पौराणिक भारत 1 :भाग च


।युग के हिसाब से साधन की भिन्नता  केवल सनातन धर्म में ही हो ,ऐसी बात नहीं है. इसाई धर्म में भी इसका वर्णन है. ईसा से पूर्व  मनुष्य जाति को एक-एक पाप माफ कराने  हेतु अलग-अलग से माफ़ी मांगनी  होती थी सर्वशक्तिमान से . ईसा  के बाद ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है. कारण ईसा मसीह ने मनुष्य मात्र के सारे पाप स्वयं  के ऊपर ले लिए हैं सूली पर चढ़ कर, अपना खून बहाकर तथा कोड़े खाकर। मनुष्य को अब पाप विमोचन की आवश्यकता नहीं। उसे केवल यह मानना है कि मेरे मसीहा  ईसा ने मेरे सारे पाप अपने ऊपर ले लिए हैं.  इसका दृढ़ विश्वास होते ही वह पापमुक्त स्थिति में पहुंच जाता है.भावनाओं के संबंध में ऋषि त्रिशंकु ने तैत्तिरीय  उपनिषद की   शिक्षावल्ली के दशम अनुवाक में अपना अनुभव बताया है .ऐसी भावना करने  से कि  साधक जीवन- मृत्यु रूप संसार -वृक्ष  का उच्छेद करने वाला है और उसका आगे जन्म नहीं होने वाला  उसे परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है .
अलग-अलग युगों  में अलग अलग धर्म क्यों?कमरे में दिया सलाई जलाइए, आसानी से जल जाएगी. अब पंखा  चलइए.अब आसानी से दियासलाई नहीं जलेगी. थोड़ा परिवर्तन हो चुका है. पहले हवा थी नहीं, अब  हवा है .  बदली हुई परिस्थिति में दियासलाई जलाने का ढंग बदलना पड़ेगा .अब दिया सलाई  जलाते समय हवा को हाथ से रोकना पड़ेगा . हम सभी जानते हैं कि गर्मी का रहन -सहन अलग, सर्दी का अलग. इसी प्रकार से अलग-अलग युगों में परिस्थितियां बदलने के कारण भागवत प्राप्ति के साधन भी बदल जाते हैं.
 कलियुग में इस प्रकार साकार और निराकार दोनों का ही नाम जप करके भक्ति की जा सकती है. श्रीकृष्ण ने साकार की भक्ति को सुगम बताया है. निराकार की पूजा के संबंध में आया है कि  यह कष्टप्रद होती है देहधारियों के लिए….  गीता 12/2,5 .
आकाशवाणी  भी हुआ करती थीं. आकाश से शब्द सुनाई देता था जो कि  भविष्य के संबंध में वाणी होती थी. नारदजी को ऐसी वाणी सुनाई दी, “मुने  खेद  मत करो, तुम्हारा यह उद्योग सफल होगा।’’ --भागवत   माहात्म्य 2/31 .  कंस को भी आकाशवाणी ने चेताया था कि देवकी का आठवां गर्भ  कंस का वध करेगा--- 10 /1/ 34 यह आकाश वाणियाँ क्रमशः कलियुग के आरंभ और द्वापर के अंत की हैं .आकाश से भगवान की वाणी का वर्णन बाइबल में भी आता है,  “ यह मेरा पुत्र है जिससे मैं बहुत प्रसन्न हूं.’’--- मैथ्यू 3 /17 ,17 / 5  यह आकाशवाणियां भी 2000 वर्ष से ज्यादा पुरानी हैं.

प्राचीन काल में सनातन धर्म में  विश्वास था कि कर्मों का फल अवश्य मिलता है हमें, चाहें इसी जन्म में चाहें  अगले जन्म में (गीता 18/12) वेद विहित कर्म  फल की इच्छा से करने पर  स्वर्ग आदि लोकों  की प्राप्ति होती है  और वेदों द्वारा निषेधित  कर्म करने पर नीच योनियों और नीच लोकों  की प्राप्ति . निष्कामता  से कर्म करने पर आवागमन के चक्र से छुटकारा मिलता है ऐसा मानना भी  था. इस कारण से पाप करते हुए लोग डरते थे. पुण्य  करने को तैयार रहते थे. और यही कारण था कि लोग दान, तप , अहिंसा, माता- पिता -अतिथि की सेवा, कुआँ  खुदवाना, बावड़ी खुदवाना आदि अच्छे काम करने को महत्व देते थे;चोरी, हिंसा, झूठ और छल-कपट आदि से   दूर रहते थे .
