अवतार : भाग 7


नरसिंह अवतार.. स्कंद 7  अध्याय 3-10
दिति-पुत्र  हिरण्यकश्यपु, जो कि सनकादिक  के  श्रापवश   वैकुंठ से गिरा हुआ हरि  पार्षद जय-विजय में  से जय था,को ब्रह्माजी ने वरदान दे दिया: “युद्ध में कोई मेरा सामना नहीं कर सके. सबका राजा  बनु. किसी भी प्राणी से नहीं  मरूँ  . आप के बनाए हुए मनुष्य, पशु प्राणी  अप्राणी, देवता दैत्य,  नाग आदि, तथा  आप के बनाए हुए प्राणियों के अलावा भी किसी से नहीं  मरू; किसी भी स्थान पर नहीं मरूं धरती आकाश बाहर भीतर; किसी भी समय नहीं मरूं दिन-रात; किसी भी शस्त्र से नहीं मरूं; किसी भी अस्त्र से नहीं मरू.’’  यह वर पाकर के असुर ने सब  लोकों में हाहाकार मचा दिया. सब लोकों  और लोकपालों को सताने लग गया. सबने दुखी होकर भगवान से प्रार्थना की  कि  असुर से छुटकारा दिलाएं . प्रार्थना सुनकर आकाशवाणी हुई. आकाशवाणी ने आश्वासन दिया कि असुर से छुटकारा मिल जाएगा.  “जब यह मेरे भक्त प्रहलाद को सताएगा तब मैं इसका वध कर दूंगा।’’ --7.4.21-28.  असुर अपने पुत्र भक्त प्रहलाद से बैर रखता था क्योंकि प्रहलाद असुर बालकों को भक्ति का मार्ग दिखाते थे और असूर धर्म, जो कि  भोग  की ओर ले जाता है, को छोड़ने का उपदेश देते थे. “मित्रों! इस संसार में मनुष्य जन्म बड़ा दुर्लभ है इसके द्वारा भगवान की प्राप्ति की जा सकती है. पता नहीं कब इसका अंत हो जाए इसलिए जवानी और बुढ़ापे का इंतजार नहीं करना चाहिए और बचपन से ही भगवत- प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए’’..7.6.1 “भगवान को प्रसन्न करने के लिए ज्यादा प्रयत्न  नहीं करना पड़ता क्योंकि भगवान सब प्राणियों की आत्मा है और सब जगह मौजूद हैं…’’--7.6.19 . क्रोधित होकर असुर  प्रहलाद जी को मारने पर  उतारू हो गया और हाथ में खडग लेकर  सिंहासन पर से कूद पड़ा. एक जोरदार मुक्का खंबे को मारा.  खंबे से जोऱ  का शब्द हुआ मानो  पूरी सृष्टि ही फट गई है. अपना वचन पूरा  करने के लिए और यह बताने के लिए कि भगवान सर्व व्यापक  हैं, बड़ा ही विचित्र रूप लेकर  भगवान खंबे में से प्रकट हुए. यह रूप ना तो पूरा पूरा मनुष्य का था. ना ही पूरा पूरा सिंह का था. रूप बड़ा  भयानक था. आंखें सोने के समान पीली पीली थी, खुला हुआ मुंह गुफा की तरह दिखता था, विशाल शरीर स्वर्ग का स्पर्श कर रहा था, छाती चौड़ी, कमर पतली थी, चंद्रमा की भाँति सफेद रोए  सारे शरीर पर चमक रहे थे और चारों ओर सैकड़ों भुजाएं फैली हुई थी. नाखून बड़े बड़े थे जो कि शस्त्रों का काम देते थे. चक्र ,वज्र आदि शास्त्रों   द्वारा उन्होंने सारे असुरों को भगा दिया. हिरण्यकश्यपुय ने युद्ध किया. भगवान ने उसके साथ  खेल किया जैसे गरुड़ सांप से खेलता है या सांप चूहे  से. जब हिरणयकश्यपु  भगवान की  पकड़ से छूट गया तब उसने ऐसा सोचा कि मैं इस प्राणी को मार सकता हूं. भगवान ने कुछ देर यूंही खेल कर के हिरण्यकश्यपु का वध कर दिया.  भगवान ने इसे अपनी जांघों पर रखा और नाखूनों से फाड़ दिया जैसे गरुड़ साँप को चीरता है, खून के छींटों से उनका मुंह और गर्दन के बाल लाल हो गए. असुर की आंतो की उन्होंने माला पहन ली, कलेजे को फाड़ कर जमीन पर पटक दिया.