माया, प्रकृति, प्रधान, अविद्या, जड़, अपरा शक्ति? भागवत: सत् संधान .. 7

भागवतसत् संधान .. 7
Maya Prakriti Avidya jad shakti ?


 हमारी साइट [site] का नाम ही प्राइम एलिमेंटस [primelements] है . मूल तत्व विद्वान लोग,  विशेषकर वैष्णव, तीन बताते हैं. ऊपर हमने भगवान और जीव के संबंध में कुछ चर्चा की है, अब तीसरे तत्व के संबंध में। दृष्टा और दृश्य को बतलाने वाली कार्य कारण रूपा शक्ति को  माया कहते हैं. यह अनिर्वचनीय है. इसके द्वारा भगवान विश्व का निर्माण करते हैं-- 3/5/25. गीता में  भी भगवान ने कहा है कि प्रकृति को वश में करके वे संसार की रचना करते हैं, और उनकी अध्यक्षता में  प्रकृति  द्वारा संसार बनता है--9/8,10. माया वह शक्ति है जिससे आत्मा, जो मुक्त है और सब का स्वामी है, बंधन युक्त हो जाता है--3/7/9. प्रकृति के पास  गुण हैं जिससे वह जीव को बांधती हैl  पहला गुण सत्व गुण है, यह निर्मल होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है यह सुख की आसक्ति से और ज्ञान की  आसक्ति से जीव को बांधता है l  दूसरा गुण रजोगुण है जो आसक्ति और तृष्णा से जीव को बांधता हैl  तीसरा तमोगुण है जो अज्ञान से उत्पन्न होता है. यह जीव को प्रमाद  आलस्य और निद्रा के द्वारा बाँधता है l  कृष्ण ने उद्धव को समझाया है कि जब मनुष्य निष्काम होकर अपने कर्मों द्वारा भगवान की आराधना करें तब उसे सत्वगुणी जानना  चाहिए l  जब  सकाम भाव से कृष्ण का पूजन करें तो उसे रजोगुणी और शत्रु की मृत्यु आदि के लिए कृष्ण का भजन करें तो मनुष्य को तमोगुणी समझना चाहिए l आगे समझाते हैं कि इन तीनों गुणों का कारण जीव का चित् है और इन तीनों गुणों से ही कृष्ण का कोई संबंध नहीं l इन्हीं तीनों गुणों के कारण जीव शरीर  में “मैं हूँ मेरा है’’ में  आसक्त होकर बंधन में पड़ जाता है---11/25/10-12 l माया से ही शोक- मोह, सुख-दुख ,जन्म -मरण प्रतीत होते हैं जो कि वास्तव में है ही नहीं, जैसे कि स्वप्न में कुछ ना होने पर भी सब कुछ प्रतीत होता है.--11/11/2. गीता में माया को कृष्ण ने अपनी शक्ति बताया है और इससे पार पाना संभव नहीं है, बिना कृष्ण की शरण में  गए l वेद और भागवत भी यही सिद्धांत बताते हैं-- गीता 7/14 भाग .6/17/21 कठ उप. 1/3/13 . क्योंकि माया भगवान की शक्ति है, इसलिए यह  भगवान  जितनी बलवती है. माया जड़ है. यह अनादि है, परंतु सांत  है, वेदांत के अनुसार। योग और सांख्य में इसे सांत नहीं बताया बल्कि अनंत बताया है. भगवान कृष्ण ने गीता में प्रकृति को अनादि  बताया है परंतु नित्य नहीं बतायाl   भगवान और जीव का तो अंत नहीं होता परंतु प्रकृति का अंत होता है इसलिए इसे सांत कहा है, वेदांत ने. [माया के  अंत का अभिप्राय यह नहीं समझना चाहिए कि माया समाप्त हो गई है. वास्तव में हम मायातीत हो गए हैं. माया तो अपनी जगह रहेगी ही. इसे जगतगुरुतम श्री कृपालु जी महाराज  समझाते हैं कि हम कारागार से छूट गए हैं. हमारी हथकड़ी- बेडियां छूट  गई है; परंतु बेडियां और हथकड़ियों का अस्तित्व अभी भी है, कारागार भी अभी है. यह हमारे लिए ही समाप्त हुआ है. उनका अत्यंतिक आभाव नहीं हुआ है].  