 कर्म क्या है इस पर विचार कर कर  लें ? हम ईश्वर के अंश हैं, पुरुष हैं , आत्मा हैं. हम स्वभाव से ही निर्लिप्त हैं.हम में  कभी परिवर्तन नहीं होता .  क्रिया और परिवर्तन शीलता प्रकृति का धर्म है. क्रिया प्रकृति और उसके कार्य शरीर में होती है,अपने आप को प्रकृति या शरीर से अलग ना मानने के कारण या यूं कहिए कि प्रकृति और उसके कार्य शरीर से तादात्म्य स्थापित करने के कारण तथा कर्मफल में आसक्ति के कारण हमारे लिए  क्रियाएं कर्म बन जाती हैं .और हम कर्मबंधन में फंस जाते हैं . आसक्ति पूर्वक किए गए कर्म बंधन के कारण हैं .  कर्म फल तीन प्रकार के हैं . इष्ट  अर्थात जो परिस्थिति मनुष्य चाहता है उसका मिलना; अनिष्ट अर्थात प्रतिकूल परिस्थिति का मिलना;  और मिश्रित जिसमें कुछ भाग इष्ट  का होता है और कुछ भाग अनिष्ट का होता है .अभी वर्तमान में जो कर्म हम कर रहे हैं उन्हें क्रियमाण कर्म कहते हैं.  हमारे द्वारा पिछले मनुष्य जन्मों में किए गए कर्म संचित कर्म   कहलाते हैं . कर्म करने का अधिकार मनुष्य योनि में है अन्य योनियां   भोग योनियां   मानी गई हैं .संचित कर्म में से जो कर्म फल देने के लिए तैयार हो गए हैं ,पक गए हैं उन्हें  प्रारब्ध कर्म कहते हैं . प्रारब्ध  कर्म में से कुछ तत्काल फल देते हैं कुछ कालांतरिक फल देते हैं . जैसे भोजन किया भोजन में मिर्च ज्यादा थी मुँह जल गया यह तत्कालिक फल है, भोजन से आयु बढ़ती है बल बढ़ता है और मनुष्य निरोगी रहता है, यह कालांतरिक  फल हैं . संचित कर्म का एक फल- अंश होता है जिससे प्रारब्ध बनता है और दूसरा संस्कार- अंश होता है जिससे स्फ़ुरणा  होती है  .यह संस्कार अंश  बहुत प्रबल होता है.  यह ही ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य और शुद्र  को उनके संस्कार देता है.  इन के कारण ही कोई जंम  से ही चोर प्रवृत्ति का पैदा होता है और कोई संत  प्रवृत्ति का .  प्रारब्ध के अनुसार  जो अच्छा फल मिलता है उसका त्याग किया जा सकता है, परंतु बुरे फल का त्याग नहीं किया जा सकता.बुरे फल को या तो भोगना पड़ता है या उसे  प्रायश्चित द्वारा टाला जा सकता है अथवा भगवान कृपा से, नाम जप आदि से  टाला जा सकता है .संत रामसुखदासजी समझाते हैं कि  इसका कारण यह है कि अच्छा फल और जो परिस्थिति प्राप्त हुई है वह किसी को सुख पहुंचाने के कर्म से मिलती है और जो प्रतिकूल परिस्थिति मिली है वह बुरा कर्म करने से या किसी को दुख पहुंचाने के कारण मिली है .  इसे  ऐसे भी समझ सकते हैं कि मैंने किसी को रुपया उधार दिया , मैं उसे भगवान के अर्पण करके कर्जे को माफ करने में सक्षम हूं; इसके  विपरीत यदि कर्जा लिया है तो मैं अपने आप इस कर्ज़े   को माफ नहीं कर सकता . शुभ कर्म यानी कि पुण्य कर्म  और अशुभ कर्म यानी कि पाप कर्म दोनों का खाता अलग अलग होता है . यह एक दूसरे को काट  नहीं सकते. पाप को पुण्य  नहीं काट सकता और पुण्य को पाप नहीं काट  सकता. दोनों का फल अलग अलग  भोगना पड़ता है . संतों का यह भी मत है कि चार पुरुषार्थों में से अर्थ और काम मुख्यतः प्रारब्ध पर निर्भर हैं और धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ पर l.अर्थात मोक्ष का सब को हक है .
