भागवत के भक्त भाग : 1


                                      वृत्रासुर आदि भक्त                    
भक्ति दो प्रकार की होती है ,निष्काम सकाम lसंसार की कोई भी वस्तु भगवान से ना चाहना और भगवान को ही चाहना  निष्कामता है जिसका संतों ने बहुत गुण गान किया है l सकाम भक्त संसार की वस्तु,व्यक्ति,परिस्तिथि आदि अन्य किसी से,देवता,मंत्र,उपाय से  नहीं चाहता  केवल भगवान से मांगता है l बहुत से भक्ति के आचार्य और विद्वान इसे अच्छा नहीं मानते; परंतु यह निंदनीय नहीं l कारण  सकामता भगवान से जोड़ती है ,किसी भी वृति से भगवान से जुड़ा जाये, प्राप्ति भगवान की ही होगी l  यह भागवत में नारद जी ने युधिष्ठिर को और शुकदेव जी ने परीक्षित को समझाया है--7/1/25-30 10/29/14-15 l भगवान जीवों की इच्छा पूरी करने वाले हैं  ---4/8/41,59,60 l भगवान ने गीता में सकाम भक्तों को भी उदार बताया है --7/18 lफिर भगवान का नियम है कि जो जिस भाव से उन्हें भजता है वे भी उसे उसी भाव से भजते हैं -- भाग. 10/38/42,गीता 4 /11 ,तैत्तिरीय उप x /3 ,मुद्गल उप. 3 /3 l कामना  पूर्ति हेतु भगवान को याद करना  भी भगवान से नाता जोड़ना ही है , भगवत प्राप्ति का साधन है  l इसमें सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि भौतिक संसार की मांगी हुई हर वस्तु नाशवान है अनित्य है चाहें  स्वर्ग सम्राट इंद्र या संसार रचयिता ब्रह्माजी का पद ही क्यों ना हो l इसके विपरीत सबसे बड़ी और विलक्षण बात इसमें यह है कि सकामता मिट भी सकती है जैसे कि ध्रुव की मिट गई l ध्रुव पर चर्चा करते समय हम यह विस्तार से बताएंगे lउसे पछतावा हुआ कि उसने भगवान से भगवान को क्यों नहीं मांगा हालाँकि चाही गई वस्तु(बाप दादाओं के राज्य ) से भी बढ़कर  राज्य  उसे मिला था,36000 साल के लिए धरती का राज्य ध्रुवपद l देवता, कल्पवृक्ष, तंत्र -मंत्र आदि साधन द्वारा मांगी हुई वस्तु हम  प्राप्त कर लेते हैं यदि हमने नियमों का सही-सही पालन किया है, चाहे वह वस्तु हमारे लिए अहितकर हो या हितकर हो l  परंतु  केवल भगवान से ही कुछ मांगने में हमारा सबसे बड़ा बचाव यह  है कि माँगा हुआ सामान हमारे हित में होगा तो ही हमें मिलेगा ,वह यदि हमें भगवान से विमुख करने वाला हुआ  तो वह  हमें भगवान नहीं देंगे l  यदि धन या ऐश्वर्य  भगवान से विमुख  करने वाला हो तो भगवान हमें नहीं देंगे; बल्कि जो है वह भी छीन लेंगे ताकि हम उनके सम्मुख हो जाएं l इस छीनने से  यह बात साफ है कि भगवान हमें कितना प्यार करते हैं l और यह सब छीन कर भगवान हमें अपने आपको देंगे अपना धाम देंगे अपना आनंद देंगे जोकि प्रतिक्षण वर्धमान है l छोटी सी वस्तु छीनकर कितनी बड़ी वस्तु दे रहे हैं,कितनी कितनी बड़ी  कृपा है  ---10/88/8,9 ,10/2716, 6/11/23 10 /81/37   ऐसे उद्गार कृष्ण के भागवत में युधिष्ठिर के प्रति   इंद्र के प्रति हैं तथा ऐसा ही मत भक्त वृत्तासुर और सुदामा  का है l सकामता आगे चलकर निष्कामता में परिवर्तित होनी ही है;नाशवान वस्तुएं मांगते- मांगते हम एक दिन थकेंगे ही और तब हम भगवान की ही कामना करेंगे l  इस प्रकार सकाम भक्ति में भी  कोई नुकसान नहीं l  भगवान की किसी भी प्रकार की भक्ति हो नुकसान का तो सवाल ही नहीं उठता l भगवान संबंधी कुछ भी हो हमारा अहित हो ही नहीं सकता l अब ज्ञानी भक्त वृतासुर पर चर्चा l  
किसी असुर को यदि श्री जीव गोस्वामी जैसे संत श्रीमद् कह कर संबोधित करें तो उस असुर को महान ही मानना पड़ेगा. इसकी महानता इसी से दीखती है कि  इसने इन्द्र  पर विजय प्राप्त करके स्वर्ग पाने से अच्छा मरकर  भगवान को प्राप्त करना माना---6.12.1 I यह विचार तत्वज्ञानी जैसे  हैं.
