पतिभक्ता : अपने भक्तों को पति मानने वाली पौराणिक देवी


ब्रह्म को  समझना कठिन है।  भागवत में वसुदेवजी अपने पुत्रों के संबंध में कहते हैं कि वे  जगत का कारण, आधार, निर्माता, निर्माण- सामग्री, पालनकर्ता, भोग्य और भोक्ता  हैं -10.85.3,5. ।  यह  ब्रह्म की सबसे सटीक परिभाषा प्रतीत होती है।  वेदों में ब्रह्म को नर, नारी, नपुंसक और मिश्रित लिंग अर्थात अर्द्धनारेश्वर बताया है।  इस प्रकार से ब्रह्म सत्ता भी है और शक्ति भी है।  शक्तिमान और शक्ति अभिन्न होते हैं।  शक्तिमान से शक्ति को पृथक नहीं किया जा सकता, जैसे अग्नि से दाहक शक्ति।  इसी प्रकार शक्ति और शक्तिमान में अभेद है, ईश्वर का जो स्वरूप है वही शक्ति का है… देवी भागवत 3.6. ।  शक्ति ही संपूर्ण जगत की आत्मा है और शक्ति ही चेतन-अचेतन जगत का कारण है... देवी भागवत 3.3.।  सृष्टि से पूर्व कुछ भी नहीं था।  केवल देवी ही सृष्टि से पूर्व  थीं, उन्होंने ब्रह्मांड की सृष्टि की….  उन्हीं से ब्रह्मा विष्णु महेश आदि प्रकट हुए हैं …  वही महान परमतत्व है….बह्वृचो उपनिषद। देवताओं ने देवी से पूछा कि वह कौन है तब उन्होंने बताया, “मैं ब्रहमस्वरूपा  हूँ, मुझसे ही जगत उत्पन्न होता है।  मैं आनंद और आनंद स्वरूपा हूँ, नीचे ऊपर अगल-बगल सब जगह मैं ही हूँ” .. देवी उपनिषद ।  इस प्रकार देवी ने स्वयं को सर्वज्ञ, सर्वशक्ति और सर्वत्र बताया है ।  ऋग्वेद के देवीसूक्त  में देवी की सर्वव्यापकता का वर्णन है।  सारा  ब्रह्मांड शक्ति-तत्व  से ही संचालित है।  देवी भागवत में ब्रह्माजी कहते हैं कि देवी सभी का  आदि कारण है।  सब की आदि जननी है।  प्रलय के समय जगत को अपने में समेट लेती है ।  मूल प्रकृति है और हमेशा परमपुरूष के साथ रहती है ।  ब्रह्मांड की रचना करके परमपुरूष को यह दिखाया करती है ।  परमपुरूष दृष्टा है, यह चराचर जगत दृश्य है और उन परमपुरूष की व अन्य  सबकी यह आदिशक्ति महामाया अधिष्ठात्री  देवी है… देवी भागवत  स्कंद 3 अध्याय 1  से 3 ।  आगे देवी ब्रह्मा जी को समझाती है कि संसार में देवी के सिवाय कोई पदार्थ नहीं है {गीता में ऐसा ही श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया है 7.7, 7.19} ब्रहम से अपना अभेद बताते हुए देवी भागवत में भगवती समझाती हैं: “मैं और ब्रह्म एक ही हैं।  मुझ में और इन ब्रह्म में  किंचित मात्र भी भेद नहीं हैं ।  जो वे  हैं, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही वे हैं । बुद्धि के भ्रम से भेद प्रतीत होता है”..... 3.6.2.

शक्ति  ही महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली है। यही तुलसी, यही गंगा और यही हर स्त्री रूप में है। अब हम भगवती के एक ऐसे रूप की चर्चा करेंगे जिसका वर्णन है मार्कंडेय पुराण में, दुर्गा सप्तशती के मूर्तिरहस्यम में ।  परंतु, फिर भी इस विशेष देवी को बहुत कम लोग ही जानते हैं। मूर्तिरहस्यम में  इन देवी की चर्चा है  श्लोक 4 से 11 तक और उससे पूर्व ग्यारहवें अध्याय में 43 से 45वे श्लोक में इनका वर्णन है। इनका नाम है रक्तदंतिका, रक्त चामुंडा अथवा योगेश्वरी।

काव्य रूप में इनका वर्णन दिया जा रहा है:

चतुर्युगी अठाइस  के अंदर
मनु  वैवस्वत  का था मन्वंतर;
धरा वैप्रचित  दानवों  से करने रिक्त,
जगदंबा  हुईं  अवतरित।
                                   वसुंधरा -सा आकार,  दानवों में हाहाकार, मानवों में जय-जयकार.
                                   दुष्टों के लिए भयंकर, भक्तों के लिए प्रियंकर।
महादैत्य चबा  लाल हुई दंतपंक्तिका
सुर-नर-असुर बोले “रक्तदंतिका !’’

