भागवत के भक्त भाग : 3




                                                                ध्रुव
                                                                   
ध्रुव चरित्र सकाम  भक्ति से संबंधित है. प्रहलाद की तरह ध्रुव जी शुरू से ही निष्कामता की ओर नहीं थे. भक्ति करने गए थे भौतिक जगत की सामग्री मांगने. बाद में भगवान के दर्शन से  अपने आप ज्ञान गया और निष्काम भक्ति की ओर मन चला गया.प्रारब्ध ध्रुव का  ठीक ही था क्योंकि उनकी माता ने और नारद जी ने प्रभु से ही मांगने को कहा, इच्छा पूर्ति प्रभु से ही करने को कहा,अन्य फे नहीं l
सुनीति- पुत्र ध्रुव ,मनु के पुत्र उत्तानपाद के जेष्ठ पुत्र थे.एक बार अपने सौतेले भाई सुरुचि- पुत्र उत्तम को अपने पिता की गोद में बैठे देख इनकी भी इच्छा हुई पिता की गोद में बैठने की हुई  ,परंतु पिता ने विशेष दुलार नहीं दिखाया. विमाता सुरुचि ने साफ साफ कह दिया कि यदि वह अपने पिता की गोद में बैठना चाहते हैं तो इसके लिए उन्हें सुरुचि की कोख से  जन्म लेना पड़ेगा. ध्रुव इस तरह व्यथित हुए जैसे की लाठी की चोट खाकर सर्प. वह अपनी माता सुनीति के पास गए. आहत बालक को माता ने समझाया कि उसकी माता का  दासी जितना भी सम्मान नहीं है उसके पिता के दिल में.यदि ध्रुव अपने पिता के सिंहासन पर बैठना चाहते हैं तो उन्हें भगवान की शरण में जाना होगा. ध्रुव  के दादा मनु को भी भगवान ने हीं सब कुछ, लौकिक और अलौकिक दिया था. परदादा ब्रह्मा भी भगवान की कृपा से सृष्टि करने में सफल हुए, अन्यथा किसी काम के ना  थे.
 बालक भगवान की भक्ति करने हेतु वन की ओर निकल पड़ा. रास्ते में नारद जी मिले. नारदजी चुपचाप भगवत धाम में नहीं बैठते हैं. ताक में रहते हैं कि सुपात्र जीव को किस तरह भगवान की ओर बढ़ाएं . यह भक्त और भगवान  के लिए कैटेलिस्ट/catalyst  का काम करते हैं.हम अवतार के प्रसंग में बता आए हैं कि नारद जी अपने पूर्व जन्मों में दासी पुत्र भी रहे हैं और उपबरहण  नाम के विद्याधर भी.  नारद जी ने बालक को समझाने की कोशिश की कि  वह वापस लौट जाए, दुख और सुख  प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य के जीवन में आते ही रहते हैं. बालक नहीं माना.  “मैं ऐसा पद चाहता हूं जो आज तक किसी को नहीं मिला हो, मेरे पिता और दादा को भी नहीं.आप वीणा बजाते हुए विश्व के कल्याण के लिए सब जगह विचरण करते रहते हैं जैसे कि सूर्य जीवो के लाभ के लिए सारे  ब्रह्माण्ड  में चक्कर काटता रहता है.’’ नारद जी ने  ध्रुव को समझाया कि चारों पुरुषार्थों की कामना पूर्ति भगवान के चरणों की पूजा से होती है. नारद जी ने ध्रुव को प्राणायाम की   भगवान के ध्यान की दीक्षा दी और साथ में मंत्र भी दिया l   नारद जी ने  ध्रुव को भगवान के रूप - ध्यान सहित नाम जप करने के लिए कहा. मानसिक पूजा समझाई.
नारद जी के निर्देशानुसार बालक ने यमुना में स्नान किया और साधना में बैठ  गया.पहले महीने कैथ और बेर का भोजन किया. दूसरे महीने से 6 दिन के अंतराल से खाने लगे, सूखे पत्ते और घास उनका भोजन थे. तीसरे महीने में नौ दिन में  केवल जल ही पीते.4 महीने में  प्राणायाम सिद्ध कर लिया। प्रत्येक 12 दिन  में वायु अंदर ले जाते.पांचवे महीने में सांस रोक कर एक पांव पर खड़े रहे.इस तरह ध्रुव ने भगवान को अपने बस में कर लिया. ध्रुव एक पाव पर खड़े थे तो उनके भार से पृथ्वी नीचे चली गई और डोलने लगी जैसे हाथी के चढ़ने से नाव डगमगाती है कभी दाएं कभी बाएं.इस प्रकार  ध्रुव जी समग्र चेतना से एकाकार हो गए,शरीर के सारे छेद बंद हो जाने से सारे विश्व की सांस घुटने लगी और सभी लोकों  के सारे देवताओं का दम घुटने लगा, देवता भगवान की शरण में भागे.भगवान ने समझाया,   उत्तानपाद का पुत्र इस समय मेरे चिंतन में पूर्ण lल्लीन है,उसी ने सारे ब्रह्मांड की श्वास क्रिया को रोक दिया है  तुम आश्वस्त रहो मैं उसे कठिन तपस्या करने से रोक दूंगा.’’