इसे भगवान की  अपरा शक्ति बताया गया है. यों  तो जीव  पराशक्ति  है ; परंतु माया अपरा और जड़ होते हुए भी  जीव पर हावी है. इसे जगतगुरुतम श्री कृपालु जी इस प्रकार समझाते हैं:  “जैसे किसी मनुष्य के हाथ में डंडा है तो उस डंडे  में उस मनुष्य की जितनी  शक्ति है. यह यदि एक छोटे से बालक के हाथ में है तो उस डंडे में फिर उस बालक जितनी ही शक्ति है. यही डंडा किसी पहलवान के हाथ में हो तो इस डंडे में पहलवान जितनी शक्ति आ जाती है. सोच कर देखो ! यदि  यही डंडा भगवान के हाथ में है तो उसमें अनंत शक्ति आ गई है. इसीलिए चेतन होते हुए  भी जीव जड़ माया के बंधन में है.’’ माया को मार्कंडेय जी के वृतान्त  में 12 वे  स्कंध में भली प्रकार समझाया गया है. इन्होंने भगवान नारायण से माया देखने का वरदान मांगा. एक दिन संध्या के समय अपने आश्रम पर थे. अचानक आंधी तूफान आए. बहुत जोरों से  वर्षा हुई. सब ओर  जल ही जल दिखता था, पृथ्वी कहीं नजर नहीं आ रही थी. सब कुछ  डूब गया. वह भूख और प्यास से इधर-उधर भटक रहे थे. थक कर बेहोश हो गए. कभी यह जल जंतुओं के शिकार बन जाते, कभी दुखी होते कभी भयभीत होते हैं, कभी मर जाते और कभी तरह तरह के रोग इन्हें सताने लगते. इस प्रकार मार्कंडेय ऋषि प्रलयकाल के समुद्र में लाखों-करोड़ों वर्ष तक भटकते रहे. एक टीले पर एक बरगद का वृक्ष नजर आया. पेड़ पर ईशान कोण में एक डाल पर पत्तों का दोना-सा बना हुआ था जिसमें एक सुंदर-सा छोटा-सा शिशु लेटा था. इन्होंने जानना चाहा कि यह शिशु कौन है और उसकी ओर बढ़े.  इतने मेँ शिशु की सांस के साथ साथ मार्कण्डेय  शिशु के पेट में घुस गए. पेट में इन्होंने देखा सृष्टि वैसे ही थी जैसे प्रलय के पहले थी. यह आश्चर्यचकित हो गए. उन्होंने सारा विश्व शिशु के  पेट के अंदर देख लिया. फिर, यह शिशु की सांस द्वारा बाहर आ गए और वैसे ही प्रलय बाहर देखी जैसी शिशु के पेट में घुसने से पहले थी. वैसे ही बरगद का  पेड़ था और वैसे ही सब पहले सा था. इनके देखते ही देखते बालक अंतर्ध्यान हो गया. इन्होंने पाया कि वे अपने आश्रम में हैं, पहले जैसे ही हैं, ना कोई प्रलय है ना कुछ और. इन्होंने जो कुछ देखा सब सत्य की तरह अनुभव किया था. वास्तव में प्रलय नहीं हुई थी..12/10/41. प्रभु की माया का ही वैभव था. जो मार्कंडेयजी ने अनुभव किया उसे सुन समझकर, यह जानना थोड़ा सरल हो जाता है कि प्रभु की माया समझना, प्रभु को समझने की भाँति, वास्तव में असंभव  है.