वृत्रासुर को उसके पिता त्वष्टा  ने इंद्र को मारने के लिए यज्ञ  करके उत्पन्न किया,क्योंकि इंद्र ने उसके पुत्र विश्वरूप का वध कर दिया था. अग्नि में त्वाष्टा ने उच्चारण किया, “हे इंद्र के शत्रु! तुम्हारी अभिवृद्धि हो, तुम अविलंब अपने शत्रु का वध करो.’’ परंतु मंत्र उच्चारण में त्रुटि  रह गई l छोटे स्वर की जगह दीर्घ स्वर का उच्चारण किया। वहहे इंद्र के शत्रुका उच्चारण करना चाहता था ; परंतु देर तक उच्चारण करने के कारण मंत्र का अर्थ बदल गया,  बदला हुआ अर्थ निकलाइंद्र जो शत्रु है’’. इसलिए इंद्र का शत्रु प्रकट नहीं हुआ l उसके स्थान पर वृत्रासुर का शरीर प्रकट हुआ, जिसका शत्रु इंद्र था---श्रीमद भागवतम स्वामीप्रभुपाद 6.9.11 l और वृद्धि हुईइंद्र जो शत्रु है ’’ की l   यज्ञ करना एक विज्ञान है lयह बहुत सावधानी से किया जाता है l त्रुटि रहने पर उल्टा फल या मन वांछित फल नहीं मिलता।(अंग्रेज़ी में इस लेखक कायज्ञ” www . primelements.com  साइट पर देखें ) जैसे मिसाइल बनाने में या दागने में कोई गलती  रह जाए तो मिसाइल अपने गंतव्य स्थान पर नहीं जाती या  रास्ते में ही फट जाती है या  उड़ती ही  नहीं।
यज्ञ  की दक्षिण अग्नि से उत्पन्न त्वष्टा  का पुत्र जले हुए पहाड़ जैसा काला था, विशालकाय था, वह प्रतिदिन शरीर के सब ओर से एक बाण  जितना बढ़ जाता था. उसने सारे लोकों  को घेर लिया। इस कारण उसका नाम वृत्रासुर हुआ l देवताओं ने उस पर अपने अपने शस्त्रो  से प्रहार किया परंतु वह सभी शस्त्रों को निगल गया l वह भाग गए और अपने हृदय में स्थित आदि पुरुष श्री नारायण की शरण में गए l
 नारायण द्वारा देवताओं को समझाया गया कि वृत्रासुर का अंत महर्षि दधीचि की हड्डियों से बने वज़्र  से ही होगा। महान ऋषि ने अपनी हड्डियों का दान देवताओं को दे दिया जिससे उन्होंने वज्र का निर्माण क्या।  वृत्रासुर को पता लग गया कि भगवान स्वयं इंद्र की ओर है जिससे इंद्र की जीत सुनिश्चित है. असुर ने भगवान से प्रार्थना की कि  वह भगवान को छोड़कर स्वर्ग ,ब्रह्म लोक, धरती का राज प्रशासन, योग की सिद्धियां तथा मोक्ष को भी नहीं चाहता। उसने भगवान से प्रार्थना की कि वह जिस जगह रहे  उसे भगवान के  प्रेमियों का संग  मिलता रहे और जहां माया बध्य  जीव हो  ऐसी जगह भगवान उसे नहीं भेजें।युद्ध के दौरान इंद्र का वज्र नीचे गिर गया था जिससे इंद्र बहुत लज्जित हुआ l  परंतु वृत्रासुर  की यह महानता ही है कि उसने इंद्र से कहा कि इंद्र  वज्र उठा ले और अपने शत्रु को मार दे। और इंद्र से बोला, “पुरुषोत्तम भगवान के अलावा किसी की भी बार-बार विजय होना निश्चित नहीं है,अलग-अलग प्रकार की योनि  प्राप्त करने वाले जीव कभी विजयी  होते हैं कभी परास्त।’’