 जब भगवान ओझल हो गए उसके मानस पटल से तो ध्रुव ने सोचा कि  जिनका मैं ध्यान कर रहा था वे  कहां चले गए;घबराहट से आंख खुली तो वह साक्षात सामने थे जिनका ध्रुव  ध्यान कर रहा था.यहां एक बार फिर आध्यात्मिक नियम ,जिसका वर्णन भागवत में, गीता में वेदों में जगह-जगह है,आपको बता दिया जाए. भक्त जिस रुप में भगवान का ध्यान करता है भगवान अपनी कृपा दर्शाते हुए उसी रूप में भक्त के सामने प्रकट होते हैं--3/9/11,4/9/2 तथा गीता 4/11 .देखा जाए तो यही सब बातें मुद्गल उपनिषद में भी हैं.   उनकी स्तुति करना चाहा परंतु अपने को असमर्थ पाया. भगवान ने अपने शंख से उनके गाल को छुआ तो सब वेद ज्ञान गया,वेद मयी  दिव्य वाणी प्राप्त हो गई. भगवान की स्तुति की. तपस्या जो सकामता से   शुरु की थी, वह भगवान को देखने के बाद भक्ति में परिणित हो गई. प्रभु के साक्षात दर्शन का प्रभाव ही ऐसा है.भगवान से भक्ति मांगना ही  ज्यादा अच्छा समझा.ध्रुव निकले थे एक ऐसा पद पाने के लिए जो इनके बाप दादा किसी ने अब तक नहीं पाया था. भगवान ने दे दिया अपना नित्य धाम. ऐसा लोक जो सप्तर्षियों के  लोकों से भी ऊपर है , और जो प्रलय में भी नष्ट ना हो. साथ ही  36000 साल के लिए  धरती का राज दिया. भगवान अंतर्ध्यान हो गए वरदान देकर . यूं देखा जाए तो   सुनीति के  पुत्र ध्रुव को खुश होना चाहिए था, परंतु वह ज्यादा खुश नहीं थे. उन्हें पछतावा था कि वह भगवान से आवागमन से छुटकारा क्यों ना मांग पाए , हालांकि भगवान ने उन्हें अपना नित्य धाम  दिया.यह इसलिए था क्योंकि उनके मन में विमाता से  प्रतिशोध का भाव था और पिता का राजसिंहासन चाहिए था, ऐसी  भौतिक वस्तु चाहिए थी कि उनके बाप-दादाओं को भी नहीं मिली. परदादा ब्रह्मा  थे. इसलिए भगवान ने ब्रह्मा के लोक के भी ऊपर का लोक दिया. ब्रहमा का लोक उनके साथ ही महाप्रलय में नष्ट हो जाता है, परंतु ध्रुव का लोक नहीं. जब पूरा समय बिता कर गए तब मृत्यु के सिर पर पैर रखकर ,सुनहरे दिव्य शरीर लेकर,विमान में चढ़े और अपनी माता सुनीति  के  साथ ही प्रभु के धाम में गए. माता को तो ले जाते ही, माता ने ही तो भगवान की भक्ति की ओर इशारा किया था. अल्प बुद्धि वाली होती तो देवता,  यक्ष , पितर  आदि  की भक्ति  के लिए कहती. इस प्रकार की भक्ति करने वालों को कृष्ण ने गीता में कम बुद्धि वाला बताया है, क्योंकि इनको अनित्य फल ही प्राप्त हो सकता है देवताओं से ,क्योंकि वह देवता लोग स्वयं भी  नश्वर ही है.