कोई कोई विद्वान माया दो प्रकार की बताते हैं. एक विद्या दूसरी अविद्या. विद्या माया द्वारा परमात्मा संसार की रचना करते हैं. अविद्या माया वह  है जिससे जीव  मोहित और हो रहे हैं.

मन और बुद्धि द्वारा प्रकृति/ माया को नहीं जाना जा सकता क्योंकि यह दोनों ही प्रकृति के  कार्य है.
और माया से पार केवल भगवत कृपा से ही हुआ जा सकता है.

माया ,जीव और भगवान, इन तीनों के संबंध में  कुछ कुछ जानकारी दी गई है. हम जीव  भगवान के हैं और माया भी भगवान की है--15/7,7/14 गीता l भगवान को पूर्ण रूपसे  कोई नहीं जान सकता, स्वयं भगवान भी नहीं क्योंकि वह अनंत हैं. जिसका कोई अंत नहीं है उसे कैसे जाना जाए, पूरी तरह. भगवान के संबंध में हम यह जान पाए कि यह सर्वशक्तिमान हैं, सर्वव्यापक हैं, सब के शासक हैं, सर्वज्ञ हैं, सारा ब्रह्मांड भगवान का ही शरीर है, सब कुछ भगवान ही हैं, हम भगवान में हैं और भगवान हम में हैं. उनके बराबर भी कोई नहीं, बड़ा होने का तो कोई सवाल ही नहीं. कृष्ण अवतार में श्रीकृष्ण ने दावानल का पान किया था, 6 दिन की छोटी-सी आयु में पूतना का वध किया, एक ही समय में एक ही काल में 16108 रानियों के साथ रहते थे, विहार करते थे. करोड़ों रूप बनाकर गोपियों के साथ रास किया, अपने मरे हुए गुरु भाई को वापस लाकर गुरु माता को प्रसन्न किया. अपनी स्वयं की माता देवकी को अपने मरे हुए भाइयों को लाकर सौंप दिया. ऐसा सब जानकर प्रतीत होता है कि भगवान सर्वगुणसंपन्न हैं और कुछ भी कर सकते हैं. वह चाहे तो सीधे को उल्टा करें, नहीं करने वाला कार्य करें और करने वाला कार्य नहीं करें.

 अब प्रश्न उठता है कि क्या भगवान सब कुछ कर सकते हैं? प्रथम दृष्टा उत्तर तो यही आएगा, हाँ  !  और ज्यादा गहराई से विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ कार्य हैं  जो भगवान भी नहीं कर सकते, या यूं कहिए कर तो सकते हैं परंतु करते नहीं. क्योंकि यह कार्य करने से उनकी भगवत्ता ही समाप्त हो जाए. क्या भगवान आत्महत्या कर सकते हैं? किताबी ज्ञान के हिसाब से तो उत्तर  यही आएगा, हाँ. परंतु वास्तव में यह नहीं है. जो  अविनाशी है उसका नाश कैसे. सीधी-सी बात है, ना तो उसका नाश कोई दूसरा कर सकता, ना वह स्वयं ही. क्या भगवान ऐसा संकल्प ले सकते हैं, सारे जीव  इसी क्षण मुक्त हो जाएं और भगवान को प्राप्त हो जाएं? फिर, विचार करने से उत्तर यही आएगा, ना. यदि हां होता तो भगवान  अभी तक ऐसा संकल्प कर चुके होते और हमारा आवागमन से छुटकारा हो गया होता. यह छुटकारा नहीं हो सकता है क्या? ना तो हुआ है ना भगवान के  ही भरोसे होगा? तो क्या करें. मुक्ति के उपाय भगवान ने संतो के जरिए व स्वयं ने बताए हैं ,वह करें. कृपा करना भी एक ऐसी भगवान की प्रकृति है जिसे भगवान कभी छोड़ ही नहीं सकते. जरा सोच कर देखिए यदि भगवान कृपा नहीं करें तो, आपके मेरे और बाकी अनंत जीवो के अनंत जन्मों के पाप कैसे माफ होंगे ! अनंत काल से हमारे असंख्य जन्मों से भगवान हमारी बाँट  जो रहे हैं, हाथ पसारे खड़े हैं; लेकिन हम उनकी ओर नहीं जा रहे हैं. परंतु ऐसा करना भगवान  बेचारे छोड़ नहीं सकते। मान लो छोड़ दें ,एक क्षण के लिए भी  और उसी क्षण जीव भगवान के सम्मुख हो जाए तो उसके कोटि जन्मों के पाप क्षमा करने वाला कौन होगा. वह तो उसकी ओर देख ही नहीं रहा होगा. इसलिए भगवान तो हमेशा हमारे सम्मुख हैं, हम ही उनसे विमुख हैं. माया और जीव भगवान के सामने बहुत ही छोटे हैं. परंतु उनका नाश नहीं कर सकते भगवान.  जीव अनादि है और माया  भी अनादि. भगवान ने इन्हें बनाया ही नहीं तो समाप्त कैसे कर सकते हैं, जो एक दिन बनता है वही एक  दिन मिट सकता है. जो हमेशा से है वह हमेशा ही रहेगा. दूसरे, यदि यह माने कि माया और जीव भगवान के अंश हैं तो  भी भगवान इन्हें समाप्त नहीं कर सकते.यह तो एक तरह से अपने ही अंश को समाप्त करके स्वयं को ही दण्ड देने  जैसा होगा. ऊपर हम बता चुके हैं कि भगवान आत्महत्या नहीं कर सकते, इसी तरह वह जीव और माया को भी समाप्त नहीं कर सकते.