भगवती की हर बात लाल
लाल मुख, लाल नख ,
लाल बिंदी, लाल मेहंदी,
लाल कपोल,  लाल बाल,
लालअक्ष,  लाल वक्ष,
लालअधर,  लाल खप्पर,
लाल अस्त्र, लालवस्त्र ,
लाल ज़ेवर, लाल तेवर,
                                   योगेश्वरी! रक्तदंतिका! रक्तचामुंडा!
तूने खूब उड़ाए राक्षस - मुंडा!
                                   तू महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती
सब चराचर की तुझ में ही स्थिति.
                                   तू परब्रह्म आदि कारण मूल प्रकृति
अनंत ब्रम्हांडो  की आकृति ;
                                    ब्रह्मा, विष्णु महेश में तुझसे  शक्ति
सर्वभूत करें तेरी ही भक्ति ।

भक्तों का तू  हरती भय
दुष्टों का करती क्षय।
मनोहर पयोधर करते सर्वकामना पूर्ति
यह  दो  आनंद-सागर तू  भक्तों को पिलाती।
पतिव्रता जैसे पूजती पति को
देवी वैसे ही भजती  भक्त को।
                                                   तू   देती  भुक्ति, मुक्ति और भक्ति,
                                                   भोगी योगी ज्ञानी करें तेरी स्तुति।  
                                                   कर्मकांड से तू हाथ ना आए,
                                                   शरण आए तो गोद में बिठाए।
                                                   जो तुझे ध्यावे उसे तू तेरे जैसा बनाए,
                                                   सब भोग दे फिर अपने धाम ले जाए।
                                                   वह लौट के न आए, उसका आवागमन छूट जाए,
                                                   दु:ख निवृत्ति हो जाए, वह जीव अनंत आनंद पाए।


