा या धन ही समस्त बुराइयों की जड़ है. स्वर्ण की बुराई रोकने का उपाय श्री प्रभुपाद जी  की कृष्णभावनामृत iskon  की सोच में  बताया गया  हैं.  “ स्वर्ण मानक मुद्रा  असत्य पर आधारित है, क्योंकि मुद्रा सुरक्षित सोने के समकक्ष नहीं होती. इसका मूल सिद्धांत झूठा है, क्योंकि कागज़ी  मुद्रा सुरक्षित सोने से अधिक   मात्रा में जारी किया जाता है... इस  कृत्रिम मुद्रा स्फीति  से राज्य की अर्थव्यवस्था का दुरुपयोग होता है... वस्तुओं के दाम कृत्रिम रूप से बढ़  जाते हैं….   कागज की मुद्रा के स्थान पर सोने के सिक्कों का प्रयोग होना चाहिए….जब सिक्कों के रूप में वास्तविक स्वर्ण मुद्रा होगी तो असत्य, वेश्यावृति आदि को जन्म देने में सोने का प्रभाव अपने आप रुक जाएगा..’’ सरल भाषा में कहें तो सोने को छोड़कर कलि  ही भाग जाएगा.

कलियुग की पहचान क्या है? भागवत बताती है कि जिस समय झूठ -कपट,तन्द्रा- निंद्रा , शोक - मोह,  भयऔर दीनता की प्रधानता हो ,उसे तमोगुण प्रधान कलियुग समझना चाहिए.कलि के राज्य  में लोगों की दृष्टि क्षुद्र  हो जाती है.  सभी कामना पूर्ति के पीछे भागते हैं. लोग बिना धन के होते हैं लेकिन खाते बहुत ज्यादा है. स्त्रियों में दुष्टता और कुलटापन बढ़ जाता है. सारे  देश में ,गांव-गांव में लुटेरों की संख्या बढ़ जाती है. पाखंडी लोग नए-नए मत चलाकर मनमाने ढंग से वेदों का अर्थ निकालते हैं और वेदों को बदनाम करते हैं. राजा कहलाने वाले लोग जनता की कमाई हड़प लेते हैं. कर बहुत ज्यादा होते हैं. गृहस्थ लोग भीख मांगते हैं. वानप्रस्थी गांव में रहने लगते हैं.  सन्यासी धन के लोभी बन जाते हैं. औरतों काआकार छोटा हो जाता है परंतु वह बहुत बच्चे पैदा करती हैं और खाना भी ज्यादा खाती हैं . लाज छोड़ देती हैं.
लोग लंपट होते हैं. कामवासना पूरी करने के लिए ही प्रेम करते हैं, वास्तव में नहीं. शूद्र तपस्वियों का भेष बनाकर अपना पेट भरते हैं. मां बाप को बच्चे खाने को नहीं देते, उनका आदर नहीं करते. थोड़े से धन के लिए आपस में पुराने मित्र भी  बैर ले लेते हैं. जिसके पास थोड़ा बहुत धन हो उसे ही श्रेष्ठ पुरुष समझा जाता है. सदाचार की ओर कोई ध्यान नहीं देता.धन के और छल के बल पर दुष्ट लोग राजा बन जाते हैं. आयु बहुत कम होती है. शरीर में ज्यादा बल नहीं होता.सभी ओर  दुष्टों का बोलबाला रहता है.
ऐसा सब होते हुए भी कलि युग में एक बहुत बड़ा गुण है. भगवान का नाम उच्चारण करने से उत्तम से उत्तम गति प्राप्त हो जाती है. भगवान के नाम से हजारों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं एक ही क्षण में. भगवान का नाम लेने से भगवान हृदय में विराजमान हो जाते हैं. उनके हृदय में विराजमान होने से अंतःकरण की शुद्धि हो जाती है, ऐसी शुद्धि  जो कि व्रत दान तप  आदि से नहीं होती--- 12 /3 /44 -48
 इस युग के अंत में भगवान कल्कि अवतार लेंगे.संभल गांव में पैदा होंगे.सफेद घोड़े देवदत्त पर बैठकर दुष्टों का संहार करेंगे. देवापि , शांतनु के भाई और मरू जो इस समय कलाप ग्राम में गुप्त रूप से रह रहे हैं भी सामने जाएंगे और राज्य करेंगे. भगवान परशुराम और  नरनारायण भी धरती पर परोक्ष रूप से रह रहे हैं. फिर से सतयुग आएगा. धर्म मर्यादा की स्थापना होगी.