  
क्या करें कि कर्म बंधनकारी ना हों? कर्मों से संबंधविच्छेद !इसके उपाय हैं कर्म भगवान कोअर्पण करना .
(10 /14 /5 )इसका अर्थ है अपना कुछ नहीं मानना --शरीर,सारे पदार्थ,संबंधी, यहां तक कि अपनेआप को भगवान का मानना . कर्म उन्हें देने से ना तो कर्म में आसक्ति रहती ना फल में . फिर कर्म बांधते नहीं . जब हम अपनेआप को उन्हें देते है तो वो भी  अपने को हमें दे देते है क्योकि कृष्ण का नियम है :  जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं ,मैं उन्हें उसी प्रकार का आश्रय देता हूँ ’’(4 /11 गीता ) . कर्मों के अर्पण की विधि गीता के इन श्लोकों में बताई गई है -- 9/27,28 ,12/6,7 ,18/57,3/30 5/10  .   कर्म करते समय या करने के बाद भगवान को अर्पण किये जा सकते हैं . श्रद्धा से नहीं तो उकताकर अर्पण करने से भी लाभ है ,ऐसा रामसुखदासजी का सोचना है . कैसी कमाल की बात है ---एक क्षण पुराने अथवा करोड़ों जन्म पुराने  कर्म(यदि वे प्रारब्ध नहीं बन चुके हैं ) हम अर्पण कर सकते हैं,चाहें जिस भाव से  .  स्मरण रहे पाप कर्म अर्पण नहीं होते . संत मतानुसार  अर्पित कर्म अक्षय हो जाते हैं  ;पाप अर्पण से अनंत मात्रा का हो जाएगा,इस कारण से पाप अर्पण नहीं करने चाहियें .l क्या करें क्या करें अर्थात क्या पाप है  क्या धर्म है  इसमें शास्त्र को प्रमाण मानें --14/27गीता l    कर्म भगवान की ख़ुशी के लिये करने से(4 /29 /49 ) कर्म भगवान के लिये ही करने से (5 /5 /10 -13) ,वे भागवत धर्म  हो जाते है ---11/29 /8 -21 तथा  वे बंधन में नहीं डालते . यह ज्ञान रखकर कर्म करें कि हम कर्त्ता नहीं ,गुण ही गुण में ,स्वभाव ही  स्वभाव में और इन्द्रिया हीं इन्द्रियों में बरत रहें हैं . प्रकृति कर्म करवा रही है  --गीता  5/14 ,3/ 5,27,28,33, 14/19 ,5/9. भगवान की पूजा समझकर कर्म करें --गीता 18/46.मन भगवान में रखें ,कर्म इन्द्रियों से करें चाहें युद्ध ही क्यों हो ;मुख्य  बात है मन भगवान में होना,गौण बात  कर्म करना --गीता8/7 . यह जानकर कर्म करें कि फल हमारे हाथ में नही है . इससे फलेच्छा कर्मासक्ति  मिट जाती है --गीता 2/47 .
  कर्मफल से आसक्ति मिटाने में ईश्वर का यह नियम भी सहायक है कि  कर्म पर तो हमारा अधिकार है परंतु   फल   पर हमारा अधिकार नहीं है(गीता2/47);  किस कर्म का क्या फल मिले या ना मिले, यह हमारे हाथ में नहीं है. कर्म में आसक्ति  हम यह जानकर मिटा सकते हैं कि कर्म और उसका फल आदि और अंत वाले होते हैं अर्थात अनित्य हैं,असत् हैं  और हम अनादि हैं, सत् है   , नित्य हैं(गीता  2/16)  l अतः हमारा सत् का  कर्म जो असत् है  से क्या नाता?  
 ऊपर बताया कुछ भी हो सके  तो उसकी शरण में चले जायें (11 /29 /34 ,11 /12 /14 -15,10 /46 /4 ) -- गीता 18/66  . वह सब पापों से मुक्ति  देगा . मानस में रामजी ने  भी ,कृष्ण की तरह ,भगवत -नियम स्पष्ट किया है कि  जैसे ही जीव उनके सम्मुख होता है वे उसके करोड़ों जन्मों के पाप समाप्त कर देते हैं .


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