पद्य के बाद अब  गद्य  में  इनका वर्णन करते हैं।

 मूर्तिरहस्य के अनुसार देवी की छः अंग भूता हैं -- नंदा, रक्तदंतिका, शाकंभरी, दुर्गा,  भीमा और भ्रामरी। देवी भागवत में देवी हमें बताती हैं, “श्रेष्ठ पुरुषों की रक्षा करना, वेदों को सुरक्षित रखना और जो दुष्ट हैं, उन्हें मारना -यह मेरे कार्य हैं, जो अनेक अवतार लेकर मेरे द्वारा किए जाते हैं।  प्रत्येक युग में मैं ही उन उन अवतारों को धारण करती हूं’’…. 5.15.22,23।  रक्तदंतिका का  अवतार देवी द्वारा वैप्रचित  दानवों को नष्ट करने के लिए लिया जाता है।  इस अवतार में देवी के शरीर का रंग लाल होता है। यह लाल रंग के वस्त्र धारण करती है और आभूषण भी लाल ही पहनती है । उनके शरीर के अंग जैसे नेत्र, नाखून, दाँत, बाल सब लाल रंग के होते हैं।  दाँत लाल होने के कारण इन्हें  रक्तदंतिका का नाम दिया जाता है।  रूप इनका भयानक दिखता है परंतु यह सारे भयों को दूर करने वाली हैं । अस्त्र-शस्त्रों में यह हल, मूसल व खड्ग धारण करती है, इनके एक हाथ में पानपात्र रहता है।  इनका दूसरा नाम रक्तचामुंडा है। यह योगेश्वरी देवी भी कहलाती हैं। देवी रक्तदंतिका का आकार पृथ्वी जितना बड़ा है।  इनके दोनों स्तन सुमेरु पर्वत के समान हैं, लंबे-चौड़े बहुत मोटे, परंतु बहुत ही मनोहर हैं।  देवी के स्तन कठोर हैं परंतु देखने में बहुत ही सुंदर हैं।  देवी के स्तन पूर्ण आनंद के सागर हैं।  यह सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं और देवी अपने भक्तों को इन्हें पिलाती हैं ।   इस प्रकार इनकी विशेषता  में लाल रंग का स्थान है। दूसरी विशेषता में  इनका अपने भक्तों के प्रति पत्नी भाव है, जो मूर्ति रहस्यम के छठे और ग्यारहवीं श्लोकों  से दिखता है. इस भाव के कारण हमारी  रक्तदंतिका देवि का  अन्य वैदिक और पौराणिक देवियों से पृथक और अनूठा स्थान है।  जब साधारण हिंदू  “देवी’’ अथवा “भगवती’’  शब्द सुनता है तो उसके मन में शक्ति का रूप आता है जिसके प्रति वह मातृभाव रखता है। देवी लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती आदि भी पतिव्रताएँ हैं परंतु यह पतिव्रता केवल अपने पतियों के लिए हैं, भक्तों के लिए नहीं। इसी प्रकार भारत में महान पतिव्रता नारियाँ  भी हुई हैं, जैसे मंदोदरी, सुलोचना, सावित्री आदि। परंतु ये सब केवल अपने पति से प्रेम करती थीं अन्य  से नहीं ।  हमारी रक्तदंतिका की यही प्रभुता है, यही विलक्षणता है कि वह अपने भक्तों की इस प्रकार सेवा करती है,  परिचर्या करती है जैसे पत्नी अपने पति की । अस्तु  पतिभक्ता देवी है ।
अन्य वैदिक और पौराणिक देवियों कीआराधना {हम यहाँ  तंत्र की चर्चा नहीं कर रहे}  शांत भाव, दास्य भाव और देवी को माता मानते हुए ही की जाती है।  साधारण तौर पर माधुर्य  भाव से  उनकी पूजा प्रायः  नहीं की जाती है।  वैसे आचार्यों ने भक्ति के पाँच भाव बताएँ  हैं--  शांत, दास्य,  सख्य, वात्सल्य और माधुर्य। शांत भाव में भक्त और भगवान में प्रजा और राजा जैसा संबंध होता है; दास्य भाव में सेवक - मालिक का; सख्य  भाव में मित्रों जैसा; वात्सल्य भाव में माता-पिता का अपने  बच्चे के प्रति प्रेम-भाव; माधुर्य  भाव में या तो गोपी प्रेम, वह प्रेम जो गोपियों का कृष्ण के प्रति था, या पति-पत्नी का परस्पर  भाव होता है।  यदि हमें रक्तदंतिका की पूजा करनी है तो हमारे लिए केवल एक ही भाव बचता है- पति- पत्नी के मध्य प्रेम का भाव।  यह माधुर्य  भाव का एक प्रकार है।  भक्ति में हमारी देवी के प्रति जो रति  होगी वह समंजसा रति कहलाती है।  इसमें भक्तों को स्वयं के व साथ में  अपने इष्ट के सुख की भावना रहती है।  इसका उदाहरण है श्री कृष्ण और उनकी रुक्मणी आदि रानियों का उनके प्रति प्रेम।