राजा परीक्षित कलियुग के प्रथम सम्राट माने जाते हैं.  यूं तो सम्राट युधिष्ठिर के समय भी कलि  युग चुका था परंतु भगवान कृष्ण के प्रभाव के कारण प्रकट रूप में नहीं था. राजा परीक्षित अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र हैं और अर्जुन के पोते.जब यह गर्भ में थे तो इन्हें मारने के लिए अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र चलाया.आर्त  होकर गर्भ की रक्षा के लिए उत्तरा ने कृष्ण को पुकारा.श्रीकृष्ण ने उत्तरा के गर्भ को अपनी माया से ढक दिया.अमोघ होते हुए भी कृष्ण के तेज के सामने अश्वत्थामा का ब्रह्मास्त्र शांत हो गया. इस बालक में पैदा होने से पहले ही गर्भ में भगवान के दर्शन कर लिए.जिस स्वरूप के बालक ने दर्शन किए वह केवल अंगूठे के बराबर था,  बहुत ही सुंदर और दिव्य था, वर्ण श्याम था. भगवान चार भुजाओं से युक्त थे .  उनके कुंडल सोने के थे तथा आंखें क्रोध से लाल थी.बालक ने  देखा और सोचने लगा यह कौन है? पैदा होने के बाद भी वह जब बिल्कुल छोटा बालक था, तब भी उसकी तलाश में था जिसने उसे मृत्यु से बचाया. बालक का नाम विष्णुरात् हुआ  क्योंकि उसकी रक्षा भगवान ने की थी. उसका नाम परीक्षित पड़ा और बालक के लिए ब्राह्मणों ने भविष्यवाणी की थी वह व्यास जी के पुत्र से आत्म ज्ञान प्राप्त करेगा , सारी भौतिक आसक्ति का परित्याग करेगा और निर्भय जीवन प्राप्त करेगा.
 परीक्षित का विवाह अपने मामा की पुत्री इरावती के साथ हुआ. यह उनकी ममेरी बहन थी. उस काल में इस प्रकार के विवाह हुआ करते थे, और सगे भाई-बहनों के बच्चों में भी आपस में वैवाहिक  अनुमति  होती थी. शर्त यह थी कि उनका गोत्र एक ना हो. उन्हें भी ऐसा ही विवाह किया. श्रीकृष्ण ने भी अपनी बुआ की लड़की से विवाह किया.जनमजय  परीक्षित का विख्यात पुत्र था जिसने सर्पों  का विनाश करने के लिए यज्ञ किया था क्योंकि राजा परीक्षित को तक्षक ने  डसा  था ब्राह्मण के शाप के कारण.राजा परीक्षित ने कृपा चार्य को अपना गुरु बनाया  और गंगा के तट पर तीन अश्वमेध यज्ञ किए.
यह बहुत ख्याति पूर्ण राजा थे.इनका कलि  से सामना हुआ और उन्होंने उस का दमन किया. कलि  राजा के वेश में घायल बैल को सता रहा था.  यह घटना तब की है जब  पुरजांगल देश में सम्राट के रूप में निवास कर रहे थे, उन्हें पता चला कि मेरे देश में कलियुग में प्रवेश किया है.कुछ विवरण हम कलि  के प्रसंग मे  पहले बता  चुके हैं. उन्हें उसे मृत्युदंड नहीं दिया और रहने के लिए 5  स्थान दे दिए.

 एक बार यह शिकार खेलने गए थे. थके मांदे एक आश्रम में प्रवेश किया. वहां इनका किसी ने आदर-स्त्कार  नहीं किया.इन्होंने शमीक ऋषि ,  जो समाधि में थे,के गले में मरा हुआ सांप डाल दिया. जब ऋषि बालक,श्रृंगी, को पता चला तो उसने शाप दे दिया कि जिसने  उसके पिता के गले में सांप डाला है उसे सात  दिन के अंदर सर्प तक्षक डस  लेगा.  शमीक ऋषि को जब इन बातों को पता लगा तो उन्होंने अपने पुत्र को प्रताड़ित किया और राजा के पास संदेश भिजवा दिया  ताकि राजा अपना बचाव कर सकें. प्राण बचाने का कोई प्रयास  राजा ने नहीं किया और वैराग लेकर गंगा के तट पर बैठे थे. घूमते-घूमते वहां पर शुकदेव मुनि पहुंचे. सुखदेव मुनि ने इन्हें  श्रीमद् भागवत कथा सुनाई. इन का मन पहले से ही आसक्ति रहित था , वह अपना राज्य  जन्म जय को दे चुके थे. कथा  सुनी .

इस भागवत कथा में  मुख्यतः   भक्ति,ज्ञान,वैराग ,भगवान - जीव- माया,काल,कर्म  अवतार,सृष्टि प्रलय, मुक्ति  आदि  पर चर्चा की गई है. कथा का सार यह है कि हम यह शरीर नहीं है, यह संसार हमारे लिए नहीं है. संसार की हर वस्तु, व्यक्ति परिस्थिति अनित्य है. हमें कभी प्राप्त नहीं हो सकती. हम परमात्मा के अंश हैं. केवल परमात्मा ही हमारे हैं. जीवन का लक्ष्य हमें  प्राप्त करना है और आवागमन के चक्र से छूटना है. इस कथा से परीक्षित को आत्मज्ञान हो गया.  सर्प  आने से पहले ही यह अपने स्वरुप में स्थित हो चुके थे.  तक्षक इनका केवल शरीर ही जला पाया. व्यास पुत्र शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को लक्ष्य करके जो  भागवत कथा सुनाई  वह हम सब के लिए है.

जो राजा लोग समस्त  पृथ्वी पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं उन पर पृथ्वी हंसती है और कहती है कि यह राजा लोग एक दिन मर जाएंगे. “बड़े-बड़े मनु और मनु पुत्र मुझे  वैसी की वैसी छोड़ कर  जहां से आए थे वहां चले गए.’’’--12 /3 /1 -13 .  यह देव- दुर्लभ मानव शरीर हमें आवागमन के चक्र से छूटने के लिए भगवत प्राप्ति के लिए मिला है.यही लक्ष्य रखें. पृथ्वी बता चुकी है कि  इसके अलावा हमें कुछ नहीं मिल  सकता संसार में.

                                                    


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