यूं ही


 आपने मेरे बच्चों के साथ अन्याय किया, दुभांत  किया है. एक के पास सब कुछ, दूसरों के पास सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं.” भगवान की स्वरूप शक्ति, नित्य संगिनी, जगत जननीalhहाल्दिनी    के  सब्र का बांध जो कि कई  सरगों से दबा रखा था फूट पड़ा. आंखों से आंसू बह रहे थे, हृदय से आहें  निकल गई रही थी .बात मायाबद्ध और मायातीत जीव को लेकर थी.कुछ जीव शुरू से ही माया से  बंधे हुए  हैं और मुक्त जीव शुरू से ही माया से परे हैं।   इसे जगदंबा प्रभु द्वारा किया गया अत्याचार  समझ रही थी. संगिनी को समझाते हुए प्रभु बोले,” याद करो प्रथम सर्ग के आरंभ में क्या हुआ था? मैंने तो तुमसे पूछ कर ही सभी जीवो को स्वतंत्रता दी थी. उन्होंने अपनी ओर से ही माया को चुना और दूसरों ने अपनी ओर से मुझे चुना. मेरा दोष कहां है?” संगिनी ने पूछा कि ऐसा सब कब हुआ था. प्रभु का उत्तर था यह तब हुआ था जबकबअर्थात काल नहीं था.’’
संगिनी गहरे ध्यान की अवस्था में चली गईं और उन्होंने देखा ----
प्रथम रितेशबार सृष्टि अभी-अभी हुई है. सामने एक ओर  सुंदर औरत लाल साड़ी और तरह-तरह के जेवर पहने हुए खड़ी है.और प्रभु के संगिनी के सामने ही नवसृजित जीव खड़े हैं. लाल कपड़ों वाली औरत का नाम है माया (संगिनी और माया अलग-अलग,प्रथक प्रथक है. माया और स्वरूप शक्ति एक  नहीं है स्वरुप शक्ति जीव को अज्ञान से नहीं  ढ़कती हैपदम पुराण में इसका वर्णन है४०। ५३ -५७)  .वह प्रभु से कह रही है कि प्रभु उसे कुछ जीव दें  दें, बाकी के खुद रख लें. प्रभु ने कहा मैंने तो जीवो को स्वतंत्रता दी है इन्हें स्वतंत्र बनाया है. तुम खुद ही इन्हें अपने साथ ले जाओ यदि तुम्हारे साथ जाना  चाहे. माया ने कहा प्रभु आप इन  सबको इनके कर्मों का कर्ता बना दीजिए और कर्मों का फल क्या मिलेगा यह इनके हाथ में दे दीजिए फिर मैं इन्हें अपने साथ ले जाऊंगी, आपके पास एक भी नहीं रहेगा. प्रभु ने उत्तर दिया ,” मैंने इन्हें कर्म करने की स्वतंत्रता दी है, कर्मों का फल इनके हाथ में नहीं है,और यह कर्ता  है नहीं. ’’संगिनी ने जीवो को समझाया कि उन्हें प्रभु के पास आनंद मिलेगा, उन्हें प्रभु के पास ही रहना चाहिए क्योंकि वह प्रभु के ही अंश हैं, और प्रभु की भांति ही आनंदस्वरूप अविनाशी और चेतन है. संगिनी ने यह भी बताया कि जीवो का माया से कोई नाता ही नहीं हो सकता क्योंकि माया जड़ है, हीन  है, प्रति क्षण बदलने वाली है ,जबकि जीव इसके विपरीत नित्य हैं. माया ने संगिनी से कहा,”” यह आपकी बातों में नहीं आएंगे. देखो मैं आपके सामने ही इनको कैसे लेकर जाती है?’’ फिर प्रभु से आज्ञा लेकर माया ने अपना जाल फैलाया.(हर प्रकार से समर्थ होते हुए भी प्रभु कुछ नहीं बोले क्योंकि उन्होंने जीव को कर्म करने की स्वतंत्रता दे रखी है)  माया ने केवल पांच कंकर डाले जीवो के सामने.इन पांचों  ने अपना कमाल दिखाया. अनंत जीव  माया की तरफ चल दिए ; प्रभु से विमुख हो गए. तब से ही यह अनंत जीव माया के बंधन में है. और बाकी बचे हुए जीव माया से परे हैं; यह प्रभु के सम्मुख है. गहरे ध्यान की अवस्था में  संगिनी  ने  देखा कि यह पांच पत्थर क्या थे, यह पांच कंकर क्या थे? पहले कंकर ने दृश्य संबंधी, आंखों से देखने वाला, आंखों को प्रिय लगने वाला माया जाल फैलाया; दूसरे ने श्रवण योग्य मधुर मधुर सामान रचा; तीसरे ने स्पर्श   संबंधी; चौथे ने रसना संबंधी और पांचवें कंकर  ने सूँघने  संबंधी.केवल इन पांच महारथियों के  बल पर माया ने जीव  को जकड़ लिया. इन पांच विषय-भोगों के अलावा माया के पास कुछ है ही नहीं. भटके हुए जीवो की मां चिल्ला चिल्ला कर उन्हें रोक रही थी पर वह माया के जाल में ऐसे फंसे हुए थे कि उसकी एक नहीं सुन रहे थे. “ अरे मूर्खों यह तुम्हें  सच्चा आनंद नहीं दिला सकती, नहीं दे सकती, इसकी हर बात अनित्य है. इसका सुख अनित्य है, इसका साथ दुखों से भरा हुआ है. लौट आओ अपने खुद के घर लौट आओ लौट आओ. इस  डायन से तुम्हारा कोई नाता ही नहीं है.’’ प्रभु से विमुख हुए इन जीवो को माया ने शरीर दिया संसार दिया. इसे यह मूर्खमैंऔरमेरामानते हैं. इसीलिए भटक रहे हैं. संगिनी  अब जान चुकी थी कि गलती प्रभु की नहीं है. अपनी स्वतंत्रता का सही उपयोग जीव ने नहीं किया और अपना स्वयं का घर छोड़ दिया. इसलिए इन घर से भागे हुए जीवो के पास आनंद का लव- लेश मात्र नहीं है. जन्म-मरण के चक्कर में फंसे हुए हैं. और जो भगवान के सम्मुख रह गए वे  आनंद का भोग भोग रहे हैं .जन्म- मरण से परे है.