भाव तो हमें मिल गया।  देवी के रूप का क्या करें? मार्कंडेय पुराण में दुर्गा सप्तशती के मूर्तिरहस्यम में जो रक्तदंतिका का रूप बताया गया है वह देखने में भयंकर है।  इसका हल तो सरल  है।  देवि का विराट और भयंकर रूप भी होता है और  करुणामय रूप भी।  हिमालय  की प्रार्थना पर देवी ने जब अपना विराट रूप दिखाया तो देवता लोग डर गए, ठीक वैसे ही जैसे अर्जुन कृष्ण का विराट रूप महाभारत के पूर्व गीता उपदेश के समय देखकर  भयभीत  हुआ था।  तब देवी ने करुणा करके अपना मनोहर रूप, चार भुजावाला दिखाया--- देवी भागवत। साकार ब्रह्म  की भक्ति का एक सिद्धांत हमें समझ लेना चाहिए।  भक्तों की भावना के अनुसार इष्टदेव अपने भक्तों के समक्ष अपना रूप प्रकट करते हैं। यह बात वेदों और पुराणों में बार-बार समझाई गई है।  मुद्गल उपनिषद कहता है: “इसकी जो जिस भाव से उपासना करता है, यह परमतत्व उसके लिए उसी रूप का हो जाता है’’…3.3.  श्रीमद्भागवत में ब्रह्माजी ने भी भगवान के लिए यही बात कहीं है: “आपके भक्तजन जिस जिस भावना से आपका चिंतन करते हैं, उन साधु पुरूषों पर अनुग्रह करने के लिए आप वही-वही रूप धारण कर लेते हैं.’’..3.9.11 ।  अवतारकाल में भी यही सिद्धांत है।  कंस के अखाड़े में कृष्ण और बलराम एक ही स्थान पर एक ही समय पर भिन्न-भिन्न लोगों को भिन्न-भिन्न रूपों में उनकी भावना के अनुसार दृष्टिगोचर हुए। वह पहलवानों को  वज्र कठोर शरीर, साधारण मनुष्य को नवरत्न, स्त्रियों को कामदेव, राजाओं को दंड देने वाले शासक, कंस को काल... योगियों को परमतत्व के रुप से दिखे।  एक ही काल में भगवान का रुद्र, अदभुत, शृंगार,  हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, शांत, वीभत्स और प्रेम भक्ति-रस का रूप दृष्टिगत हुआ… 10.43.17 । यही भगवान की भगवद्ता है और यही उनका हम पर अनुग्रह है कि वह हमें उसी रूप में दिखाई देते  हैं जिस रूप में हम उन्हें भजते हैं ।  अब हमें भाव भी मिल गया और  रूप भी हम मनचाहा बना सकते हैं ।

प्रश्न है, किस प्रकार भक्ति की जाए? भक्ति के हजारों साधन है। सबसे श्रेष्ठ, प्रहलादजी के अनुसार, वह उपाय श्रेष्ठ  है जिससे भगवान में स्वाभाविक निष्काम प्रेम हो जाए। इस हेतु प्रहलादजी गुरु की सेवा, जो मिले उसको  भगवान को समर्पित करना, भगवत प्रेमी महात्माओं का सत्संग, भगवान की आराधना, उनकी कथा-वार्ता में श्रद्धा, उनके गुण और लीलाओं का कीर्तन, उनके चरणकमलों का ध्यान और मंदिर-मूर्ति आदि का दर्शन हमें बताते हैं।  इसमें भी मुख्य श्रवण, कीर्तन और सुमिरन है। इनमें भी जगदगुरुत्तम श्री कृपालुजी सुमिरण को मुख्य स्थान देते हैं। रक्तदंतिका की भक्ति में हमें हर समय उनका सुमिरन करना है।   सब से पहले उनका मनोहर रूप अपने, जो हमें अच्छा लगे, मन से बनाना है।  फिर मन से बनाए हुए इसी रूप का ध्यान करना है।  उनके नाम का जप करना है।   उनकी लीलाओं का ध्यान करना है। सबसे ज्यादा महत्त्व  हमें मानस पूजा पर देना है।  दुर्गा सप्तशती में जो दुर्गा की मानस पूजा बताई गई है उसी प्रकार हम हमारी प्यारी पत्नी- रूपा रक्तदंतिका की पूजा करें ।  परंतु पुराण के विरुद्ध ना जाएँ; लाल रंग के वस्त्र उन्हें पसंद है लाल रंग के वस्त्र ही  चढ़ाए  जाएँ, फूल  फल और जेवर भी लाल रंग के ही हों ।  देवी भागवत में मानसिक यज्ञ  को सबसे श्रेष्ठ  बताया है…  तीसरे स्कंध के बारहवें अध्याय में।   ऐसे तो देवी समस्त कामनाएँ पूरी करने वाली है परंतु भक्ति के आचार्यों का, जिनमें नारदजी भी हैं,कहना है कि निष्काम भक्ति ही सबसे उचित है।  संसार का सामान माँगना वंदनीय नहीं है।  संसार की हर वस्तु परिस्थिति व्यक्ति आदि अनित्य ही है। नाश होने वाली वस्तु माँगी तो क्या माँगा? देवी से माँगे तो उनकी भक्ति ही  माँगे।  भक्ति शब्द ‘भज’ धातु से बना है और इसका अर्थ है  ‘सेवा’।  पत्नी की सेवा में क्या संकोच? भक्ति अर्थात सेवा ही माँगे।  हर कर्म देवी के सुख के लिए ही करें।  यही भक्ति है, यही सेवा है।  ऐसा करने से हमें देवी का धाम मिल सकता है। देवी के साथ उनके  धाम में रहने से  बढ़कर अन्य कोई बात ही नहीं। इससे हमें अनंत मात्रा का आनंद अनंत काल के लिए प्राप्त होगा जो कि  प्रतिक्षण  वर्तमान है और देवी का सुमिरन करने के लिए देवी के शरीर का स्तवन, जो मूर्तिरहस्य में दिया गया है, करें। इससे देवी विशेष प्रसन्न होती हैं। समस्त अंगों का ध्यान कांत भाव से करें।  बार-बार करें।  भक्ति और ध्यान की विधि स्वयं देवी ने बताई है, देवी भागवत में सातवें स्कन्ध  के 37वें अध्याय में। देवी हमें सिखाती हैं कि  भक्ति के लिए अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की कामना का त्याग आवश्यक है, चारों प्रकार की  मुक्तियों का त्याग करना है।  देवी भक्तों को अपना ही चिंतन करने का उपदेश देती हैं।  