  ध्रुव के प्रसंग से एक बात तो साफ़ है. सकाम भक्ति,प्रथम दर्जे की नहीं है; परंतु इतनी निंदनीय भी नहीं है. सकाम भक्ति से भी नाता भगवान से ही जुड़ता है.और फिर भगवत तत्व से नाता जुड़ने से एक प्रकार से सकामता समाप्त हो जाती है, और भगवान से भगवान को ही मांगने की इच्छा होती है.  ध्रुव  के साथ भी ऐसा ही हुआ------4/9/30 . भगवान से नाता जोड़ने वाला, मन जोड़ने वाला कभी निंदनीय हो ही नहीं सकता, दुराचारी से भी दुराचारी यदि भगवान की ओर मुड़ता है उनकी भक्ति करता है तो साधू जानने योग्य ही है... गीता9.30.-31.गीता में भगवान ने चार प्रकार के भक्त बताए हैं अर्थार्थी, आर्त , जिज्ञासु और ज्ञानी…..7.16-18. ध्रुव अर्थार्थी भक्त था. परंतु वह जो कुछ चाहता था वह श्री भगवान से ही चाहता था, इस प्रकार वह अनन्य भक्त था. अनन्यता भक्ति का मूल अंग है.आर्त भक्त वह होता है जो विपत्ति आने पर अपना संकट केवल भगवान से ही दूर करवाना चाहता   है, अन्य किसी से नहीं, जैसे  उत्तरा, द्रौपदी, गज आदि. जिज्ञासु भक्त भगवान के  परमतत्व को जानना चाहता है, परंतु वह यह ज्ञान और किसी से नहीं स्वयं भगवान से लेना चाहता है,जैसे परीक्षित उधव आदि.ज्ञानी भक्त वह है जो भगवान को तत्व से जानता है. भगवान के अलावा कहीं उसकी मन बुद्धि जाती ही नहीं,जैसे नारद सनकादिक कुमार। ज्ञानी भक्त को भगवान ने सबसे श्रेष्ठ बताया है और उसे अपने से अभिन्न माना है .ऐसे  भक्त भगवान पर निछावर होते हैं और भगवान भक्तों पर . इस प्रकार प्रेम का अद्वैत चलता ही रहता है. भक्त और भगवान दोनों एक दूसरे की  अभिन्नता  का अनुभव करते रहते हैं.समस्त प्रकार के भक्तों को भगवान ने उदार बताया है. चाहे सकाम भक्त हो चाहे निष्काम भक्त हो, भगवान के लिए सब उदार है.भक्ति से उत्तम कोई साधन नहीं. भक्त का कभी पतन भी नहीं होता, ऐसा आश्वासन कृष्ण ने गीता में दिया है…. ९। ३१.ऐसा आश्वासन ज्ञानी के लिए नहीं है, जड़ भरत का पतन हुआ है; तपस्वी के लिए नहीं है, विश्वामित्र का पतन हुआ है मेनका के हाथों; ऐसा आश्वासन योगी के लिए भी नहीं है , सौभरि योगी का पतन हुआ है मछलियों को क्रीडा करते देख कर. किसी भक्त के पतन की कथा सुनने में नहीं आती, क्योंकि भक्त भगवान के बूते पर चलता है. बिल्ली के बच्चे की तरह है  भक्त, संभालने का दायित्व मां का भगवान का. वह तो केवल शरण में आना जानता है.
 हमने देखा ध्रुव जी ने बहुत कम भोजन किया, केवल पानी पर बहुत दिनों तक रहे, प्राणायाम किया,  सांस को रोका एक टांग पर खड़े रहे. इससे यह अर्थ नहीं निकलता की शरीर को कष्ट देने से  ध्रुव जी को भगवान के दर्शन हुए. भगवान के दर्शन हुए भगवान की धारणा से, भगवान का रूप ध्यान करने से और भगवान के नाम का जप करने से. यह सब किया उसने भगवान के शरणागत होकर और अनन्य भाव से.  शरीर को कष्ट देने से भगवत प्राप्ति नहीं होती. कोई यह अर्थ नहीं निकाले कि भगवान साधन साध्य  है, बल्कि कृपा से प्राप्त होते हैं , कृपा साध्य हैं. भगवान तपस्या से प्राप्त नहीं होते, भक्ति से प्राप्त होते हैं. भक्ति में अनन्यता , शरणागति और श्रद्धा मुख्य हैं. इसके अतिरिक्त मन भगवान में होना चाहिए, जैसे गीता के 9 वें अध्याय के 34 में श्लोक में भगवान ने अर्जुन को आदेश दिया है.   “तू मेरा भक्त हो जा, मुझ में मन वाला हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा और मुझे नमस्कार कर. इस प्रकार अपने आप को मेरे में लगा कर मेरे परायण हुआ  तू  मुझे ही प्राप्त होगा. ‘’
भक्त ध्रुव का चरित्र सुनने से भौतिक आध्यात्मिक इच्छाएं पूरी होती हैं ,भगवत प्राप्ति होती है... 4.12.44-51.