भगवान ने इसे संध्या के समय यानी कि ना रात ना दिन;देहली  पर बैठकर यानी कि ना अंदर ना बाहर; नाखूनों से यानी कि बिना अस्त्र-शस्त्र के; एक ऐसे रुप से, जो ना  मानव था ना पशु था,ना ब्रह्मा जी का बनाया हुआ था और नाही  किसी और  का बनाया हुआ था , मार दिया. इस प्रकार ब्रह्माजी के वर का मान रख लिया और संसार को असुर के अत्याचार से, विशेषकर भक्त प्रहलाद को छुटकारा दिलाया. हिरण्यकश्यपु की सेना को भगवान ने लातों से   नख रूपी शस्त्र  से खदेड़ खदेड़ कर मार डाला .  नर्सिंह  भगवान के गर्दन के बालों की फटकार से बादल तितर-बितर होने लगे, गगन में उड़ने वाले विमान अस्त व्यस्त हो गए ,स्वर्ग डगमगा गया, धरती पर भूकंप गया, पर्वत इधर उधर गिर गए. भगवान के तेज से  आकाश तथा दिशाओं का दिखना बंद हो गया.उनका सामना करने वाला कोई भी नहीं था फिर भी क्रोध शांत नहीं हो रहा था. उनके पास जाने की किसी में हिम्मत नहीं हो रही थी. ब्रह्मा आदि सभी देवताओं ने उनकी स्तुतियां की. और सब ने प्रह्लाद जी को ही भगवान का क्रोध शांत करने के लिए आगे किया.
 प्रह्लाद जी ने भगवान की स्तुत स्तुति की,  भगवान की भक्ति की श्रेष्ठता बताई.  यदि कोई ब्राह्मण भगवान की भक्ति से रिक्त है परंतु उसमे शास्त्रों  में वर्णित सभी 12 गुण हैं, तो ऐसा ब्राह्मण उस चांडाल से हीन  है जिसमें भगवान की भक्ति हो. अंत में प्रहलाद जी ने यह माना कि भगवान अनादि  अनंत हैं, उन्हें देवता, ब्रह्मादि कोई भी नहीं जान सकते क्योंकि यह सब आदि और अंत वाले हैं. स्तुति में प्रह्लाद जी ने भगवान की भक्ति के छह अंग बतलाएं हैं : नमस्कार, स्तुति ,सभी कर्मों को भगवान के अर्पण करना, सेवा पूजा,चरणों का चिंतन और लीला- कथा का श्रवण. स्तुति से प्रसन्न होकर, क्रोध त्याग कर नरसिंह भगवान ने प्रहलाद से कहा कि वह जीवों  की सर्व- कामना पूर्ण करने वाले है. प्रहलाद से भी वर मांगने के लिए कहा. प्रह्लाद जी ने उत्तर दिया कि वर  मांगना प्रेमा भक्ति में एक तरह से बाधा ही है. जिस समय  मनुष्य अपने मन में रहने वाली सारी कामनाओं का परित्याग कर देता है ,उसी समय वह  भगवान का जैसा हो जाता है. फिर भी अति खुश होने के कारण भगवान ने प्रहलाद जी को  एक #मनवंतर तक  राज करने के लिए कहा. नरसिंह भगवान ने उन्हें बताया कि सभी कर्मों द्वारा भगवान की ही आराधना करनी चाहिए और ऐसा करने से प्रारब्ध कर्म का क्षय हो जाता है. कर्मों से भगवान की पूजा करना और कर्म भगवान को अर्पण करने की बात भगवान ने कपिल अवतार में ऋषभ अवतार में और कृष्ण अवतार में भी कही है. ऐसे ही उपदेश  गीता में है [जिस परमात्मा से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है और जिससे यह संपूर्ण संसार व्याप्त है उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है--18.46;    अपने सारे कर्म मेरे अर्पण कर दे,ऐसा करने से तू कर्मों के फल से मुक्त हो जाएगा और मुझे ही प्राप्त होगा- 9.27.28 ;  जो भक्ति योगी संपूर्ण कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके आसक्ति का त्याग करके कर्म करता है वह जल में  कमल के पत्ते की तरह पाप में लिप्त  नहीं होता-- 5.10; तू सब कर्मों को मेरे अर्पण करके कामना रहित ममता रहित  सन्ताप रहित  होकर युद्ध रुपी कर्तव्य  कर्म को कर--3.30].निष्कर्ष निकलता है कि सारे ही कर्म यहां तक कि  युद्ध  जैसे  घोर कर्म भी भगवान को अर्पण किए जा सकते हैं और कर्मों से भगवान की पूजा की जा सकती है. यह भगवत प्राप्ति और मुक्ति का सबसे सरल उपाय  है.

