गृहस्थाश्रम महत्वपूर्ण था. बाकी के तीनों आश्रम इसी पर निर्भर होते थे. यही तीनों आश्रम वालों का पालन करता था. मारकंडेय पुराण में मनु रौच्य की उत्पत्ति का प्रसंग आता है. इनके पिता रुचि ने
ना तो अग्नि
की स्थापना की थी ना अपने लिए कोई घर बनाया था. उनके पितरों ने उनसे कहा कि वह शास्त्र विहित कर्मों का त्याग न करें और विवाह करें. रुचि ने पितरों की बात मान ली और ब्रह्माजी के आदेश अनुसार अपने पितरों का पूजन किया उन्हें एक अप्सरा-कन्या पत्नी रुप में प्राप्त हुई और उसी से तेरहवें मनु रौच्य
की उत्पत्ति हुई.विवाह जंम- जंम के लिए होता था. कोई विच्छेद का नियम नहीं था. यह कभी ना टूटने वाला पवित्र संस्कार था( अब तलाक का प्रावधान है आ चुका है1955 में ). विवाह के अलावा भी अन्य संस्कार हैं जो कि
वेद, स्मृति और तंत्रों में कुल मिलाकर बयालीस
है; परंतु मुख्य सोलह है. पहला संस्कार गर्भाधान है. वेदों में बताए गए नियमों के अंतर्गत गर्भाधान किया जाता था. यह विज्ञान था जिसका वर्णन बृहदारण्यकोपनिषद के छठे अध्याय के चतुर्थ ब्राह्मण में दिया गया है. पति पत्नी से कहता था ‘देखो मैं प्राण हूं और तुम प्राण रूप मेरे आधीन वाक हो..... मैं आकाश हूं तुम पृथ्वी हो. आओ हम तुम मिले. इससे हमें पुत्र संतान की प्राप्ति हो….
भगवान विष्णु हमारी इंद्रियों को पुत्र उत्पादन में समर्थ करें .. तुम इस गर्भ को धारण करो. दोनों अश्वनी कुमार तुम्हारे साथ रहकर इस गर्भ को धारण करें.’ दूसरा संस्कार पुंसवन है. तीसरे महीने में बताया जाता है कि गर्भवती किस प्रकार का आहार लें जिससे वह और उसका गर्भ स्वस्थ रहे. तीसरा संस्कार छठे या आठवें महीने में होता है जिस में
मां और गर्भस्थ
शिशु के रक्षा के उपाय बताए जाते हैं. इसका नाम है सीमंतोन्नयन. जन्म के समय नाल काटने से पूर्व जात कर्म किया जाता है. जन्म के पश्चात पहला संस्कार नामकरण है,
बच्चे को नाम दिया जाता है. कृष्ण और बलराम का नामकरण संस्कार गर्गाचार्य ने किया था चुपचाप जिससे कंस
व अन्य को पता ना चले. बच्चे को पैदा होने के बाद प्रथम बार जब बाहर ले जाया जाता है और सूर्य तथा चंद्रमा के दर्शन कराए जाते हैं ,उस संस्कार को निष्क्रमण कहा जाता है.
इस के बाद वाला संस्कार अन्न प्राशन होता है जिसमें ठोस आहार जैसे अन्न
बालक को खिलाया जाता है. बच्चा जब एक
साल का हो जाता है तब मुंडन किया जाता है जिस में बाल काटे जाते हैं. इसके बाद विद्या आरंभ करने का संस्कार होता है जिसे किसी किसी जगह पाटी - पूजन भी कहते हैं, कोई-कोई पुस्तक पूजन कहते हैं. उसके बाद का संस्कार कानों का छेदन होता है जिसे कर्णवेध कहते हैं. गुरुकुल में पढ़ाई करने से पहले यगोपवीत संस्कार होता है जहां जनेऊ धारण कराई जाती है. इस संसकार के बाद पढ़ाई करने के लिए लड़का गुरुकुल चला जाया करता था.वहां पर पढ़ाई शुरू करने से पहले एक और संस्कार होता है जिसका नाम है वेदारंभ संस्कार. जब शिक्षा समाप्त करके लौटता है तब संस्कार, केशांत, होता है. इसके बाद घर आने पर समावर्तन यानी कि नहाना होता है. इन सब संस्कारों के पपश्चात विवाह होता है .हमें दो धाराएं मुख्य हैं
मादा धारा और
नर धारा . इन्हें स्त्री धारा और पुरुष धारा कहते हैं .इन दोनों धाराओं के बगैर संसार नहीं चल सकता.l इस कारण से विवाह का संस्कार आया . विवाह का उद्देश्य है