                                                     अमरीश
राजा अमरीष  नाभाग के पुत्र थे.यह सारी धरती के राजा थे . सातों   द्वीप इन के अधिकार में   थे.इन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य प्राप्त था.  बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञ करके इन्होंने यज्ञ अधिपति भगवान की आराधना की थी. यह यज्ञ  सरस्वती नदी के पास वशिष्ठ गौतम आदि आचार्य के सानिध्य में किए. यह भौतिक संपत्ति को पत्थर के सामान समझते थे.स्त्री,, पुत्र संबंधी या  पदार्थों  में  इनकी बिल्कुल भी   आसक्ति नहीं  थी. यह अपने मन, बुद्धि और शरीर से भगवान की पूजा करते थे,  जैसे आंखों से भगवान का दर्शन, पैरों से भगवान के क्षेत्र की यात्रा, आदि.  एक बार राजा ने  द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत साल भर के लिए किया .  आखरी तीन रात बिना भोजन के रहे. बिना बुलाए मेहमान की तरह दुर्वासा ऋषि गए. राजा ने उन्हें भोजन का निमंत्रण दिया, ऋषि नदी पर स्नान करने चले गए और बहुत देर तक नहीं आए. और  द्वादशीसमाप्त होने वाली थी केवल एक -आधी घड़ी बची थी.   राजा ने विद्वानों की सलाह से  भोजन तो नहीं किया ,परंतु थोड़ा पानी पी लिया ,इससे भोजन करना भी हो गया और नहीं करना भी  . लौटने पर  जब दुर्वासा ऋषि को  पता लगा तो वह बहुत क्रोधित हुए  मैं इसका अतिथि बनकर आया था, इसने मुझे निमंत्रण भी दिया था. मुझे खाना खिलाया बगैर ही खुद भोजन कर लिया .’’ दुर्वासा ऋषि ने अमरीश को मारने के लिए अपनी  एक जटा उखाड़ कर के कृत्या  उत्पन्न की, जो तलवार लेकर राजा अमरीश पर टूट पड़ी।राजा की रक्षा के लिए  सुदर्शन चक्र को भगवान ने पहले से ही नियुक्त कर रखा था.  चक्र ने ऋषि द्वारा उत्पन्न की गई शक्ति का नाश कर दिया, कृत्या  समाप्त  हो गई. और सुदर्शन चक्र दुर्वासा के पीछे पड़ गया. इस से पीछा छुड़ाने ऋषि दुर्वासा संसार के कोने-कोने में भागते  रहे,  परंतु छुटकारा नहीं मिला.
 ब्रह्माजी के लोक में गए. ब्रह्मा जी ने पीछा छुड़ाते हुए कहा,  “ हम सब नियमों में बंधे हैं और राजकीय आज्ञा का पालन करके ही संसार का संचालन करते हैं.’’ निराश होकर दुर्वासा ऋषि  शंकरजी के पास पहुंचे . महादेव जी ने भी पल्ला झाड़ते हुए कहा, भगवान अनंत  ब्रम्हांडों के मालिक हैं मैं और ब्रह्मा जी उनके संबंध में कुछ नहीं कर सकते. हम जैसे ब्रह्मा और शंकर कब आते हैं कब चले जाते हैं पता ही नहीं चलता.’’ दुर्वासा कोई ठौर होने से  स्वयं भगवान नारायण के पास गए. नारायण ने भी अपने आप को
दुर्वासा की सहायता करने में लाचार  बताया. प्रभु बोले. “भक्तों के आधीन हूँ . जो अपना सब कुछ छोड़ कर मेरी शरण में आते हैं, मैं भला उन्हें  कैसे छोड़ सकता हूं?... जिसका अंत  करने के कारण आप इस विपत्ति में फंसे हैं आप उसी की शरण में जाइए.’’ ऋषि दुर्वासा राजा की शरण में गए और पांव में गिर गए. राजा को बहुत शर्म आई. राजा बोले , ‘‘जो  मैंने समस्त प्राणियों के आत्मा के रुप में भगवान को देखा हो और भगवान मुझ पर प्रसन्न हो तो दुर्वासा जी के हृदय की जलन मिट जाए.’’ ….4.9.11.राजा ने सुदर्शन चक्र की स्तुति की और चक्र शांत हो गया. दुर्वासा ने भोजन किया और राजा को आशीर्वाद देकर चले गए.  “आपकी  कीर्ति का बखान स्वर्ग लोक और धरती पर लंबे समय तक होगा.’’
 यह सुदर्शन चक्र पूरे एक साल तक दुर्वासा के पीछे पड़ा हुआ था और दुर्वासा अनेकों ब्रह्मांड में अपनी जान बचाते हुए भाग रहे थे. इस पूरे साल में राजा ने कुछ नहीं खाया था, ऋषि का ही इंतजार कर रहे थे.
गौर से देखा जाए तो बहुत बड़ी बात हुई थी. बिना अमरीश  द्वारा  प्रार्थना करें ही सुदर्शन चक्र दुर्वासा के पीछे पड़ गया था, इसे भगवान तक नहीं हटा पाए थे. राजा  द्वारा प्रार्थना करने पर ही वह शांत हुआ था. परंतु राजा ने इसमें अपना कुछ बड़प्पन नहीं माना भगवान की महिमा मानी.
इस चरित्र के मनन से भगवत प्राप्ति होती है--9/5/27 l...... क्रमशः



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