हम आए दिन  भगवान के चमत्कारों के विषय में सुनते और पढ़ते रहते हैं. परंतु प्रकृति के नियम भगवान द्वारा बनाए गए हैं और वह नियमों को नहीं तोड़ते. जहाँ ऐसा लगता है कि नियमों का उल्लंघन हो रहा है वहाँ भी वास्तव में नियम नहीं तोड़े जा रहे हैं. भगवान ने अपने गुरु भाई को वापस लाकर अपनी गुरु माता को सौंपा ,क्या यह नियम तोड़ना नहीं था?  ना ! गुरु भाई का शरीर छूट गया था.  जीव  तो था ही, जिस लोक में था वहां से भगवान ले आए और वैसे ही पुराना शरीर, पहले जैसा बना दिया. कर्मों पर ध्यान ना देने की यमराज को आज्ञा भी दी---10/45/45 l इसमें कौन-सा नियम टूटा? स्वामी को अपने दास को आज्ञा देने का अधिकार होता ही है l नियम बनाने वाला नियम तोड़ भी सकता है l  शरीर बनाना भगवान के हाथ में है ही, भगवान की प्रकृति बनाती है ही. द्रोपदी  का चीर बढ़ाया तो भी कोई नियम नहीं तोड़ा. भगवान  अनंत हैं.  चीर/ कपड़ों में बैठ गए तो वह भी बढ़ता ही चला गया. और द्रोपदी की पुकार सुन के उसके पास आए तो कौन-सा नियम तोड़ा. वास्तव में  नियम को निभाया ही. भक्तों ने पुकारा दौड़े चले आए. यह भी तो भगवान का नियम ही है.

अब हम यह जान गए हैं कि भगवान नियमों से बंधे हुए हैं. खुद स्वयं के बनाए हुए नियम वे नहीं तोड़ते. भगवान की एक प्रकृति है- कृपा करना. हमें इस पर ही विशेष ध्यान देना है. और उनकी इस निर्बलता का फायदा उठाना है. रो-रो के उन्हें  पुकारना है, वह जरुर आएंगे. भगवान से हर हाल में नाता जोड़ना है. वैसे तो निष्काम भक्ति सर्वोत्तम है, ऐसा ना हो सके तो कामना  से ही भगवान से नाता जोड़ लो.  कहते हैं ना मामा से काना मामा ही अच्छा।

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