अध्यात्म जगत में एक और सिद्धांत है। जो प्राणी जिसका सुमिरन करता है, प्रेम से भय से, बैर से, उस जैसा ही हो जाता है… श्रीमद् भागवत 11.9. 22।  इस प्रकार हर समय  देवी का सुमिरन करने से हम देवी के ही समान सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान, समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी बन सकते हैं। देवी स्वयं, देवी भागवत में, भक्ति की महिमा बताते हुए कहती हैं,  “कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग में  यह भक्तियोग परमसुलभ है, मन के अनुकूल है तथा शरीर एवं चित् को भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचाता।”  7. 37  । उनकी ही  शरण लें, दूजा चित न धरें,  अनन्य रूप से उनके बनें।  देवी की भक्ति की एक और विशेषता  जान लें । भक्ति का कभी  नाश  नहीं होता।  यदि कोई भक्त भक्ति  की या ज्ञान की पूर्णता प्राप्त किए बिना मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तो वह ब्रह्मलोक में स्थान पाता है, जहाँ पूरे एक कल्प तक अर्थात 4 अरब 32 करोड़  वर्षों तक रहता है। उसके पश्चात उसका शुद्ध आचरण वाले श्रीमानों  के घर में जन्म होता है। वह पुनः साधन करता है और ज्ञान प्राप्त कर लेता है… देवी भागवत 7.37।  कुछ इसी प्रकार कृष्ण ने भी अर्जुन को गीता में समझाया है कि भक्ति करने वाले का कभी पतन नहीं होता। वह कभी नष्ट नहीं होता….  गीता 6.41-44 ।  

इसलिए कृपया भक्ति करें।  यह मानव शरीर देव दुर्लभ है, देवता भी इसे पाने के लिए लालायित रहते  हैं।  एक बार छूट गया तो  फिर ना जाने यह कब मिले। चाहे इंद्रलोक में रहे, चाहे ब्रह्मलोक में।  भगवत्प्राप्ति तो मृत्युलोक में जन्म लेकर मानव शरीर प्राप्त होने पर ही मिल सकती है। भक्ति सरल है, सुगम है।  इसमें कोई कष्ट ही नहीं है।  भक्ति करने वाले को उसका इष्ट पग-पग पर संभालने आता है। इष्ट के बल  पर चलें, स्वयं के बल पर नहीं।  

स्मरण रहे कि हम जिस की भक्ति कर रहे हैं वह हमें अपना पति मान के भज रही है। बदले में हमें देवी को अपनी पत्नी मानना है। परंतु यह ‘तत्वज्ञान’ भी रखें कि  देवी  ‘परमतत्व’ है।  यह परमतत्व सारे  जगत का निर्माण करता है अपने आप से, फिर जगत में प्रवेश करके जगत का पोषण करता है और जब प्रलय का समय आता है तो सारे जगत को अपने आप में समेट लेता है।  