असुर होते हुए भी  इतना ज्ञान था l प्रायः असुरों में ऐसा ज्ञान नहीं होता है l  जब मृत्यु का योग आया तब वृत्तासुर इंद्र के हाथों मारा गया, यूं  तो इंद्र ने उसकी कोख फाड़ दी थी परंतु मृत्यु उसकी एक साल बाद हुई l सबके देखते-देखते वृत्रासुर भगवान में लीन हो गया, भगवान के स्वरुप में चला गया l इंद्र- वृत्रासुर युद्ध के संबंध में श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर का मत है कि वृत्रासुर ने जब हाथी समेत इंद्र को निगल लिया तब उसने सोचा कि मैंने इंद्र को मार डाला है l  इस कारण से वह समाधि में चला गया, क्योंकि उसने सोचा कि अब लड़ने की कोई आवश्यकता ही  नहीं है l  उसे भगवान के परम धाम जाना चाहिए।इसका लाभ उठा कर इंद्र ने वृत्रासुर का पेट फाड़ डाला और वृत्रासुर की समाधि के कारण  इन्द्र  बाहर निकल आया l  वृत्रासुर क्योंकि समाधि में लीन था इसलिए इंद्र उसकी गर्दन को  सुगमता से नहीं काट पाया, गर्दन इतनी कठोर थी कि इंद्र को उसे काटने में पूरे 360  दिन लग गए l वास्तव में इंद्र ने वृत्रा सुर के उस शरीर के टुकड़े टुकड़े किए जिसको वृत्रासुर स्वयं ने त्याग दिया था,  इस प्रकार इंद्र के हाथों  नहीं मारा गया l  अपनी मूल चेतना में ही भगवान संकर्षण  के  परम धाम चला गया--- श्रीमद् भागवतम् स्वामी प्रभुपाद/इस्कॉन  द्वारा टीका-- 6.12.31-35 l
  वृत्रासुर में ऐसा  ज्ञान कहां से आया? यह अनेक जन्मों की साधना से, और विशेषकर नारद जी से प्राप्त हुआ l नारद जी ने गर्भ में ही प्रहलाद को भगवत -भक्त बना दिया था, डाकू को महान संत वाल्मीकि,और  वृत्रासुर को ज्ञानी। इसे समझाने हेतु परमहंस सुखदेव ने अपने पिता, नारद जी और देवल से सुना इतिहास सुनाया। चित्रकेतु नाम का एक चक्रवर्ती सम्राट शूरसेन प्रदेश में राज्य करता था l उसके राज्य में पृथ्वी सारी आवश्यक वस्तुएं उत्पन्न करती थी l ऐसा राजा युधिष्ठिर के राज में भी था-- 1.10.4  l ऐसा देखने में आता है कि जब राजा धर्म अनुसार चलता है, सदाचारी होता है तो वर्षा  भी उचित मात्रा,उचित समय , में होती है और धरती से अंन ,फल आदि  भी वांछित मात्रा में पैदा होते हैं l  प्रजा, पृथ्वी बादल आदि में एक संतुलन होता है l यह संतुलन आवश्यक भी है सृष्टि चक्र के लिए जैसा कि गीता  में श्रीकृष्ण ने भी कहा है--3.14-15. इस राजा के एक करोड़ रानियां थी l  यह  संतान उत्पन्न करने में सक्षम भी थे, परंतु कोई सन्तान  नहीं थी। इस कारण से दुखी थे l एक बार अंगिरा ऋषि ,जो कि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं ,उनके राज्य में पधारे। राजा के बहुत आग्रह करने पर, ऋषि ने यज्ञ किया और प्रसाद बड़ी रानी को दिया  