 प्रह्लाद जी की प्रार्थना पर भगवान ने उनके पिता को माफ कर दिया और कहा कि प्रहलाद जैसा भक्त किसी कुल में पैदा होता है तो उस कुल की 21 पीढ़ियां तर जाती है.

भगवान ने प्रहलाद जी को अंत में यह भी वर दिया: “तुम्हारे द्वारा की हुई मेरी इस स्तुति का जो मनुष्य कीर्तन करेगा साथ ही  मेरा और तुम्हारा स्मरण करेगा वह कर्म बंधन से मुक्त हो जाएगा. ‘’---7.10.14 .

# एक मन्वन्तर ७१ चतुर्युगी के बराबर होता है . चतुर्युगी में चार युग होते है --कलि लाख ३२ हज़ार वर्ष,द्वापर कलि  से दो गुणा  ,त्रेता तीन गुणा सत्य चार गुणा --- कुल ४३ लाख २० हज़ार वर्ष  . हज़ार चतुर्युगी , अरब ३२ करोड़ वर्ष, का ब्रह्माजी का एक दिन होता है . फिर प्रलय, जो ब्रह्मजी की रात कहलाती है और इनके दिन जितनी बड़ी है,  होती है. फिर स्रष्टि ,फिर प्रलय और यह ब्रह्मा के १००वर्ष तक सिलसिला चलता है, फिर ब्रह्मा भी समाप्त .इसे महाप्रलय कहते हैं .केवल भगवान रहते हैं . ना जाने कितने काल तक महाप्रलय रहती है।  भगवान के मन में आती है तब सर्ग आरम्भ होता है.

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  वामन  अवतार
 इंद्र ने राजा बलि को पराजित कर दिया, उसकी सब संपत्ति छीन ली और मार डाला. परंतु असुरों के गुरू शुक्राचार्य ने राजा बलि को जीवित कर दिया. उनके तथा भृगु वंशी ब्राह्मणों के आशीर्वाद से असुर लोग बहुत शक्तिशाली हो गए.  बलि का तेज सब और फैला हुआ था.उसके पास विशाल सेना थी. गुरु बृहस्पति की सलाह पर देवता लोग  स्वर्ग  Swarg छोड़कर चले गए और अच्छे समय का इंतजार करने लगे. इससे देवताओं की माता आदित्य को बहुत दुख पहुंचा. अपने पति की सलाह पर उसने पयोव्रत किया जिसे सर्वयज्ञ और सर्वव्रत  भी कहते हैं. भगवान ने प्रसन्न   होकर वचन दिया .  मैं अंश  रूप से कश्यप के वीर्य में प्रवेश करूंगा और तुम्हारा पुत्र बन कर तुम्हारी संतान की रक्षा करूंगा.’’ प्रकट होने से पहले भगवान ने चतुर्भुज  रूप में अदिति को दर्शन दिए. अभिजीत मुहूर्त में भगवान का जन्म हुआ, तिथि विजया द्वादशी कहलाती है.जन्म के पश्चात भगवान ने वामन ब्रहमचारी का रूप धारण कर लिया.  राजा बली जहाँ  यज्ञ  कर रहा था वे वहाँ  पहुंच गए और उससे तीन पग धरती की मांग की. असुरों के गुरू शुक्राचार्य ने राजा को मना किया: “ यह स्वयं भगवान विष्णु है, देवताओं का काम बनाने के लिए आए हैं. इन्हें दान देने की प्रतिज्ञा करके तुमने गलत किया है. तीन पग में यह सारे लोकों  को नाम लेंगे. तुम्हारे पास कुछ नहीं बचेगा. दैत्यों पर बहुत अन्याय होने जा रहा है, मैं इसे ठीक नहीं समझता.दान  के संबंध में गुरु ने राजा को समझाया कि विद्वान लोग उस दान की प्रशंसा नहीं करते जिससे जीवन निर्वाह के लिए कुछ बचे  ही नहीं, जो मनुष्य अपने धन को पांच  भाग में बांट देता है धर्म के लिए, यश के लिए ,धन की वृद्धि के लिए ,खुद के लिए और अपने प्रियजनों के लिए, वही इस लोक और दूसरे लोक  में सुख पाता है’’. --8.19.30-37.(दान संबंधी लेख give ,give and  give again देखें ) परंतु वचन तोड़ना राजा ने उचित नहीं समझा. दैत्यराज थे ज्ञानी .वे समता में स्थित  थे.