संतान उत्पन्न करना, पुत्र उत्पन्न करना जिससे कि पितरों को आवागमन के चक्र से विश्राम मिल सके पुत्र द्वारा किए गए श्राद्ध कर्म आदि द्वारा. कामेच्छा पूर्ति के लिए शादी नहीं की जाती . रजोदर्शन से पूर्व कन्या के विवाह का प्रावधान था जिस की अनुपालना ना करने पर पिता को प्रायश्चित करना पड़ता था.. विवाह वेद मंत्रों के साथ संपन्न किया जाता है और अग्नि की साक्षी में होता है जिसके चारों ओर सात फेरे लिए जाते हैं. पति पत्नी एक दूसरे का साथ निभाने की शपथ लेते हैं, प्रेम से जीवन व्यापन की शपथ ली
जाती है. देवी भागवत में शुकदेव जी को समझाते हुए राजा जनक कहते हैं कि
जो
मोक्ष चाहता है वह ब्राह्मण पहले यगोपवीत संस्कार कराएं, विद्या पढ़ने के लिए गुरु के यहां निवास करें, विद्या का अध्ययन पूरा हो जाने पर गुरु को दक्षिणा दे, फिर उसका समावर्तन हो, तब विवाह करके गृहस्थाश्रमी
बन जाए. गृहस्थ आश्रम में मन पर अधिकार रखें,
मन को पाप में नहीं ठहरने दे तथा सत्य बोले और सदा पवित्र रहे. उसके बाद राजा जनक के अनुसार ब्राह्मण को वानस प्रद
आश्रम में जाना चाहिए. उसके पश्चात सन्यास आश्रम धारण करें. परंतु राजा जनक कहते हैं कि यदि संसार से वैराग्य नहीं हुआ हो तो वह कदापि सन्यासी ना बने. इस प्रकार उस काल में सन्यासी बनने का हक उसी को था जिसका संसार से मन हट गया था, विषय भोगी को सन्यासी बनने का अधिकार नहीं था
.
और मृत्यु के पश्चात अंतेष्टि. ध्यान देने योग्य बात यह है कि स्त्रियों के केवल विवाह और अंत्येष्टि दो ही संस्कार थे.अंतेष्टि के कर्मकांड में भी वेद मंत्रों का महत्व है.
अंतेष्टि के बाद भी और कुछ होता है जो वेदों में निहित किया है. यह है श्राद्ध। श्राद्ध पितरो का किया जाता है. . पितरों से हमारा
अभिप्राय हमारे
माता-पिता दादा- दादी नाना-नानी आदि से है.यूं तो ब्रम्हाजी सबके आदि
पितर हैं.
पितृ लोक में दो प्रकार के
पितर होते हैं, एक पितृलोक के अधिकारी होते हैं जिन्हें दिव्य पितर कहते हैं, दूसरे वे
मनुष्य होते हैं जो मरने के बाद पितृ लोक में जाते हैं. इन लोगों का श्राद्धादि में वेद मंत्रों द्वारा आह्वान किया जाता है. वास्तव में देखा जाए तो श्राद्ध में पिंड और जलांजलि अपने जन्मदाता पितरों को ही नहीं बल्कि विश्व के प्राणी मात्र को दी जाती है. सवाल किया जा सकता है कि धरती पर
किया गया पिंडदान, श्राद्ध , तर्पण आदि दूसरे लोकों
में पितरों को कैसे प्राप्त होता है और उनकी तृप्ती कैसे होती है? इसका उत्तर देते हुए गीता प्रेस गोरखपुर के पूर्व
संपादक श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार ने समझाया है कि तृप्ति दो प्रकार की होती है शारीरिक और मानसिक.भूखे को भोजन देना शारीरिक तृप्ति है. डरे हुए को अभय दान देना मानसिक तृप्ति है. श्राद्ध से दोनों ही प्रकार की
तृप्ति होती है. हमारे पितर या तो पितृ
लोक में है, देवलोक में है, अन्य ऊंचे लोगों में है, नर्क में है, या इसी धरती पर मनुष्य योनि अथवा अंय किसी योनि में है. या फिर उनकी मुक्ति
हो गई है. श्राद्ध में इन्हें दिया गया भोजन इनके पास कैसे पहुंचता है? इसका उत्तर भी श्री पोद्दार जी देते हैं. जैसे हमारे भेजे हुए रुपए ‘फॉरेन एक्सचेंज’ में नियम के तहत बदलकर डॉलर,पौण्ड आदि बन जाते हैं, इस इसी प्रकार भागवती शक्ति द्वारा हमारा भोजन भी परिवर्तित होकर
जिस हाल में हमारे पूर्वज है उनके पास पहुंच जाता है.