यह पुरातन दृश्य देखकर संगनी को सत्य   याद गया कि  गलती प्रभु की नहीं है , जीवो की खुद की है.आज भी संत माया के जाल में फंसे हुए हम जीवो को पुकार पुकार कर कह रहे हैं,’’ प्रभु के सम्मुख हो जाओ, सब कुछ मिल जाएगा, अपने घर वापस आओ. माया से कुछ नहीं मिलेगा, माया का साथ छोड़ दो.’’  आज भी माया के जाल में फंसा हुआ जीव अपने आपको शरीर समझता है शरीर संबंधी सब रिश्तो कोमेरामानता है. अपने को कर्ता समझता है और सोचता है कि कर्मों का फल उसके हाथ में है. आसक्ति में पड कर कर्म करता है और कर्मों के जाल में फंसता ही चला जा रहा है.दलदल से निकलने का एकमात्र उपाय है प्रभु के सम्मुख हो जाना.जब हम उसके पास जाएंगे तो वह खुले हाथों से हमारा स्वागत करेगा.वह दयालु है,हमने जो उसे छोड़कर पाप किया है उसे वह नजर अंदाज कर देगा.

उपरोक्त प्रसंग पुराण, उपनिषद, बाइबल ,कुरान आदि किसी ग्रंथ से नहीं लिया गया है. यह इस लेखक के  स्वयं के विचार हैं. जड़ बुद्धि और मन से भगवान को नहीं जाना जा सकता, ना ही भगवान की कोई बात ही जानी जा सकती है.जीव अनंत हैं. हम जैसे जीव प्रारंभ से ही माया के बंधन में है. अन्य जीव  जिनकी संख्या भी अनंत ही है, क्योंकि अनंत में से अनंत घटाओ तो अनंत ही बचता है,शुरु से ही माया के बंधन में नहीं है. ऐसा क्यों है इसका उत्तर मन और बुद्धि नहीं दे सकते.  केवल इतना ही हम जानते हैं कि एक बार कोई भी जीव जब माया के बंधन से छूट जाता है तो दोबारा माया उस पर हावी नहीं हो सकती. यदि बंधन के छूटने के बाद भी  माया दुबारा बंधन में ले सकती, तो ऐसे में माया से छूटने का कोई औचित्य ही नहीं होता. बंधन से छूटे, फिर बंधन में, फिर बंधन से छूटे फिर बंधन में---- यह वेदों के विरुद्ध है. गीता 2.24,47,5.14,13.21-22.


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