जिसका नाम था कृत्द्युति  था l  राजा को पुत्र प्राप्त हुआ l  परंतु अन्य रानियों ने दाह के कारण षड्यंत्र रच कर राजपुत्र की  विष  देकर हत्या कर दी l  राजा के दुख का ठिकाना नहीं था l  रानी और राजा दोनो ही विलाप कर रहे थे l   नारद जी और अंगीरा ऋषि  पधारे। बहुत प्रयत्न किया राजा का दुख दूर करने का, परंतु राजा का शोक  नहीं मिटा। अंत में अपने योगबल से नारद जी ने पुत्र  की जीवात्मा को उसके मृत शरीर में वापस बुला लिया। जीवात्मा ने कहा, “मैं अपने कर्मों के अनुसार देवता, मनुष्य, पशु- पक्षी आदि योनियों में कितने ही जन्मों से भटक रहा हूं,आप कौन से जन्म के माता-पिता हुए  जीव  नित्य और अहंकार रहित है,स्वयं प्रकाश है, अविनाशी है, सूक्ष्म है, इसका ना कोई प्रिय है ना कोई अप्रिय है। यह आत्मा कार्य-कारण का साक्षी है और स्वतंत्र है l” नारद जी ने भी बहुत समझाया तब जाकर राजा चित्रकेतु शांतचित्त हुए l  उनका स्नेह बंधन कट गया l  पुत्र की मृत्यु का शोक जाता रहा l प्रसन्न होकर नारद जी ने राजा को एक  विद्या का उपदेश दिया। राजा ने 7 दिन तक केवल जल पर  ही रहकर, एकाग्रता के साथ अनुष्ठान किया, जिससे राजा विद्याधरों  का अधिपति बन गया, और भगवान शेषजी  जी के चरणों में  शरण ली। .
एक बार  विद्याधर चित्रकेतु भगवान के दिए हुए विमान पर सवार होकर कहीं जा रहा था l उससे शंकर पार्वती का अपमान हो गया, यह कहना चाहिए उसने शंकर जी का  जानबूझकर अपमान किया ऐसे तो यह बहुत ज्ञानी था, परंतु प्रारब्ध ने उससे  ऐसा करवा दिया।शंकर भगवान सभा में बैठे हुए थे, गोद में पार्वती को बिठा रखा था और हाथ से  आलिंगन भी कर रखा था l सभा में से कोई कुछ नहीं बोल रहा था शंकर जी के विरुद्ध l सब जानते थे कि शंकर जी मायातीत हैं  l  और उन्होंने कामवश  पार्वती को गोद में नहीं बिठा रखा l  ना ही उनके आलिंगन में कामवासना है l   भरी सभा में चित्रकेतु ने शंकर भगवान को निर्लज्ज कहा l शंकर जी को इस से कोई फर्क नहीं पड़ा, परंतु क्रोधित पार्वती ने इन्हें असुर बनने का श्राप दे दिया l  इन्होंने शाप से मुक्त होने के लिए प्रार्थना नहीं की l सक्षम होते हुए भी बदले  में पार्वती जी को शॉप   नहीं दिया। बोले ,  यह जीव अज्ञान से मोहित हो रहा है और इसी कारण संसार चक्र में भटकता रहता है और सुख दुख भोगता है…. यह जगत सत्व, रज आदि गुणों का स्वाभाविक प्रभाव है l  इसमें क्या शाप, क्या अनुग्रह,  क्या स्वर्ग, क्या नर्क और क्या सुख ,क्या दुख.’’ ज्ञान भरी बातें चित्रकेतु से सुनकर भगवान शंकर ने सभा में ही  विद्याधर की प्रशंसा की और कहा l   जो लोग भगवान के शरणागत होते हैं वह किसी से भी नहीं डरते l  क्योंकि उन्हें स्वर्ग, मोक्ष और नरकों में भी एक ही वस्तु के, केवल भगवान के ही दर्शन होते हैं l ’’ इसलिए जब  त्वष्टा की दक्षिणाग्नि से वृत्रासुर प्रकट हुआ तब उसमें पूर्व जन्म का ज्ञान था, जैसे भारत को अपने मृगयोनी में भी पूर्वजन्म के ज्ञान का स्मरण था l