अब रक्तदंतिका की भक्ति में सहायक कुछ ताना-बाना देख  लें ।   

लाल-लाल चूड़ियाँ खनखनाती,
लाल-लाल होठों से मुस्कुराती,
आई रक्तदंतिका आई,
भक्तों को दुलारने रक्तदंतिका आई।
लाल- लाल साड़ी लहराती,
लाल -लाल गाल दिखलाती,
आई रक्तदंतिका आई,
भक्तों को तारने रक्तदंतिका आई।
                                                   लाल-लाल तलवार घुमाती,
                       लाल- लाल दाँत पीसती,
                           आई रक्तदंतिका आई,
                         दानव को मारने रक्तदंतिका आई.
                               लाल-लाल मूसल   चलाती,
                               लाल-लाल पान-पात्र भरती,
                              आई रक्तदंतिका आई,
                                दानव को चबाने रक्तदंतिका आई।  
बिंदिया में उगता सूरज,
जैसे झील में खिलता नीरज;
उषा की लाली कपोलों पर,
अनार की आभा अधरों पर।
करुणा टपके अक्ष से,
ममता  रिसे वक्ष से;
दो पयोधर कठोर पर अति कांत,
आनंद के सागर करें मनोरथ शांत।
करे जो देवी के शरीर का स्तवन,
कराए पान  उसे देवी  दो आनंदघन
वह पाए रक्तदंतिका का आलिंगन,
और देवीधाम में शरण ।  
स्वयं को  पतिव्रता, भक्त को  माने पति,
देखो कैसा अनुग्रह है करे सती!
जो शरण आए मन से, भजे सदा  देवी नाम,
उसके  मनोरथ पूर्ण करें, अंत में ले जाएँ  निज धाम।

पायल बोले छम-छम,
चूड़ी बोले खन-खन,
साड़ी बोले सन-सन,
तलवार बोले टन-टन।
स्वर्ण मुकुट में लाल रतन,
वर दे बिना जतन।
आँखों में करुणा सागर,
आरती करें सुर - नर।
भक्त बोलें आ आ,
असुर  बोले जा जा,
योगी बोलें माँ  माँ ,
भगवान कहें जगत अम्मा।
कर्म अनुसार फल देने वाला न्यायधीश हमें नहीं पसंद आए,
हमारे पापों को माफ करने वाली देवी ही हमें भाय।  
भक्तों पर प्रेम की बरसात,
दुष्टों पर बैर की लात।
भक्तों पर रक्षा की चादर,
दुष्टों पर शस्त्रों की मार।
जब चले तेरा मूसल,
मरें   दुष्ट  उस पल।
जब उठाए हल,
तब तिलमिलाए  खल।
तू तलवार जब घुमाए,
दानव शीश  तब गवाएँ।

अब हमारी रक्तदंतिका के चार भुजाओं के संबंध में

एक हाथ धर्म-कर्म, दूजे अर्थ - काम, तीजे  कामनापूर्ति, चौथे मुक्ति- भक्ति।

भक्ति अवश्य करें।  छोटे- बड़े, अच्छे- बुरे,  मूर्ख -पंडित, पापी -पुण्यात्मा सभी भक्ति के अधिकारी हैं।   वैसे तो निष्काम भक्ति सबसे ही उत्तम है।  शुरू में निष्कामता ना आए तो कोई बात नहीं , सकाम  भक्ति ही कर लें।  धीरे-धीरे  कामना  त्यागते हुए निष्कामता की ओर जाएँ ।  जब हम समझ जायेंगे कि सांसारिक कामनाएँ पूरी ही नहीं हो सकती तो हम कामना छोड़ देंगे। चाहे देवी से भेद  मान के या  देवी से अभेद मान के, पर भक्ति करें।   

भक्ति तो सबको करनी ही चाहिए।  भक्ति के आचार्यों के अनुसार माधुर्य  रस में बाकी के चारों रसों का समावेश है।   अर्थात भक्ति में मधुरस के अलावा जो शांत, दास्य,  सख्य और वात्सल्य रस है वे सब मधुर रस में स्वाभाविक रूप से हैं।  समय-समय पर पत्नी ही माँ की, सखी की, बेटी की,  स्वामिनी की, सेविका की और संरक्षक की भूमिका इस  जगत में भी निभाती है और भक्ति के संसार में भी।  

भक्ति के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण विशेषता भी हमेशा के लिए स्मरण रखें ---भक्ति इंद्रियों से नहीं होती, भक्ति मन से होती है।  मन में देवी को रखें और कर्म इंद्रियों से करें।  और, इन कर्मों को फिर देवी के अर्पण कर दें।   कर्म अक्षय हो जाएँगे।   

देवी आप पर कृपा करें।

जय रक्तदंतिका। जय रक्त चामुंडा। जय योगेश्वरी।

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