पितृलोक में यह कार्य
वहां के नियामक देवता करते हैं. और हमारे पितर जिस भी लोक
में हैं
उनके पास हमारे द्वारा दी गई वस्तु उस लोक के भोग योग्य वस्तु के
रूप में परिवर्तित करके पहुंचा देते हैं.जरा सोचिए भगवान की कृपा. हमारे दिए गए पकवान
घास और पत्ते बन सकते हैं यदि हमारे पूर्वज हिरण है. यह सोमरस भी बन जाते हैं यदि पूर्वज देवताओं के लोक में हैं और केवल सोम पान ही करते हैं.
यदि वह लोग मुक्त हो गए हैं तो हमारी वस्तु वापस हमारे पास ही किसी ना किसी रूप में लौटा दी जाती है जैसे कि भेजने वाले का पता ना मिलने पर हमारे द्वारा भेजा गया पत्र हमारे पास ही लौट कर आ जाता है. श्राद्ध तर्पण आदि से हमारे पूर्वजों को
तृप्ति और बल मिलता है, वह चाहे जहां भी हों . लिहाजा श्राद्ध तर्पण आदि वैज्ञानिक हैं. यह जरूर करें. जीते जी मां- बाप, दादा- दादी, नाना -नानी की सेवा तो करें ही उनके मृत्यु के पश्चात श्राद्ध भी आवश्यक है.
उस काल में छोटे अपने से बड़ों की सेवा करते थे और उन्हें आदर की दृष्टि से देखते थे. माता पिता पृथ्वी और प्रजापति की मूर्ति समझे जाते थे. आचार्य को ब्रह्मा माना जाता था.माता पिता की सेवा करने वाला तीनों लोकों पर विजय पाता था, ऐसी मान्यता थी ---मनु स्मृति 2 /225 -232 .माता- पिता ,अतिथि और आचार्य को देवता समान माना जाता था---तैत्तिरीय उप 1/11/2 l रामायण के अयोध्या कांड से स्पष्ट है कि राम जी अपने माताओं के और गुरुके चरणों का स्पर्श किया करते थे--- 9/9-11 . देवता भी भारतवर्ष में जन्म लेने को तरसते थे और यहां जन्म लेने वालों को अपने से भी ज्यादा भाग्यशाली समझते थे-- 2 /3 /24 .
.
स्त्रियों को भगवती के कला के अंश का अंश माना जाता था . पूर्व में गार्गी वह अन्य
विदुषियाँ हुई है,परंतु सामान्य तौर पर औरतों को वेद पढ़ने की इज़ाजत नहीं थी. वेदों के अध्ययन के मामले में स्त्रियों की,पतित द्विज और नीचे वर्ण के समस्त प्राणियों की हालत एक जैसी
ही थी. ऐसे लोगों के भले के लिए ही वेदव्यास जी ने महाभारत की रचना करके वेदों के अर्थ को खोल दिया जिससे की स्त्रियां ,पतित द्विज और शूद्र जाति के मनुष्य भी अपने अपने धर्म- कर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकें---भागवत1/4/29.स्त्रियों की पवित्रता पर विशेष ध्यान दिया जाता था ताकि वर्णसंकर पैदा ना हो. आर्य संस्कृति का यह सबसे बड़ा स्तंभ था, स्त्रियों के सतीत्व और पवित्रता पर
ही वर्णाश्रम धर्म टिका हुआ था . इससे कोई यह ना समझे कि स्त्रियों को दबा कर रखा जाता था . उन्हें देवियों जैसा स्थान दिया गया है . परंतु स्त्री पुरुष में प्राकर्तिक भेद होने के कारण स्त्री की पवित्रता पर अधिक ध्यान दिया गया है, आर्य सभ्यता में . स्त्री केअपवित्र होने से
और परपुरुष
गमन से पूरा वंश और जाति दूषित होने की संभावना होती है . अस्तु जाति और वर्ण को पवित्र रखने के उद्देश्य से स्त्री की पवित्रता पर विशेष ध्यान दिया गया हैl .पतित पुरुष को भी हेय दृष्टि से देखा जाता था . पुरुष के लिए एक नारी धर्म आदर्श था यह हम ऊपर बता चुके हैं ....( क्रमशः)
No comments:
Post a Comment