इस प्रकरण से हमें बहुत सी बातें सीखने को मिलती हैं l  प्रथम, कोई कितना ही बड़ा ज्ञानी हो, कितना ही सक्षम हो, कैसा ही विद्वान हो, अपने  कार्य में सफल नहीं हो सकता यदि भगवत इच्छा नहीं हो l जहां भगवान होते है वहां विजय होती है ---6/19/20,गीता 18/78 l त्वष्टा उच्च कोटि के यज्ञ करने वाले थे l वह यज्ञ से एक ऐसा पुत्र उत्पन्न करना चाहते थे जो इंद्र का वध कर दे l  पूर्णतः  सक्षम होते हुए भी वह ऐसा नहीं कर पाए l उच्चारण में त्रुटि  रहने के कारण मन वांछित पुत्र प्राप्त नहीं कर सके,क्योंकि इंद्र मरे यह भगवान की इच्छा नहीं थी l  इसी प्रकार दुर्वासा ने कृत्या को तो उत्पन्न कर दिया परंतु वह अमरीश का बाल बांका भी नहीं कर सकी, उल्टा सुदर्शन चक्र ही दुर्वासा के पीछे पड़ गया l  द्वितीय, भक्ति का अधिकार सभी को है मनुष्य, देवता, असुर l  ऐसे तो मनुष्य योनि ही पुरुषार्थ अर्थात नवीन कर्म करने के लिए है और इसी में भगवत प्राप्ति होती है l परंतु विशेष परिस्थितियों में देव, दानव,पक्षी ,पशु ,नाग ,वृक्ष  और असुर आदि  भी भगवान को प्राप्त कर सकते हैं--गीता 9.32,भागवत 11.12.8 l तृतीय, यदि कोई भक्ति की चरम सीमा प्राप्त करने से पूर्व मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तो उसे अगले जन्म में  फिर से भक्ति करने का अवसर प्राप्त होता है. चतुर्थ, अंत समय में यदि मन भगवान में स्थित हो, भगवान को याद करते हुए शरीर त्यागा  जाए तो भगवत- प्राप्ति हो जाती है l  भगवान को  स्मरण करते हुए वृत्रासुर ने शरीर को त्यागा इसलिए भगवत धाम गया l यही गीता का ज्ञान है-- 8.5,6.  पंचम, गुरु महत्व असीम है l  नारद जी द्वारा ज्ञान देने पर ही चित्रकेतु को विद्याधरों  का अधिपत्य  प्राप्त हुआ था l षष्ट्म , जो कि सबसे महत्वपूर्ण है, भगवान के भक्त को कोई भी भय नहीं होता। इस प्रकरण में यह तथ्य शंकर भगवान ने पार्वती जी को सभा में अन्य उपस्थित जन को समझाइए है l
यह है चित्रकेतु/वृतासुर  का पावन इतिहास। परमहंस शुकदेवजी के विचार से इस इतिहास के पाठ से परम गति प्राप्त होती है,बंधनों से मुक्ति होती है--6.17.40,41 l इसे ऐसा ज्ञान था, जो भगवान स्वयं ने शिव-संकट मोचन के समय बताया कि भगवान जिसपर कृपा करते हैं उसका अर्थ,धर्म काम संबंधी प्रयास विफल कर देते हैं ---6/19/23,10/88/8-10 l........ क्रमशः ...

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