शुकदेव जी कहते हैं की राजा बलि  संसार में जीवन- मृत्यु, जय- पराजय आदि  उलटफेर पर खेद  नहीं किया करते थे, जानते थे कि जीवन में ऐसा उलटफेर होता ही रहता है---8.11.48.   भगवान का शरीर इतना विशाल था कि उन्होंने एक पद  में सारी धरती, दूसरे पद से स्वर्गादि सारे लोग नाप लिए; तीसरा पद  रखने के लिए जगह नहीं मिली, उनके पांव के नाखून से ब्रह्मांड का एक भाग टूट गया जिससे  बृहम द्रव्य ब्रहमांड में घुस गया. इससे ब्रह्मा जी ने भगवान का चरण धोया और चरणोदक को ब्रह्मदेव ने  अपने कमंडलु में ले लिया .यही ब्रह्मद्रव्य गंगाजी बना.  भगवान ने, तीसरा भाग बाली के कहने पर उसके माथे पर रखा. इस प्रकार दान में भगवान ने सारे लोक  ही ले लिए . यह सब देख कर असुर लोग बहुत क्रोधित हुए और हमला करने पर उतारु हो गए. परंतु भगवत  पार्षद, जो की बहुत बलशाली थे, ने उन्हें मारना शुरु कर दिया.  यह जानकर कि असुर जीत नहीं सकते राजा ने उंहें युद्ध रोकने की सलाह दी और वहां से चले जाने को कहा.राजा ने भगवान की स्तुति की. कहा, “अनन्य भाव से योग करने वाले योगी  जो सिद्धि प्राप्त करते हैं वही सिद्धि बहुत से असुरों को आप के साथ बैरभाव करने से मिल गई है. राजा ने अपने जीवन को अनित्य बताया.’’ राजा बलि के  दादा पहलाद भी भगवान के आगे हाथ जोड़े खड़े थे. भगवान राजा पर प्रसन्न हुएआने वाले&मन्वंतर , सावर्णि, में बलि को इंद्र  का पद दे दिया. तब तक बलि को सुतल लोक में रहने के लिए कहा.भगवान के कहने पर शुक्राचार्य जी ने  यज्ञ yagya में जो त्रुटियां रह गई थी उसे पूरा किया . फिर लोकपालों के स्वामी के पद पर वामन भगवान का अभिषेक हुआ.ब्रह्माजी ने इन्हेंउपेंद्रसे संबोधित किया।  इस प्रकार भगवान ने इंद्र को उसका खोया हुआ राज्य दिलाया.
कुछ  ऐसा समझते हैं कि भगवान ने बलि को छला. ऐसा नहीं है. राजा बलि को पता चल गया था कि यह भगवान है क्योंकि उनके  गुरु ने उन्हें सावधान कर दिया था. दूसरे भगवान की लीला को मनुष्य की  तुच्छ  बुद्धि से नहीं आंका जा सकता. छली तो वह होता जो दूसरे से कुछ  छीन ले. भगवान ने तो बलि को स्वर्ग से भी श्रेष्ठ लोग सुतल दिया. और आगामी मन्वंतर& में उन्हें इंद्र के पद पर आसीन किया. यह लेना नहीं है यह तो देना ही है.और गदा लेकर हमेशा इस लोक में रह रहे हैं ….8/23/10 l यह भगवान की उदारता है. देवताओं को उनका स्वर्ग मिल गया और राजा बलि को उससे भी अच्छा लोक, सुतल.( लेख लोक-परलोक में सुतल का वर्णन है )
शुकदेव जी  परीक्षित को  कह रहे हैं कि भगवान की लीला सुनने से सुनने वालों के सब पाप  छूट जाते हैं. देवयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ, किसी भी कर्म का अनुष्ठान करते समय, जहां-जहां भगवान की वामन अवतार लीला का कीर्तन होता है वह कर्म सफलतापूर्वक संपन्न हो जाता है. यह बड़े बड़े महात्माओं का अनुभव है... 8.24.31.शुक्राचार्य जी समझाते हैं कि मंत्रों की, अनुष्ठान पद्धति की, देश ,काल ,पात्र और वस्तु की सारी भूले भगवान के नाम संकीर्तन मात्र से सुधर जाती हैं. भगवान का नाम समस्त  अपूर्णताओं  को पूर्ण कर देता है.
& अभी वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है. कल्प ,जो ब्रह्मा का एक दिन है, में १४ मन्वन्तर होते हैं…(क्रमश:)


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